एक नजरिया: भारतीय पुरुष vs भारतीय कानून

कमल कुमार सिंह प्रिया रमानी ने साल 2018 में ‘मी टू’ मुहिम के तहत एमजे अकबर के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। एमजे अकबर ने मानहानि का मुकदमा कर दिया जिसका निर्णय आया। एमजे अकबर बनाम प्रिया रमानी केस में  राउज एवेन्यू कोर्ट के कथन “शोषण के मामले में व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को वरीयता नहीं दी जा सकती” वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है।  

यह एक पुरुष और स्त्री वर्ग में संघर्ष पैदा करने वाला फैसला है। पुरुष यूं भी अपने अधिकारों से लापरवाह है, वास्तव में उसके पास कोई अधिकार ही नही है। खास बात ये है कि उसके पास अधिकार नही है इसका भी ज्ञान उसे तब होता है जब वो स्त्रियोचित कानून रूपी अभेद्य जाल में फंस जाता है।  कहने लिए कोर्ट ने पुरुष को कुछ अधिकार दिए हैं, उदाहरण के तौर तलाक के मामलों में का कुछ ग्राउंड स्त्री पुरुष के लिए समान है। जैसे क्रुवलिटी या अनुपयोग (unconsumed marrige for long time) या जारकर्म (Adultery)  लेकिन क्या ये धरातल पर है? 

यदि इन आधार पर कोई पुरुष तलाक लेना चाहें तो क्या उसे उसे आराम से  मिल जाता है? नही। बल्कि इनमें से एक भी आधार पर पुरुष वाद दायर करता है तो उसके ऊपर सिर्फ स्त्रियों के लिए बनाये कानून का सोटा चल पड़ता है। पुरुष द्वारा जेन्युइन मामले में भी वाद दायर करते ही उसपे डीवी एक्ट, दहेज आदि का केस लगना तय है तो ऐसी स्थिति में पुरुष उस स्त्री के साथ रहने को अभिशप्त है। या यूं कह ले कि एकतरफ खाई और एक तरफ कुआँ वाला मामला है और परिणति उसके आत्महत्या तक पहुँच जाती है। दो साल पहले अभिनेता संदीप नाहर ने ऐसे ही मामले आत्महत्या की थी। 

यह तो बस बानगी है, NCRB डेटा की माने तो शादीशुदा जोड़े में स्त्री की तुलना में पुरुष के आत्महत्या का दर कहीं ज्यादा और भयावह है।  इस तरह के कानून किसी जाति, वर्ग या लिंग को सशक्त बनाने के लिए किया जाता है लेकिन दुर्भाग्य है कि उन्ही के द्वारा इस कानून का अमानवीय इक्षा, स्वार्थ और अहम के लिए इस्तेमाल किया जाने लगता है। शोषित और वंचितों के लिए बनाया गया एससी-एसटी एक्ट कानून भी इसका सटीक उदारहण है। एससी-एसटी के बढ़ते झूठे मुकदमों की वजह से  सुप्रीम कोर्ट को रूलिंग लानी पड़ी और एक अच्छा कानून स्वार्थ, अहम, दुरुपयोग के भेंट चढ़ गया।  

एससी-एसटी एक्ट हो या महिलाओं के हितों के लिए कानून, इन्हें बनाने में दूसरे वर्ग की भी बराबर की भूमिका है। महिलाओं के हितों के कानूनों के दुरुपयोग का चलन बढ़ा है, उससे निश्चित ही आज नही तो भविष्य में स्त्रियोचित कानून पर डाईलूशन रूलिंग आएगा। डर है वास्तविक पीड़ित को इंसाफ ही न मिले।  तो एमजे अकबर बनाम प्रिया रमानी के राउज एवेन्यू कोर्ट के निर्णय का क्या इससे ज्यादा क्या मतलब निकाला जाए कि यदि कोई महिला दुर्भावनापूर्ण तरीके से किसी के ऊपर चरित्र हनन करती है तो वो ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। 

क्या यह उस व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा, परिवार के साथ नाइंसाफी नहीं है?   इस तरह के फैसले पर न मीडिया चिल्लाती है, न बुद्धिजीवी आंखे उठाते हैं। यही नही सुप्रीम कोर्ट भी स्वतः संज्ञान नहीं लेता। पुरुषों के प्रति इतना दुरागरहित कानून सिर्फ भारत मे ही है, विश्व मे कहीं भी नही। ऐसी पूर्वाग्रही न्याय व्यवस्था खोखली पद्धति है। न्याय के लिए आरोपों का सिद्ध होना न्याय का पहला आधार है। भावनाओं के आधार पर बहुत तर्क हो सकते है जिसका कोई अंत नहीं होगा। (लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता और कानून के छात्र हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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