सफलता की कहानी : कुलदीप सिंह चहल

कुलदीप सिंह चहल, 2009 बैच के आईपीएस ऑफिसर हैं, जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि वे जहां भी पोस्टेड होते हैं, वहां का क्राइम ग्राफ अपने आप नीचे आ जाता है और लॉ एंड ऑर्डर बढ़िया तरीके से मेंटेन होता है. एएसआई से आईपीएस तक का यह सफर कुलदीप के लिए आसान नहीं था, खासकर तब जब उन्होंने यूपीएससी परीक्षा के दौरान कभी भी नौकरी नहीं छोड़ी और नौकरी भी ऐसी जिसमें कभी भी कोई भी ड्यूटी आपको पुकार सकती है. ये कोई 9 टू 5 का जॉब नहीं, जहां कम से कम ऑफिस आवर्स के बाद का टाइम अपना होता है या जहां हफ्ते में दो दिन की छुट्टी मिलती है. हम सभी वाकिफ हैं कि पुलिस की नौकरी आसान नहीं होती, जहां कभी भी कोई भी इमरजेंसी आ सकती है. पर कुलदीप ने कभी अपनी वर्तामान नौकरी को रास्ते की बाधा नहीं बनाया बल्कि नौकरी के बीच-बीच में समय निकालकर तैयारी की और सफलता भी पायी.

चंडीगढ़ में हुयी पढ़ाई-लिखाई

कुलदीप का जन्म साल 1981 में हरियाणा के जिंद जिले के उझाना गांव में हुआ था. उनकी स्कूली शिक्षा भी यही हुई. हायर स्टडीज़ की बात करें तो कुलदीप ने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ आर्ट्स की डिग्री ली. इसके बाद कुलदीप अपने बड़े भाई के साथ पंचकूला चले गये जहां उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से एमए किया. इस दौरान वे कई सरकारी नौकरियों के एग्जाम भी दे रहे थे ताकि नौकरी लग जाए और गांव वापस न जाना पड़े.

एक साक्षात्कार में अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुये कुलदीप कहते हैं कि गांव में बहुत काम करना पड़ता था. सुबह उठते ही काम शुरू होता था और रात तक बस खेत, पशु सबकुछ देखते बीतता था. बचपन से उन्होंने बहुत मेहनत की है. बचपन की यह बात करते हुये कुलदीप खूब हंसते हैं कि पिताजी कहते थे स्कूल जाओ न जाओ भैसों को पानी पिला दिया कि नहीं? भले स्कूल के लिये लेट हो जाओ पर भैसों की देख-रेख में कोई कमी नहीं आनी चाहिए. दरअसल कुलदीप के घर का माहौल बहुत सख्त था और पिताजी को ज्यादा पढ़ायी-लिखायी समझ नहीं आती थी. उन्हें खाली अपने खेतों और पशुओं की चिंता रहती थी. ऐसे माहौल से निकलकर कुलदीप और उनके बड़े भाई ने अपने मजबूत इरादों के बल पर भविष्य बनाया.

बड़े भाई बने बड़ा सहारा –

कुलदीप के बड़े भाई सुरेश चहल पंचकूला में लेक्चरर के पद पर कार्यरत थे. वे कुलदीप को अपने साथ ले गये. वहां कुलदीप की मुलाकात उस समय यूपीएससी की तैयारी कर रहे और वर्तमान में आईपीएस ऑफिसर, संजय कुमार से हुयी. उनको पढ़ते देखकर कुलदीप को एक दिशा मिली और उन्होंने सोचा कि वे भी यूपीएससी की तैयारी करेंगे. कुलदीप का एमए का पहला साल काफी परेशानियों भरा था क्योंकि वे अपने जीवन की दशा तय नहीं कर पा रहे थे इसलिये काफी कुंठित थे. गांव वो किसी हाल वापस जाना नहीं चाहते थे. ऐसे में उन्हें एक राह मिली जिस पर चलकर मंजिल पायी जा सकती थी. इसी बीच कुलदीप ने चंडीगढ़ पुलिस की परीक्षा दी और फिजिकल टेस्ट काफी कठिन होने के बावजूद सेलेक्ट हो गये क्योंकि वो हमेशा से एक स्पोर्ट्स पर्सन थे. साल 2005 में वे चंडीगढ़ पुलिस में एएसआई के पद पर चयनित हो गए.

नौकरी के साथ की तैयारी

कुलदीप ने इस नौकरी के साथ ही यूपीएससी परीक्षा की तैयारी की क्योंकि वे नौकरी को छोड़ने का रिस्क नहीं लेना चाहते थे. यूपीएससी परीक्षा के कठिनाई स्तर से वे वाकिफ थे इसलिये उन्होंने नौकरी के साथ ही तैयारी की. कुलदीप हमेशा अपने पास एक पिट्ठू बैग रखते थे, जिसमें किताबें रहती थीं. थाने में या कहीं भी जब भी कुलदीप को समय मिलता था, वे किताबें निकालकर पढ़ने लगते थे. ऐसे वे थोड़ा भी समय बर्बाद नहीं जाने देते थे. हालांकि इस प्रकार तैयारी करने में बहुत मेहनत लगती थी, पर कठिन परिश्रम से उन्होंने कभी मुंह नहीं मोड़ा. तीन साल की कड़ी मेहनत, इच्छा शक्ति और सही दिशा में किए गए प्रयासों से अंततः कुलदीप ने तीसरे अटेम्पट में 82वीं रैंक के साथ यूपीएससी परीक्षा में सफलता हासिल कर ली.

इस मौके पर अपने पिता साधुराम की कही एक बात याद करके कुलदीप खूब हंसते हैं, जब उनके पिताजी को कुछ समझ नहीं आता था कि ये आईएएस आखिर है क्या चीज़ तो उनके पिताजी ने उनसे कहा था, ऐसा नहीं हो सकता कि थानेदार भी बने रहो और ये दूसरी नौकरी भी कर लो. दरअसल उनके हिसाब से पुलिस की सरकारी नौकरी बहुत बड़ी एचीवमेंट थी, जिसे उनका बेटा न छोड़े तो बेहतर होगा. ऐसे घरों से निकलकर, ऐसे माहौल से निकलकर अगर कोई सफलता हासिल कर सकता है तो फिर उन कैंडिडेट्स को तो कतई हिम्मत नहीं हारनी चाहिए जो एक पढ़े-लिखे बैकग्राउंड से आते हैं और जिन्हें परीक्षा की तैयारी के लिये हर प्रकार का सपोर्ट मिलता है.

सपने वो होते हैं जो सोने नहीं देते –

कुलदीप ने अपने जीवन में एपीजे अब्दुल कलाम की कही इस लाइन को हमेशा याद रखा, कि सपने वो नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं, बल्कि सपने वो होते हैं जो सोने नहीं देते. कुलदीप भी इसी टैग लाइन को जीवन का मंत्र मानते हुए लगे रहे और तब तक नहीं रुके जब तक मंजिल मिल नहीं गयी. सफलता शायद तब ज्यादा जरूरी हो जाती है जब हारने का विकल्प ही न हो. कुलदीप बताते हैं कि उनके घरों में बहुत-बहुत काम होता था, इतना कि आप सोच भी नहीं सकते. एक मजदूर जितना काम करते हैं, वो सब उन्होंने किया है. उनके पास कोई विकल्प ही नहीं था सिवाय पढ़ायी करके कुछ बनने के या वापस उस जिंदगी में जाने के जो उनके मन नहीं भाती थी. ऐसे में कुलदीप ने कठिन परिश्रम को चुना और दिन-रात एक करके अपनी किस्मत के अक्षर खुद बदल लिए.

साभार : www.abplive.com

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