सवर्णों की ‘दलित’ सोच, पार्ट-1: हरियाणा का गांव जहां नल से पानी भरने पर सवर्ण-दलितों की लड़ाई हुई, मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा

पिछले दिनों जब हाथरस में गैंगरेप की घटना सामने आई तो पीड़िता और दुष्कर्म से ज्यादा उसके दलित होने की चर्चा हुई। देश के कई इलाकों में आज भी दलित-सवर्ण के बीच छुआछूत और भेदभाव मौजूद है। उसे ही जानने पहली ग्राउंड रिपोर्ट – हरियाणा के हिसार में भाटला गांव से…

करीब दस हजार की आबादी के इस गांव के चारों कोनों पर चार बड़े तालाब हैं लेकिन पीने के पानी के लिए पूरे गांव में सिर्फ एक ही नल। इसी नल पर जून 2017 में पहले पानी भरने को लेकर दलित और सवर्ण युवकों के बीच लड़ाई हुई। मामला थाने पहुंचा तो गांव में पंचायत बैठ गई। बात ठन गई और बनते-बनते ऐसी बिगड़ी कि गांव में सवर्ण समाज ने दलितों का बहिष्कार कर दिया। ‘दलितों के बहिष्कार’ का ये विवाद अब सुप्रीम कोर्ट में है।

गांव के ही एक तालाब के पास जल बोर्ड के खाली फ्लैटों में नई खुली पुलिस चौकी से वो नल दिखता है जहां पानी भरने को लेकर लड़ाई हुई थी। हर उम्र की लड़कियां छोटी-छोटी टुकड़ियों में पानी भरने आ-जा रही हैं। कुछ लड़के साइकिल-मोटरसाइकिलों से पानी ले जा रहे हैं। इनमें दलित भी हैं और सवर्ण भी।

मेरी नजर आठ माह की गर्भवती सुनीता पर ठहरती है जो अपनी एक सहेली के साथ मटका लिए तेज कदमों से नल की ओर बढ़ रही हैं। यहां जमीन के नीचे पानी खारा है और सरकारी सप्लाई पंद्रह दिन में सिर्फ एक बार होती है। जो पानी खरीद सकते हैं, खरीद रहे हैं। जो नहीं खरीद सकते, वो पानी भरने के लिए मजबूर हैं। मैंने नल का पानी पिया तो रेत दांतों में लगी।

मोटा-मोटी गांव दो हिस्सों में बंटा है। सवर्ण और दलित। सवर्णों की आबादी दलितों से कुछ ज्यादा है। उनके पास जमीनें हैं और दलित सदियों से उनके खेतों पर मजदूरी करते रहे हैं। बीते दो-तीन दशकों से दलितों ने गांव के बाहर निकलकर काम करना शुरू किया है। कुछ हांसी और हिसार जैसे शहरों में भी नौकरियां करते हैं। लेकिन अब भी अधिकतर दलित आबादी अपना पेट भरने के लिए गांव के जाटों और पंडितों के खेतों पर काम करने को मजबूर है।

गांव के आखिरी कोने में दलितों का बड़ा मोहल्ला है। अपने घर में खाली खूंटे दिखाते हुए बिमला कहती हैं, ‘पहले चार भैंसे पालते थे। सैकड़ों भेड़-बकरियां थीं। सब बेचना पड़ गया। किसी के खेत में जाओ तो बाहर निकाल देते हैं। हमारे पास न जमीन है ना नौकरी। मेरी बहू को हांसी में काम करने जाना पड़ रहा है।’ बिमला के बेटे अजय कुमार उन लोगों में शामिल हैं जिसने दलितों के बहिष्कार मामले में शिकायत दर्ज करवाई है। घर के बाहर जय भीम-जय भारत लिखा है और अंदर भीमराव आंबेडकर की बड़ी तस्वीर लगी है।

दलितों के इस मोहल्ले में जिससे भी बात करो, बंदी शब्द बार-बार सुनाई देता है। दरअसल साल 2017 में जब झगड़ा हुआ था तब गांव में मुनादी कराके दलितों का बहिष्कार कर दिया गया था। इस बहिष्कार को ही ये लोग बंदी कहते हैं। हालांकि सवर्ण समुदाय के लोगों का कहना है कि अब गांव में ऐसे हालात नहीं हैं और सभी का एक-दूसरे के यहां आना जाना है, किसी पर किसी तरह की रोकटोक नहीं है। सबके जवाब अलग-अलग हैं।

ओमप्रकाश गांव के बस स्टैंड पर फल की रेहड़ी लगाते हैं। वो कहते हैं, ‘पहले पूरे गांव के लोग मुझसे सामान खरीदते थे। अब बस दलित समाज या सड़क पर आने-जाने वाले लोग ही खरीदते हैं। दूसरी जाति का कोई मेरी दुकान पर नहीं आता।’ ओमप्रकाश कहते हैं, ‘उनकी घरवाली किसी दूसरे के खेत में चारा लेने या घास काटने जाती है तो उसे गाली देते हैं। सड़क पर जो घास थी उसमें भी जहरीली दवा छिड़क दी थी।’

यहीं अपने घर के बाहर दलित बुजुर्ग ज्ञानों उदास खड़ी हैं। उनके तीन बेटे थे, तीनों की मौत संदिग्ध हालत में हो गई। उनका सबसे बड़ा बेटा 19 साल का रहा होगा जब दो दशक पहले गांव के एक खेत में उसका शव मिला था। अजय कुमार बताते हैं कि उसकी हत्या हुई थी लेकिन परिवार थाने भी नहीं जा सका था। कुछ साल बाद एक और बेटे ने आत्महत्या कर ली थी। अभी दो महीने पहले तीसरे बेटे की लाश भी संदिग्ध हालत में खेत में मिली। उसके कत्ल के इल्जाम में जाट समुदाय के दो लोग गिरफ्तार किए गए हैं।

भाटला के दलितों का आरोप है कि ऊंची जाति के लोगों के दबाव में नाइयों ने उनके बाल काटने भी बंद कर दिए थे। नाई सुभाष की गांव में दो दुकानें हैं। दलित समाज के लोगों को बाल काटने से मना करने के आरोप में वो सवा तीन महीने की जेल काटकर लौटे हैं। वो कहते हैं, ‘तब बंदी थी तो दबाव में मना कर दिया था। अब पछतावा है कि मना नहीं करना था। अब सबके बाल काट रहे हैं। गांव के ही एक किराना दुकानदार भी दलितों को सामान न बेचने के आरोप में जेल गए थे। अब उनकी दुकान पर भी सभी सामान खरीद रहे हैं।

गांव भाटला के मुख्य द्वार पर लगे गौरव-पट्ट के मुताबिक भाट नाम के पूर्वज ने 1448 ईस्वी में गांव को बसाया था। अभी यहां 13 जातियों के लोग रहते हैं। गांव की प्रधान सुदेश बेरवाल और उनके पति पुनीत बेरवाल मस्टर रोल दिखाते हुए कहते हैं, ‘मनरेगा में अधिकतर दलित मजदूरी कर रहे हैं। अगर बहिष्कार होता तो क्या दलितों को रोजगार दिया जाता।’ वो कहते हैं, ‘पूरा गांव दलितों ने बनाया है, हम तो दलितों के साथ बैठकर दारू भी पीते हैं। आप कहो तो अभी पीकर दिखाएं।’

पुनीत आरोप लगाते हैं कि ‘एससी-एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज होने के बाद जो मुआवजा मिलते है उसके लालच में गलत आरोप लगाए जा रहे हैं। यदि मुआवजा ना मिले तो आरोप भी लगने बंद हो जाएं।’ वो कहते हैं, ‘अगर बहिष्कार होता तो क्या लोग गांव में रहते। क्या तीन साल से बिना काम करे वो लोग यहां रह पाते। असल में पीड़ित हम हैं और गांव हमें छोड़ना पड़ सकता है।

इन झूठे मुकदमों और गांव की बदनामी की वजह से हमारे बच्चों के रिश्ते तक नहीं हो पा रहे हैं। अब तक दलित उत्पीड़न के एवज में 27 लाख रुपए से अधिक शिकायतकर्ताओं को मिल चुके हैं। दो करोड़ रुपए और मिलने हैं। ये पैसा ना मिलना हो तो मुकदमा भी इतना आगे ना बढ़े।साभार-दैनिक भास्कर

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