भारत में परिवार हमेशा से एक महत्वपूर्ण सामाजिक संरचना रही है, जहाँ संयुक्त परिवार की अवधारणा को जीवन का आधार माना जाता था। लेकिन बदलते समय के साथ इस परंपरा में दरारें आ रही हैं। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने परिवारों के क्षरण को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की है। न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति एस. वी. एन. भट्टी की पीठ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भले ही भारतीय वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं, लेकिन वे करीबी रिश्तेदारों के साथ भी एकता बनाए रखने में असमर्थ होते जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि परिवार की अवधारणा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है और “एक व्यक्ति-एक परिवार” की स्थिति उभर रही है। यह टिप्पणी एक महिला द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई, जिसमें उसने अपने बड़े बेटे को घर से बेदखल करने की मांग की थी। इस मामले में परिवार के भीतर गहरे मतभेद और परस्पर असंतोष उजागर हुए, जो आधुनिक समाज में परिवार की बदलती परिभाषा को दर्शाते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिका के अनुसार, कल्लू मल और उनकी पत्नी समतोला देवी के पांच बच्चे थे, जिनमें तीन बेटे और दो बेटियाँ शामिल थीं। कल्लू मल का निधन हो चुका है और उनके अपने बेटों के साथ संबंध मधुर नहीं थे। अगस्त 2014 में, कल्लू मल ने अपने बड़े बेटे पर मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए स्थानीय एसडीएम से शिकायत की थी। 2017 में, माता-पिता ने अपने बेटों के खिलाफ भरण-पोषण की कानूनी कार्यवाही शुरू की, जिसके बाद सुल्तानपुर की कुटुंब अदालत ने आदेश दिया कि बेटों को अपने माता-पिता को 4,000 रुपये प्रति माह का भुगतान करना होगा।
संपत्ति विवाद और कोर्ट का रुख
कल्लू मल ने दावा किया कि उनका घर उनकी स्वयं अर्जित संपत्ति थी, जिसमें निचले हिस्से में दुकानें थीं। उन्होंने 1971 से 2010 तक इनमें व्यापार किया। उन्होंने आरोप लगाया कि उनका बड़ा बेटा उनकी दैनिक और चिकित्सा जरूरतों की अनदेखी कर रहा था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह नहीं कहा जा सकता कि पिता संपत्ति के एकमात्र मालिक हैं, क्योंकि बेटे का भी उसमें अधिकार हो सकता है। अदालत ने कहा कि बेटे को घर के एक हिस्से से बेदखल करने की बजाय, वरिष्ठ नागरिक कानून के तहत भरण-पोषण का आदेश देकर समस्या का समाधान किया जा सकता है।
बदलते सामाजिक ताने-बाने की झलक
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में परिवार की पारंपरिक अवधारणा संकट में है। कभी जहाँ संयुक्त परिवार में कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं, वहीं आज व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आर्थिक स्वायत्तता के कारण परिवार छोटे होते जा रहे हैं। इसके पीछे कई कारण हैं:
आर्थिक स्वतंत्रता – युवा पीढ़ी वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होती जा रही है और पारिवारिक बंधनों से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन जीने की इच्छुक है।
आधुनिकीकरण और शहरीकरण – शहरों में लोग छोटे परिवारों में रहना पसंद करते हैं, जिससे संयुक्त परिवार टूट रहे हैं।
संपत्ति विवाद – पारिवारिक संपत्ति को लेकर झगड़े बढ़ रहे हैं, जिससे परिवारों में दूरियाँ बढ़ रही हैं।
रिश्तों में आपसी समझ की कमी – आधुनिक जीवनशैली और व्यस्त दिनचर्या के कारण परिवार के सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंध कमजोर हो रहे हैं।
क्या किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को उजागर करके एक महत्वपूर्ण चर्चा शुरू की है। यदि हमें पारिवारिक मूल्यों को बनाए रखना है, तो हमें कुछ कदम उठाने होंगे:
संवाद को बढ़ावा देना – पारिवारिक सदस्यों के बीच खुलकर बातचीत होनी चाहिए, ताकि गलतफहमियाँ न बढ़ें।
संयुक्त परिवार की संस्कृति को प्रोत्साहित करना – बच्चों को संयुक्त परिवार के महत्व और लाभों के बारे में सिखाना चाहिए।
कानूनी जागरूकता – वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध कानूनी सहायता की जानकारी होनी चाहिए।
पारिवारिक विवादों का समाधान – संपत्ति और अन्य विवादों को कानूनी लड़ाई में जाने से पहले आपसी समझौते से हल करने का प्रयास करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सिर्फ एक कानूनी फैसले तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के बदलते ताने-बाने का प्रतिबिंब है। यदि हमें अपनी पारिवारिक संरचना को बचाना है, तो हमें पारस्परिक समझ, सहयोग और सम्मान को पुनर्जीवित करना होगा। परिवार केवल खून का रिश्ता नहीं होता, बल्कि यह प्रेम, सहानुभूति और समर्थन की नींव पर टिका होता है। यदि हम इन मूल्यों को पुनः स्थापित करने में सफल होते हैं, तो “वसुधैव कुटुंबकम” की भावना को सच्चे अर्थों में साकार किया जा सकता है।