भारत सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अधीन, कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने ‘लाल माँस’ से संबंधित अपनी नियमावली से ‘हलाल’ शब्द को हटा दिया है और उसकी जगह अब नियमावली में कहा गया है कि ‘जानवरों को आयात करने वाले देशों के नियमों के हिसाब से काटा गया है.’
यह बदलाव सोमवार को किया गया, जबकि अब तक माँस को निर्यात करने के लिए उसका हलाल होना एक महत्वपूर्ण शर्त रही है.
फ़िलहाल बदलाव के बाद एपीडा ने स्पष्ट किया है कि ‘हलाल’ का प्रमाण-पत्र देने में किसी भी सरकारी विभाग की कोई भूमिका नहीं है.
नियमावली में पहले लिखा गया था: “सारे जानवरों को इस्लामिक शरियत के हिसाब से काटा जाता है और वो भी जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिन्द की देखरेख में. इसके बाद जमीयत ही इसका प्रमाण-पत्र देता है.”
‘हलाल’ के मुद्दे को लेकर संघर्ष कर रहे संगठन – ‘हलाल नियंत्रण मंच’ का कहना है कि एपीडा की नियमावली में ही ऐसे प्रावधान किये गए हैं जिनके तहत कोई भी बूचड़खाना तब तक नहीं चल सकता, जब तक उसमें हलाल प्रक्रिया से जानवर ना काटे जाएँ.
मंच, पिछले लंबे अरसे से ‘हलाल’ और ‘झटके’ के सवाल को लेकर संघर्ष करता आ रहा है.
इस संगठन का कहना है कि जहाँ तक माँस को हलाल के रूप में प्रमाणित करने की बात है तो इसका प्रमाण-पत्र निजी संस्थाएं देती हैं, ना कि कोई सरकारी संस्था.
सबसे ज़्यादा माँस का निर्यात चीन को
संस्था के हरिंदर सिक्का कहते हैं, “11 हज़ार करोड़ रुपये के माँस निर्यात का व्यापार चुनिंदा लोगों की लॉबी के हाथों में है. बूचड़खानों का निरीक्षण भी निजी संस्थाओं के द्वारा किया जाता है और एक धर्म विशेष के गुरु के प्रमाण देने पर ही एपीडा द्वारा उसका पंजीकरण किया जाता है.”
हलाल नियंत्रण मंच के अलावा विश्व हिंदू परिषद भी इसके विरोध में रहा है.
परिषद का कहना है कि सबसे ज़्यादा माँस का निर्यात चीन को होता है जहाँ इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि माँस हलाल है या झटका.
परिषद के विनोद बंसल ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि सिख धर्म में तो हलाल खाने की मनाही है. सिख धर्मावलंबी वही माँस खा सकते हैं जहाँ जानवर को झटके से काटा गया हो.
उनका कहना है, “ये तो एक धर्म की विचारधारा थोपने की बात हो गयी. हम हलाल खाने वालों के अधिकार को चुनौती नहीं दे रहे, मगर जो हलाल नहीं खाना चाहते उन पर इसे क्यों थोपा जा रहा है? हम इसी बात का विरोध कर रहे हैं. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और व्यवसाय करने के लिए सभी को बराबर का अधिकार मिलना चाहिए.”
हरिंदर सिक्का के अनुसार, हलाल सब पर थोपा जा रहा है. वे कहते हैं कि पाँच सितारा होटल से लेकर, छोटे रेस्त्रां, ढाबे, ट्रेन की पैंट्री और सशस्त्र बलों तक में इसकी आपूर्ति की जाती है.
मंच को जिस बात पर ज़्यादा आपत्ति है वो है- माँस के अलावा भी दूसरे उत्पादों को हलाल प्रमाणित करने की व्यवस्था.
कारोबार में हलाल माँस व्यापारियों का क़ब्ज़ा?
हलाल नियंत्रण मंच के पवन कुमार ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि माँस को हलाल प्रमाणित करने तक ही मामला सीमित नहीं है.
वे कहते हैं, “अब तो भुजिया, सीमेंट, कॉस्मेटिक्स और अन्य खाद्य पदार्थों को भी हलाल के रूप में प्रमाणित करने का फ़ैशन बन गया है. जैसे दाल, आटा, मैदा, बेसन आदि. इसमें बड़े-बड़े ब्रांड शामिल हैं. ठीक है उन्हें अपने उत्पाद इस्लामिक देशों में भेजने हैं और वहाँ बेचने हैं. वो उनकी पैकेजिंग अलग से कर सकते हैं. हमें आपत्ति नहीं है. मगर भारत में भुजिया के पैकेट को हलाल प्रमाणित करना या साबुन को हलाल प्रमाणित करने का कोई तुक नहीं बनता.”
हलाल के ख़िलाफ़ ‘झटका मीट व्यापारी संघ’ भी आंदोलन कर रहा है.
इस संगठन का कहना है कि माँस के व्यापार में झटका माँस के व्यापारियों की कोई जगह नहीं है. सारे व्यापार में हलाल माँस व्यापारियों का क़ब्ज़ा हो गया है, जबकि बड़ी तादाद में सिख और अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग झटके का माँस ही खाना चाहते हैं.
संगठन का कहना है कि बराबर की हिस्सेदारी तभी होगी जब हलाल के साथ-साथ झटके का भी प्रमाण-पत्र दिया जाये.
वैसे दक्षिणी दिल्ली नगर निगम ने सभी माँस विक्रेताओं और होटल-ढाबा संचालकों के लिए यह आनिवार्य कर दिया है कि वो अपनी दुकान, होटल या ढाबे के बाहर लिखें कि वो कौन सा माँस बेचते हैं, ताकि लोगों को चुनने में आसानी हो.
हरिंदर सिक्का कहते हैं कि ऐसा होने से किसी पर कोई चीज़ थोपी नहीं जा सकेगी और लोग अपनी पसंद के हिसाब से खा सकेंगे.
विश्व हिंदू परिषद के आरोप
आँकड़े बताते हैं कि 2019-2020 के वित्तीय वर्ष के दौरान भारत से लगभग 23 हज़ार करोड़ रुपये का लाल माँस यानी भैंसे के माँस का निर्यात किया गया. इसमें सबसे ज़्यादा निर्यात वियतनाम को किया गया.
इसके अलावा भैंसे के माँस का निर्यात मलेशिया, मिस्र, सऊदी अरब, हॉन्ग-कॉन्ग, म्यांमार और यूएई को किया गया.
संगठनों का कहना है कि इस्लामी देशों को अगर छोड़ भी दिया जाये तो अकेले वियतनाम को लगभग 7,600 करोड़ रुपये तक के माँस का निर्यात किया गया. वियतनाम और हॉन्ग-कॉन्ग को जो माँस भेजा गया उसका हलाल होना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि वहाँ से ये सारा माल चीन जाता है जहाँ इसका कोई मतलब ही नहीं है.
हरिंदर सिक्का के अनुसार वियतनाम और हॉन्ग-कॉन्ग जैसे देशों को झटके का माँस भी भेजा जा सकता था जिससे झटके के कारोबार से जुड़े लोगों को भी कमाने का मौक़ा मिलता.
वे कहते हैं, “मगर ऐसी व्यवस्था के ना होने से ये ‘झटका कारोबारियों’ के साथ सालों से नाइंसाफ़ी होती रही है.”
वहीं विश्व हिंदू परिषद का कहना है कि हलाल का प्रमाण-पत्र देने की पूरी व्यवस्था की जाँच होनी चाहिए.
संगठन का आरोप है कि इस व्यवस्था का दुरुपयोग होता रहा है जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा करने वाले तत्वों और संगठनों को इससे फ़ायदा पहुँचता रहा है.साभार-बीबीसी
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