ओडिशा के कालाहांडी जिले के रहने वाले बिभू साहू धान की जली हुई भूसी से लाखों की कमाई कर रहे हैं।
ओडिशा में एक जिला है कालाहांडी। भुखमरी की खबरों को लेकर यह जिला हमेशा से सुर्खियों में रहा है। यहां रहने वाले ज्यादातर लोग गरीब और पिछड़े तबके के हैं। इसी जिले के रहने वाले हैं बिभू साहू। बिभू का बचपन तंगहाली में गुजरा, पिता मजदूरी करते थे। बिभू को भी उनके काम में हाथ बंटाना पड़ता था। बाद में वे अपने भाई के साथ एक दुकान पर काम करने लगे। साथ में पढ़ाई भी चलती रही। ग्रेजुएशन करने के बाद उनकी जॉब लग गई। एक सरकारी स्कूल में वे टीचर हो गए, लेकिन इस काम में उनका मन नहीं लगता था।
वे खुद का कुछ करना चाहते थे, जिसमें दूसरे लोगों को भी रोजगार मिले। 7 साल काम करने के बाद 2007 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और धान-चावल का बिजनेस करने का फैसला लिया, क्योंकि ओडिशा में बड़े लेवल पर धान की खेती होती है। कुछ साल काम करने के बाद बिभू को लगा कि जिन सपनों को लेकर वे इस बिजनेस में आए थे, वे पूरे नहीं हो पा रहे हैं। इसके बाद 2017 में उन्होंने बैंक से लोन लिया और खुद की राइस मिल शुरू की। यह बिजनेस चल गया। अच्छी कमाई होने लगी। हालांकि कुछ ही महीनों बाद एक नई मुसीबत उनके सामने आ गई।
दरअसल, बिभू की राइस मिल से हर दिन 3 से 4 टन भूसी का उत्पादन होता है। वे इसे या तो बाहर फेंक देते थे, या फिर जला देते थे। जब तेज हवा बहती तो यह भूसी लोगों की आंख में पड़ती थी। लोग इसको लेकर शिकायत करने लगे। झगड़े होने लगे। बिभू कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। कभी-कभी तो लगता था कि इस काम को ही बंद करना पड़ेगा।
लगातार इंटरनेट पर सर्च करता रहा, लोगों से जानकारी जुटाता रहा
“हालांकि, मैंने हार मानने के बजाय कोशिशें जारी रखीं। दिन-रात सर्च करता रहता था कि इससे कैसे बचा जा सकता है। मैं कई एक्सपर्ट्स से मिलता था और उनसे उपाय पूछता था, लेकिन मुझे कोई कारगर उपाय नहीं बता पा रहा था। उसी दौरान मुझे पता चला कि धान की जली हुई भूसी में बड़ी मात्रा में सिलिका पाया जाता है। इसके बाद हमने इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया कि सिलिका का उपयोग क्या है, कहां-कहां इसकी डिमांड है। पता चला कि स्टील कंपनियां इंसुलेटर के रूप में सिलिका का इस्तेमाल करती हैं।”
इस आइडिया को लेकर बिभू ने कुछ कंपनियों को मेल भेजा। कुछ दिनों बाद मिस्र की एक कंपनी ने उन्हें रिप्लाई किया और मिलने के लिए बुलाया। 2018 में बिभू मिस्र गए और कंपनी के मैनेजर के सामने अपना सैंपल रखा। कंपनी को सैंपल पसंद आया। उन्होंने बिभू से कहा कि अगर आप इसे छोटे-छोटे पीसेज के रूप में बनाकर देंगे तो हम आपसे कॉन्ट्रैक्ट कर सकते हैं।
बड़े- बड़े इंजीनियर जो नहीं कर पाए, वो गांव के मजदूरों ने कर दिया
बिभू के सामने अब नई चुनौती थी इन भूसी से छोटे-छोटे पैलेट तैयार करना। उन्होंने भारत में कई कंपनियों से संपर्क किया। कुछ कंपनियां तैयार भी हुईं, लेकिन वे पैलेट्स नहीं बना सकीं। इसके बाद बिभू ने कई इंजीनियरों को अपने यहां बुलाया। उन लोगों ने कई दिनों तक इसके लिए मशीन बनाने की कोशिश की, लेकिन वे भी असफल रहे। कई लोगों ने बिभू को सलाह दी कि अपना वक्त और पैसा जाया मत करो, ये काम मुमकिन नहीं है।
वे कहते हैं, ‘ एक तो मैं लोगों की गालियों से परेशान था, ऊपर से बैंक का कर्ज बढ़ रहा था। अगर कोई सॉल्यूशन नहीं निकलता तो राइस मिल ही बंद करनी पड़ती। और तब तो नौकरी भी नहीं थी।’ बिभू ने तय किया कि इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगे, अभी और कोशिश करेंगे। तभी उनके यहां काम करने वाले रंजीत नाम के एक मजदूर ने एक आइडिया दिया। उसने कहा कि मैं गांव जा रहा हूं। वहां से कुछ लड़कों को लाता हूं, जो मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं, वे जरूर कुछ न कुछ समाधान निकाल लेंगे। और वह गांव चला गया। एक हफ्ते बाद वह कुछ लड़कों को साथ लेकर आया। ये लोग रोज नए-नए तरीके से मशीन तैयार करने की कोशिश करते रहते थे। आखिरकार उन्होंने एक दिन पैलेट तैयार करने वाली मशीन बना ही डाली।
कैसे तैयार करते हैं पैलेट्स?
बिभू ने अपनी जरूरत के हिसाब से वेल्डर कारीगरों की मदद से करीब 10 मशीनें तैयार कराई हैं। इन मशीनों का आकार वैसा ही है, जैसे गांवों में मिट्टी के बर्तन तैयार करने वाले चाक का होता है। ये उसी का एडवांस रूप हैं। वे बताते हैं कि हम सबसे पहले भूसी इकट्ठा करते हैं, उसके बाद उसमें कुछ केमिकल मिलाते हैं। चूंकि बिभू को इसका पेटेंट भी हासिल हो चुका है। इसलिए वे क्या केमिकल मिलाते हैं, इसे जाहिर नहीं करते हैं। इसके बाद जली हुई भूसी को मशीन में डाला जाता है। जिससे छोटे-छोटे पैलेट्स निकलते हैं।
कैसे करते हैं मार्केटिंग?
बिभू बताते हैं कि मैं अपने प्रोडक्ट का सैंपल दुनियाभर की बड़ी-बड़ी कंपनियों को भेजता हूं। कई जगह खुद जाकर भी सैंपल प्रेजेंट करता हूं और इसका यूज उन्हें बताता हूं। ज्यादातर लोगों को मेरे प्रोडक्ट पसंद आते हैं। मिस्र, ताइवान और सउदी अरब में हम अपना प्रोडक्ट भेज चुके हैं। भारत में भी कई कंपनियों को हमने अपना सैंपल भेजा है। कुछ कंपनियों से हमारी डील अंतिम चरण में है। इस साल जनवरी में हमने 15 लाख का प्रोडक्ट ताइवान भेजा है, जबकि 2019 में मिस्र को 20 लाख का प्रोडक्ट भेजा था।
अब उन्होंने हरिप्रिया रिफ्रैक्टरी नाम से अपनी कंपनी बनाई है। हर महीने तीन से चार टन पैलेट्स उनकी कंपनी तैयार करती है। साथ ही वे दूसरे राइस मिल वालों से भी फ्री में जली हुई भूसी लेते हैं। बिभू के मुताबिक एक टन पैलेट बनाने में 8 से 10 हजार रुपए का खर्च आता है। और वे एक टन पैलेट से ढाई लाख रुपए तक कमाई कर लेते हैं। बिभू ने 20 से 25 लोगों को रोजगार भी दिया है।
धान की जली हुई भूसी का उपयोग और उसका बिजनेस
पूरे विश्व में हर साल करीब 50 करोड़ टन धान का उत्पादन होता है। इसमें सबसे ज्यादा चीन 30%, भारत 24%, बांग्लादेश 7%, इंडोनेशिया 7% और वियतनाम 5% उत्पादन करता है। भारत में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, ओडिशा, बिहार और छत्तीसगढ़ में धान की पैदावार बड़े लेवल पर होती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक एक टन धान से करीब 40 किलो जली हुई भूसी निकलती है। इसमें 90% तक सिलिका मौजूद होता है।
सिलिका का उपयोग बड़े लेवल पर टूथपेस्ट, सीमेंट, सिंथेटिक रबर बनाने और बड़ी- बड़ी फैक्टरियों में इंसुलेटर के रूप में होता है। हालांकि अभी भारत सहित ज्यादातर देशों में सिलिका के रूप में भूसी का उपयोग कम ही होता है, इसके लिए बड़े लेवल पर सैंड स्टोन्स का इस्तेमाल किया जाता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में दुनियाभर में सिलिका का मार्केट 38 हजार करोड़ रुपए था। जबकि भारत में इसका मार्केट 340 करोड़ रुपए था। यानी अगर धान की जली हुई भूसी से सिलिका तैयार की जाती है तो बड़े लेवल पर इसका कारोबार किया जा सकता है। नॉर्थ अमेरिका, लैटिन अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में धान की जली हुई भूसी का इस्तेमाल किया जा रहा है। भारत में भी कुछ लोगों ने पराली से पैसा बनाने का काम शुरू किया है।साभार-दैनिक भास्कर
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