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ये विवाद आज का नहीं है। ये सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने ‘रामायण’ के बारे में न सुना हो। भारत व भारत से जुड़े कई देशों में सदियों से राम-रावण और सीता की कथा सुनाई जाती रही है। ‘रामलीला’ हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है। महर्षि वाल्मीकि, जिन्हें आदिकवि भी कहा गया है – उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की थी। विवाद इस पर होता रहा है कि क्या महर्षि वाल्मीकि पहले डाकू थे?
सबसे पहले तो ये जान लीजिए कि जो डाकू वाली कथा प्रचलित है, उस तरह की कई कथाएँ हमें पुराणों व हिन्दू साहित्य में मिलती हैं। किसी ब्राह्मण का पापी हो जाना, फिर किसी घटना के कारण पश्चाताप और फिर उसका कुछ श्रेष्ठ कर्म कर के यशस्वी हो जाना – इस तरह की कथाएँ पुराणों में भी हैं। अब वाल्मीकि एक आदिकवि ही थे या डाकू वाले कोई अलग ऋषि थे, इस पर भी संशय है। फिर भी, जो प्रमाण हैं उन्हें देखना चाहिए।
‘दलित साहित्य’ पर शोध कर चुके दिवंगत लेखक ओमप्रकश वाल्मीकि की मानें तो महर्षि वाल्मीकि पहले डाकू नहीं हुआ करते थे। पंजाब में आपको कई जगह ‘वाल्मीकि मंदिर’ मिलेंगे। इस समाज के लोगों ने विदेशों में भी ऐसे मंदिर बनवाए हैं। यहाँ तक कि ‘रामायण’ में उन्होंने उन्होंने अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं बताया है। ‘रामायण’ का रचनाकाल क्या है, यहाँ हम इस विवाद में भी नहीं पड़ेंगे क्योंकि इसे लेकर इतिहासकारों व सनातन विद्वानों में अलग-अलग राय हैं।
यहाँ तक कि ‘तैत्तिरीय प्रशिशाख्य’ में भी तीन जगह वाल्मीकि का जिक्र मिलता है। कई इतिहासकारों ने पाया है कि ये आदिकवि से भिन्न हैं। इस आधार पर ओमप्रकाश वाल्मीकि अंदाज़ा लगाते हैं कि उस समयकाल में ये नाम प्रचलित रहा होगा। महाभारत में कई जगह वाल्मीकि का उल्लेख है और उन्हें कवि कहा गया है। सबसे पहले हम बात करते हैं कि महर्षि वाल्मीकि के पहले डाकू होने की प्रचलित कथा क्या कहती है।
महर्षि वाल्मीकि का असली नाम अधिकांश साहित्य में ‘अग्निशर्मा’ ही मिलता है, ‘रत्नाकर’ नहीं। लोकप्रिय कवि नाभादास द्वारा लिखित ‘भक्तमाल’ में 200 भक्तों की कहानी है। सन् 1585 में लिखी गई इस पुस्तक में जो वाल्मीकि की कहानी है, उसमें बताया गया है कि अग्निशर्मा के परिवार को अकाल की वजह से पलायन करना पड़ा था, जिसके बाद जंगल में उनकी संगत डाकुओं से हो गई। उसने वहाँ से गुजर रहे सप्तर्षियों को भी लूटना चाहा।
लेकिन, सप्तर्षियों में से एक अत्रि मुनि ने उससे पूछा कि जिस परिवार के लिए वो ये सब कर रहा है, क्या वो उसके पाप में भागीदारी लेंगे? पूछने पर परिवार के सभी सदस्यों ने इसे नकार दिया। तब ‘अग्निशर्मा’ की आँखें खुलीं और उसे मंत्र दिया। घोर तपस्या से उसके चारों तरफ ‘वल्मीक’, अर्थात दीमक का आवरण हो गया। ऋषियों ने उन्हें इस आवरण से निकाल कर इसीलिए उनका नाम ‘वाल्मीकि’ रखा। उन्होंने शिव की आराधना की और ‘रामायण’ की रचना की।
एक अन्य कथा है जिसमें वाल्मीकि राम की जगह ‘मरा-मरा’ जपते हैं और इस कथा में अत्रि मुनि की जगह नारद होते हैं। लेकिन, जिस काल की ये बात है उस समय संस्कृत में ‘मरा’ कोई इस तरह का शब्द ही नहीं था, ऐसे में इस कथा पर संशय उत्पन्न होना स्वाभाविक है। हाँ, ये ज़रूर है कि इन कथाओं में ‘वल्मीक (दीमक)’ के आवरण की बात ज़रूर पता चलती है। श्रीभागवतानंद गुरु ने अपनी पुस्तक ‘उत्तरकाण्ड प्रसंग एवं संन्यासाधिकार विमर्श‘ में इन कथाओं की चर्चा की है।
इसी तरह की एक कथा ‘वैशाख’ नाम के ब्राह्मण की भी है, जिसके पापमुक्त होने के बाद उसके ‘वाल्मीकि’ नाम से प्रसिद्ध होने का आशीर्वाद दिया गया। अब आते हैं इस बात पर कि खुद रामायण में इसके बारे में क्या लिखा है। श्रीभागवतानंद गुरु ने तो लिखा है कि बाल कांड में ही महर्षि वाल्मीकि ने उत्तर कांड की तरफ भी इशारा कर दिया है, इसीलिए ये प्रक्षेपित नहीं है। वो उत्तर कांड को आदिकवि की ही रचना मानते हैं।
‘उत्तर कांड’ में माता सीता की पवित्रता का परिचय देते हुए महर्षि वाल्मीकि ने राम दरबार में खुद का कुछ यूँ परिचय दिया है, जिसका भावार्थ है – हे राम! मैं प्रचेता मुनि का दसवाँ पुत्र हूँ और मैंने अपने जीवन में कभी भी मन, क्रम या वचन से कोई पापपूर्ण कार्य नहीं किया है। प्रचेता परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे। उन्हें कहीं-कहीं वरुण भी कहा गया है। इस तरह से महर्षि वाल्मीकि भी ब्रह्मा के पौत्र हुए। हाँ, उनके ब्राह्मण होने की कथा तो हर जगह है।
प्रेचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनंदन।
मनसा कर्मणा वाचा भूतपूर्वं न किल्विषम्।।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की मानें तो वाल्मीकि के डाकू होने की कथा में किसी भी प्रकार की तार्किकता या प्रमाणिकता का अभाव है। अपनी पुस्तक ‘सफाई देवता‘ में उन्होंने लिखा है कि ‘स्कंद पुराण’ में ही डाकू वाली कथा का विकसित रूप पहली बार दिखाई देती है और इसका अधिकांश लेखन कार्य 8वीं शताब्दी में हुआ। पुराणों में समय-समय पर बहुत से प्रक्षेप जोड़े गए हैं, इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता।
इसी तरह अब डॉक्टर मंजुला सहदेव के शोध की बात करते हैं। उन्होंने पाया कि छठी शताब्दी से पहले के किसी भी साहित्य में वाल्मीकि के पहले डाकू होने का जिक्र नहीं है। उन्होंने अपने समय के विद्वान, दूरदर्शी व क्रांतिकारी ऋषि वाल्मीकि का जिक्र किया है। महर्षि वाल्मीकि के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने तमसा नदी के तट पर रामायण की रचना की थी। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने भी माना है कि वाल्मीकि पहले डाकू नहीं थे।
लीलाधर शर्मा ‘पर्वतीय’ ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति कोष‘ में लिखा है कि ऋषि भृगु भी वाल्मीकि के भाई थे और दोनों ही परम ज्ञानी थे। उन्होंने लिखा है कि जिन वाल्मीकि के डाकू होने की बात कही जाती है, वो कोई अलग थे और पौराणिक मत है कि वो रामायण के रचयिता से भिन्न थे। आजकल की कुछ कहानियों में तो इतना हेरफेर किया गया है कि अंगुलिमाल डाकू, जिसे बुद्ध के काल का बताया जाता है, उसे भी वाल्मीकि बता दिया जाता है।
फिर भी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में ‘उल्टा नाम जपत जग जाना, बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना’ नामक चौपाई का उदाहरण दिया जाता है। लेकिन, ये भी जान लीजिए कि रामायण के कई वर्जन हैं और ‘अध्यात्म रामायण’ में भी ऐसी ही एक कहानी है, जो ‘कृतिवास रामायण’ से लेकर इसके अन्य वर्जनों तक है। लेकिन, ये सब बाद में लिखी गई। वाल्मीकि के बारे में प्रामाणिक वही होगा, जो रामायण के रचनाकाल के समय का स्रोत होगा।
साभार-ऑपइंडिया।
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