राज्यपाल का विवेकाधिकार नहीं, संविधान सर्वोपरि: सुप्रीम कोर्ट की तमिलनाडु विवाद पर कड़ी टिप्पणी

तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर. एन. रवि के बीच लंबे समय से चल रहे टकराव पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अहम और संवैधानिक रूप से महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ रोकना संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन है और यह व्यवहार ‘संवैधानिक मर्यादा’ के खिलाफ है।
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?
जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने सख्त शब्दों में कहा कि राज्यपाल के पास कोई ‘विवेकाधिकार’ नहीं है, और उन्हें राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से कार्य करना अनिवार्य है। संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपाल को तीन विकल्प दिए गए हैं –
विधेयक पर सहमति देना,
उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजना, या
फिर से विचार हेतु विधानसभा को लौटाना।
लेकिन, राज्यपाल चाहें तो महीनों तक कोई निर्णय न लें – ऐसा ‘पॉकेट वीटो’ भारतीय संविधान में मान्य नहीं है। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि अगर कोई विधेयक दूसरी बार विधानसभा से पारित होकर राज्यपाल के पास आता है, तो वह उसे रोक नहीं सकते – उन्हें केवल ‘सहमति’ देनी होगी।
संवैधानिक व्यवस्था और राज्यपाल की भूमिका
संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 का उद्देश्य राज्यपाल की भूमिका को न्यायिक या राजनीतिक हस्तक्षेप से परे एक औपचारिक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित करना है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की ओर से विधेयकों को अनिश्चितकाल के लिए रोककर रखना, लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है और यह राज्य सरकार के कामकाज में अवरोध उत्पन्न करता है।
क्या है मामला?
तमिलनाडु सरकार ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल आर. एन. रवि ने 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजने के नाम पर रोक रखा, जिससे विधानसभा में पारित कानूनों को अमल में लाने में बाधा उत्पन्न हो रही थी। इनमें उच्च शिक्षा, चिकित्सा एवं विश्वविद्यालयों से जुड़े महत्वपूर्ण बिल शामिल थे।
राज्य सरकार ने इसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
विशेषज्ञों की राय
संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला संघीय ढांचे की मजबूती और कार्यपालिका की गरिमा की रक्षा में मील का पत्थर साबित होगा। यह संदेश भी गया है कि राज्यपाल पद को राजनीतिक मोहरा नहीं बनाया जा सकता।
Exit mobile version