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जोगिंदर हमाली अहमदाबाद शहर में वर्षों तक खुले में अपने ठेलेगाड़ी पर सोते रहे. उन्हें ज़िंदगी की नाइंसाफ़ी पर हैरानी होती थी. पिछले साल लॉकडाउन से पहले तक वह अहमदाबाद में दिहाड़ी कर रहे थे. लेकिन काम छूट गया तो वो गाँव लौट गए.
कुछ महीनों पहले काम की तलाश में हमाली फिर अहमदाबाद लौटे, लेकिन इस साल अप्रैल में जब लॉकडाउन लगा तो एक बार फिर उन्हें मजबूर होकर गाँव का रास्ता पकड़ना पड़ा. उन्हें पता था कि बग़ैर काम और पैसे के शहर में टिके रहना मुश्किल होगा.
हमाली यूपी के रहने वाले हैं. गांव में उनके पास एक बीघा से भी कम ज़मीन है. पूरे परिवार में दस लोग हैं.
फोन पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “हमें मुश्किल से कभी राशन मिलता है. ग़रीबों को अक्सर इससे महरूम रखा जाता है. पिछली बार एक दफ़ा तीन लोगों के लिए 25 किलो राशन मिला था. लेकिन परिवार में और भी तो लोग हैं. हमने शिकायत भी की लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.”
हमाली इस देश के उन लाखों प्रवासी मज़दूरों में शामिल हैं, जो कोरोना की पहली और दूसरी लहर में बेरोज़गार हो गए और ग़रीबी में धकेल दिए गए.
सरकार जितना अनुमान लगा रही है उससे काफ़ी ज़्यादा लोग ग़रीबी के गर्त में धकेल दिए गए हैं.
मज़दूरों को भयंकर ग़रीबी के गर्त में धकेल रहा कोरोना
रोज़गार और लोगों की आय से जुड़ी जो रिपोर्टें आ रही हैं, उनसे पता चलता है कि कोरोना के बढ़ते मामले गरीबों की दुश्वारियों में और इज़ाफ़ा ही करेंगे.
रिपोर्टों के मुताबिक़, 23 करोड़ अतिरिक्त लोग राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी की आय के स्तर से नीचे जाकर ग़रीबी में फंस चुके हैं. इनमें यह कहा गया है कि बेहद ग़रीब परिवारों ने इस मुसीबत में काफ़ी क़र्ज़ लिया है. यह क़र्ज़ ऊंचे ब्याज पर साहूकारों से लिया गया है.
मनरेगा में काम करने वालों की संख्या में रिकॉर्ड इज़ाफ़ा हुआ है. बिहार में ग्रामीण समुदायों के बीच काम करने वाले अबोध कुमार का कहना है कि प्रवासी मज़दूरों को ना के बराबर काम मिला है.
वह कहते हैं, “भुखमरी तय है. गांवों में कोई काम नहीं है. मनरेगा यहां काम नहीं करता है. लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं है. उन्हें मनरेगा पर भरोसा नहीं है. इसकी मज़दूरी समय पर मिलती ही नहीं है. यहां कोई स्कीम काम नहीं करती.”
सरकार ने मई और जून में फ्री राशन देने का ऐलान किया था लेकिन यह काफी नहीं है. 1 अप्रैल तक के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में 11.17 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत काम हासिल किया था जबकि 2019-20 में इसके तहत 7.88 करोड़ लोगों इसमें काम किया था.
लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ की स्टडी बताती है कि देश के अंदर ही एक जगह से दूसरी जगह जाकर (आंतरिक प्रवासी मज़दूर) काम करने वाले 95 फ़ीसदी मज़दूरों का काम लॉकडाउन के दौरान छिन गया. मनरेगा का लाभ सिर्फ़ सात फ़ीसदी लोगों को मिला है.
12 मई को पटना हाई कोर्ट ने बिहार सरकार से पिछले साल कोरोना की पहली लहर में गांव लौटे 40 लाख प्रवासी मज़दूरों के बारे में स्टेटस रिपोर्ट मांगी.
फ्री राशन देने का क़दम भी कारगर नहीं
मार्च, 2020 में सरकार ने ऐलान किया था कि 80 करोड़ लोगों को नवंबर तक हर महीने अतिरिक्त पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल फ्री मिलेगी.
जून 2020 में ही सरकार ने ग़रीब कल्याण रोज़गार अभियान का ऐलान किया था. काम देने की यह स्कीम गांव लौट रहे प्रवासी मज़दूरों के लिए लागू की गई थी.
यह स्कीम, 50 हज़ार करोड़ रुपये के आवंटन से शुरू हुई थी. इसका मक़सद देश के छह राज्यों के 116 ज़िलों के ग्रामीण इलाकों में रोज़गार देना और इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना था.
बिहार के मुज़फ्फरपुर में प्रवासी कामगारों के स्वयंभू नेता संजय सहनी कहते हैं कि जिस पैमाने पर लोग बेरोज़गार हुए हैं, उसकी तुलना में यह काम बहुत कम है. सहनी खुद प्रवासी कामगार हैं और मनरेगा कार्यकर्ता भी. पिछले साल उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर बिहार विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था.
इस साल जब बजट पेश किया गया था तो प्रवासी मज़दूरों को राहत देने के लिए कई उपायों का ऐलान हुआ था.
इनमें वन नेशन, वन राशन कार्ड जैसी स्कीम भी शामिल थी. यह एक पोर्टेबिलिटी स्कीम है, जिसके तहत ग़रीब प्रवासी किसी भी राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकान से सब्सिडी दर पर राशन ले सकता है. लेकिन अभी सभी राज्यों ने इसे लागू नहीं किया है.
घर-बाहर दोनों जगह बेरोज़गार हैं मज़दूर
मार्च, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था. इसके बाद अभूतपूर्व रिवर्स माइग्रेशन शुरू हो गया था.
मनीष सिक्योरिटी कार्ड की नौकरी खोजने मार्च, 2020 में दिल्ली गए थे. लेकिन उसी दौरान लॉकडाउन शुरू हो गया. इसके बावजूद उन्हें उम्मीद थी कि दो महीने के बाद जब लॉकडाउन खुलेगा तो उन्हें कोई न कोई काम तो मिल ही जाएगा. वह दो महीने तक रुके रहे. उनके पास पैसे बिल्कुल नहीं थे. आखिरकार उन्हें घर लौटना पड़ा.
वह कहते हैं, “हमें घर छोड़ कर बाहर जाना पड़ता है क्योंकि गांवों में कोई रोज़गार नहीं है. हमें काम पर लौटना ही होगा. गांव में क्या रखा है जो सोचा जाए .”
विजय कुमार को पहली बार जुहू तट पर जाकर समुद्र देखना याद है. लेकिन वह एक ही बार समुद्र देख पाए थे.
वह कहते हैं, “मैं ओवरटाइम के साथ पांच हज़ार कमा लेता था. तीन हज़ार रुपये घर भेज देता था. लेकिन दो साल बाद मुझे घर लौटना पड़ा. इसके बाद मैं काम ढूंढने दिल्ली निकल गया.”
उन्होंने वेटर के तौर पर काम की शुरुआत की थी. 2020 में लॉकडाउन लगने के बाद वह गांव चले आए. उनके पास लगभग एक साल तक कोई काम नहीं था. वह इस साल अप्रैल में लौटे लेकिन होटल बंद था. उन्हें फिर अपने गांव लौटना पड़ा.
वह कहते हैं, “बिहार में कुछ भी नहीं है. हमारे पास सीमित विकल्प हैं. हमें अपने हालातों से जूझने के लिए छोड़ दिया गया है.”
स्टैंडर्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (SWAN) के स्वैच्छिक रिसर्चरों की एक स्टडी के मुताबिक इस साल लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूर जिस तरह असहाय थे, ठीक यही स्थिति 2020 में लगे लॉकडाउन में भी दिखी थी.
रिपोर्ट में कहा गया कि शहरों में फंसे या गांव लौट चुके मज़दूरों में से 81 फ़ीसदी ने कहा कि स्थानीय स्तर पर लगाए गए लॉकडाउन या प्रतिबंधों से काम मिलना बिल्कुल बंद हो गया था.
रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से सिर्फ 68 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें पिछले महीनों में किए गए काम का पूरा या थोड़ा भुगतान हुआ है.
बेरोज़गारी के साथ ही राशन कार्ड जैसे सामाजिक सुरक्षा के उपायों की नाकामी और मनरेगा में काम न मिलना प्रवासी मज़दूरों के लिए समस्या बना हुआ है. साभार-बीबीसी न्यूज़ हिंदी
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