‘इस्लाम का चरित्र लोकतंत्र विरोधी, मुसलमान नहीं चाहते हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा’, जानिए डॉ. अम्बेडकर के विचार

आज सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत और समतामूलक समाज के निर्माणकर्ता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती है। डॉ भीमराव अंबेडकर को संविधान निर्माता के तौर पर जाना जाता है। उनका जन्म 14 अप्रैल को हुआ था। बाबा साहेब की जयंती को पूरे देश में लोग उत्साह से मनाते हैं। भारत रत्न अम्बेडकर पूरा जीवन संघर्ष करते रहे । भेदभाव का सामना करते हुए उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। बाबा साहेब ने हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपना लिया था। ऐसा उन्होंने क्यों किया जबकि उनके पास इस्लाम और ईसाई जैसे बड़ी परिधि के धर्म थे जिसका बड़ी तेजी से विस्तार हुआ था। आखिर बाबा साहेब ने इस्लाम नहीं कबूल कर बौद्ध धर्म को क्यों कबूल किया ये जानना बेहद जरूरी है। यह जानना भी जरूरी है कि इश्ताम की तरह ही बाबा साहेब हिंदू धर्म के बारे में क्या सोचते थे।

डॉ. अंबेडकर के हिंदू धर्म में फैली सामाजिक बुराइयों के खिलाफ विचार जगजाहिर हैं लेकिन उन्होंने इस्लाम पर भी खुलकर टिप्पणियां की हैं। उन्होंने इस्लाम को न सिर्फ लोकतंत्र विरोधी बताया बल्कि राष्ट्रवाद के लिये खतरा तक कह दिया था। अम्बेडकर अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में लिखते हैं, “मुसलमानों की सोच में लोकतंत्र के कोई मायने नहीं है. उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र प्रमुख नहीं है।उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र, जिसका मतलब बहुमत का शासन है, हिंदुओं के विरुद्ध संघर्ष में मुसलमानों पर क्या असर डालेगा। क्या उससे वे मजबूत होंगे अथवा कमजोर ? यदि लोकतंत्र से वे कमजोर पड़ते हैं तो वे लोकतंत्र नहीं चाहेंगे। वे किसी मुस्लिम रियासत में हिंदू प्रजा का मुस्लिम शासक की पकड़ कमजोर करने के बजाए अपने निकम्मे राज्य को वरीयता देंगे।”

मुस्लिम नेताओं की भी आलोचना की
अंबेडकर ने तत्कालीन मुस्लिम राजनीति को केंद्र में रखते हुए मुस्लिम नेताओं की भी आलोचना की थी। उन्होंने अपने बयान में कहा, “मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया और दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।

वैश्विक नहीं सिर्फ मुस्लिम भाईचारे की करते हैं बात
बाबा साहब ने कहा था कि इस्लाम जिस भाईचारे को बढ़ावा देता है, वह एक वैश्विक या सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। इस्लाम में जिस भाईचारे की बात की गई है, वो केवल मुस्लिमों का मुस्लिमों के साथ भाईचारा है। इस्लामिक बिरादरी जिस भाईचारे की बात करता है, वो उसके भीतर तक ही सीमित है। जो भी इस बिरादरी से बाहर का है, उसके लिए इस्लाम में कुछ नहीं है- सिवाय अपमान और दुश्मनी के। इस्लाम के अंदर एक अन्य खामी ये है कि ये सामाजिक स्वशासन की ऐसी प्रणाली है, जो स्थानीय स्वशासन को छाँट कर चलता है.। एक मुस्लिम कभी भी अपने उस वतन के प्रति वफादार नहीं रहता, जहाँ उसका निवास-स्थान है, बल्कि उसकी आस्था उसके मज़हब से रहती है। मुस्लिम ‘जहाँ मेरे साथ सबकुछ अच्छा है, वो मेरा देश है’ वाली अवधारणा पर विश्वास करें, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।

बाबासाहब कहते हैं मुसलमानों में एक और उन्माद का दुर्गुण है, जो कैनन लॉ या जिहाद के नाम से प्रचलित है। एक मुस्लिम शासक के लिए जरूरी है कि जब तक पूरी दुनिया में इस्लाम की सत्ता न फैल जाए, तब तक चैन से न बैठे। इस तरह पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी है दार-उल- इस्लाम (इस्लाम के अधीन) और दार-उल-हर्ब (युद्ध के मुहाने पर)। भारत में मुसलमान हिजरत में रूचि लेते हैं, तो वे जिहाद का हिस्सा बनने से भी हिचकेंगे नहीं।

डॉ. अंबेडकर ने भारत में मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में कहा था कि “वे हिंदुओं के खिलाफ भारत में घृणा का राग अलापते हुए आए थे। उन्होंने न केवल भारत में नफरत फैलाई बल्कि वापस जाते हुए कई हिंदू मंदिर भी जलाए। मुस्लिम आक्रांताओं की नजर में हिंदू मंदिरों को जलाना एक नेक काम था, जिसकी वजह से भारत में इस्लाम का बीज बोया गया। बाद में यह बीज पौधा बनते-बनते एक बड़ा ओक का पेड़ बन गया।”

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