Birth Anniversary: जब स्वामी विवेकानंद ने मूर्ति पूजा की आलोचना पर राजा को दिया करारा जवाब

देश आध्यात्मिक गुरु, दार्शनिक, समाज-सुधारक स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाता है। युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद ने महज 25 वर्ष की उम्र में ही संन्यास का मार्ग चुन लिया था। विवेकानंद का हिंदू धर्म और आध्यात्म के लिए गहरा लगाव था।

स्वामी विवेकानंद का जन्म नरेंद्र नाथ दत्त के रूप में 21 जनवरी 1863 को कलकत्ता के कायस्थ जाति में हुआ था। वे एक अपर- मिडिल क्लास परिवार से ताल्लुक रखते थे। उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए वेस्टर्न- स्टाइल यूनिवर्सिटी भेजा गया जहां उन्हें वेस्टर्न फिलासफी, साइंस आदि की जानकारी दी गई। स्वामी विवेकानंद बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति के थे।

स्वामी विवेकानंद के गुरु का नाम रामकृष्ण परमहंस था। उन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। जल्द ही वे रामकृष्ण के सबसे नामी शिष्यों की लिस्ट में शुमार हो गए। उन्होंने ब्रह्म समाज ज्वाइन किया जिसका उद्देश्य बाल विवाह और अशिक्षा को खत्म कर लोवर क्लास और महिलाओं के बीच शिक्षा को पहुंचाया था। विवेकानंद का हिंदू धर्म और आध्यात्म के लिए गहरा लगाव था। उनसे स्वामी की मुलाकात तर हुई जब वे ईश्वर की खोज कर रहे थे।

मूर्ति पूजा की आलोचना का दिया जवाब
अलवर नरेश मंगल सिंह अंग्रेजियत के पक्के अनुयायी थे। अंग्रेजी रहन-सहन, खान-पान, सभ्यता और संस्कृति उन्हें पसंद थी। वह इस मामले में किसी की नहीं सुनते थे। जितनी आसक्ति उनकी अंग्रेजी सभ्यता के प्रति थी, उतना ही भारतीय परंपरा और संस्कृति से उनका विरोध था। भारतीय परंपरा और संस्कृति का अनुसरण करने वालों को वह दकियानूस समझते थे। किंतु उनका दीवान बहुत देशभक्त था। उसे स्वामी विवेकानंद पर विश्वास था कि वह महाराज के विचार बदल सकते हैं। उसने महाराज की भेंट स्वामीजी से कराने की व्यवस्था की। एक दिन वह महाराजा को स्वामीजी के पास ले गया।

मंगल सिंह ने स्वामीजी से भेंट होते ही तिरस्कारपूर्ण मुद्रा में सवाल किया, ‘आप पढ़े-लिखे होकर भी यूं साधु संन्यासी की वेश धर भिक्षा-वृत्ति के सहारे आजीविका क्यों चलाते हैं? कहीं परिश्रम करके द्रव्य अर्जन क्यों नहीं करते?’ जवाब में स्वामीजी ने उन्हीं से सवाल किया, ‘क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप विदेशी शासकों की सभ्यता के प्रति इतने आसक्त क्यों हैं?’ मंगल सिंह ने उत्तर दिया, ‘इसलिए कि मुझे उसमें आनंद आता है।’ इस पर स्वामीजी बोले, ‘बस, वही स्थिति मेरी भी है। आनंद ही तो प्रत्येक प्राणी का चरम लक्ष्य है। पर उसे प्रशंसनीय तभी माना जा सकता है, जब वह अखंड हो, शाश्वत हो और अपरिवर्तनीय हो।’

स्वामी विवेकानंद बोले, ‘मुझे भी दूसरों की सेवा करने में, उनके दुख दूर करने में और अपनी संस्कृति एवं धर्म का प्रचार-प्रसार करने में आनंद आता है। इसके लिए यह वेश और जीवन का यह क्रम आवश्यक है।’ स्वामीजी के साथ मंगल सिंह की अनेक विषयों पर गंभीर चर्चा हुई और प्रत्येक में उन्होंने अपने आपको गलत पाया। अंत में वह स्वामीजी से बोले, ‘मैं अब तक अंधकार में था। आपने आज मेरी आंखें खोल दीं।’ उस दिन से वह भारतीय संस्कृति और दर्शन के पक्के अनुयायी हो गए। उसके बाद उन पर से अंग्रेजियत का नशा भी उतर गया।

अलवर के महाराजा के दरबार में उन्होंने राजा के शिकार किए कई जानवरों के सामान और चित्र देखे। स्वामी जी ने कहा, ‘एक जानवर भी दूसरे जानवर को बेवजह नहीं मारता, फिर आप उन्हें सिर्फ मनोरंजन के लिए इन्हें क्यों मारते हैं? मुझे यह अर्थहीन लगता है। मंगल सिंह ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, ‘आप जिन मूर्तियों की पूजा करते हैं, वो मिट्टी, पत्थर या धातुओं के टुकड़ों के अलावा और कुछ नहीं हैं। मुझे यह मूर्ति-पूजा अर्थहीन लगती है। हिंदू धर्म पर सीधा हमला देख स्वामी जी ने राजा को समझाते हुए कहा कि हिंदू केवल भगवान की पूजा करते हैं, मूर्ति को वो प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

विवेकानंद ने राजा के महल में पिता की एक तस्वीर लगी देखी। स्वामी जी इस तस्वीर के पास पहुंचे और दरबार के दीवान को उस पर थूकने को कहा। ये देखकर राजा को गुस्सा आ गया। उसने कहा, ‘आपने उसे मेरे पिता पर थूकने के लिए कैसे कहा? नाराज राजा को देखकर स्वामी जी बस मुस्कुराए और उत्तर दिया, ‘ये आपके पिता कहां हैं? ये तो सिर्फ एक पेंटिंग है- कागज का एक टुकड़ा, आपके पिता नहीं।’

ये सुनकर राजा हैरान रह गया क्योंकि ये मूर्ति पूजा पर राजा के सवाल का तार्किक जवाब था। स्वामी जी ने आगे समझाया, ‘देखिए महाराज, ये आपके पिता की एक तस्वीर है, लेकिन जब आप इसे देखते हैं, तो ये आपको उनकी याद दिलाती है, यहां ये तस्वीर एक ‘प्रतीक’ है। अब राजा को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उसने स्वामी जी से अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी।

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