कभी मंदिर-कभी अजमल, कभी उलेमा-कभी गंगा स्नान: कॉन्ग्रेस के इस रोलिंग प्लान से ‘हाथ’ का नहीं भला

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असम में कॉन्ग्रेस ने अपने साथी बदरुद्दीन अज़मल और उनकी पार्टी AIUDF से अलग होने (या अलग दिखने) का फैसला किया है। अपने इस फैसले के पीछे पार्टी ने अज़मल द्वारा भाजपा और मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा की सराहना किए जाने को मुख्य कारण बताया है। उधर अज़मल का कहना है कि कॉन्ग्रेस के इस फैसले में दूरदर्शिता नहीं है और इससे भारतीय जनता पार्टी को फायदा होगा। अज़मल ने यह भी कहा कि कॉन्ग्रेस के इस फैसले से ‘सेकुलरिज्म’ को धक्का लगेगा। असम विधानसभा चुनाव के समय बने महाजोट से केवल कॉन्ग्रेस पार्टी ही नहीं निकली है, बल्कि बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने भी अलग होने की घोषणा कर दी है।

इस कदम का नुकसान किसे होगा यह तो समय बताएगा। लेकिन कॉन्ग्रेस के इस फैसले से कई प्रश्न उठते हैं। एक प्रश्न यह उठता है कि क्या अज़मल द्वारा भाजपा और मुख्यमंत्री सरमा की सराहना ही कॉन्ग्रेस के फैसले के पीछे एकमात्र कारण है? प्रश्न यह भी उठता है कि अज़मल द्वारा अचानक भाजपा या उसके मुख्यमंत्री की सराहना के पीछे की राजनीति क्या है? इन प्रश्नों के बीच कॉन्ग्रेस के महाजोट से अलग होने के फैसले के पीछे और कारण जान पड़ते हैं। एक कारण यह है कि अज़मल के साथ गठबंधन से प्रदेश के कई कॉन्ग्रेसी खुश नहीं थे और इसकी वजह से पार्टी के अंदर असंतोष था। इन नेताओं का यह मानना है कि अज़मल के साथ गठबंधन को बहुसंख्यक शंका की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि अज़मल को मूलतः असम में बांग्लादेशी मुसलमानों के नेता के रूप में देखा जाता है। इसके कारण कॉन्ग्रेस की छवि काफी हद तक बहुसंख्यक विरोधी दल की बनती रही है।

यह स्थिति पार्टी को केवल असम में असहज नहीं बनाती। हिंदुओं का समर्थन लेने के लिए राहुल गाँधी ने गुजरात चुनाव के समय जो मंदिर यात्राएँ की थीं, उनका फायदा आना लगभग बंद चुका है। ऐसे में समय की माँग है कि पार्टी राजनीति की अपनी झोली से कोई नया ट्रिक निकाले ताकि हिंदू वोट पर एक बार फिर से दावा पेश कर पाए। दूसरी बात यह है कि कॉन्ग्रेस पार्टी को अगले वर्ष कई राज्यों में चुनाव लड़ना है और बहुसंख्यकों के वोट की दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में दल को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी करना है। पार्टी के प्रयास चाहे जैसे रहे पर ये तब तक फल नहीं दे सकते जब तक पार्टी अज़मल जैसे नेताओं और उनकी पार्टी के साथ गठबंधन में रहेगी। वैसे भी असम में कॉन्ग्रेस के 29 विधायकों में से 16 मुस्लिम हैं। ऐसे में बहुत संभावना है कि प्रदेश का हिंदू वोटर पार्टी को अविश्वास की दृष्टि से देखेगा और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में हिंदू वोट की तलाश में उतरने वाली पार्टी के लिए यह स्थिति सुखद नहीं होगी।

असम में कॉन्ग्रेस को मुस्लिम वोट मिलने के बावजूद यह आम धारणा है कि दीर्घकालीन राजनीति की दृष्टि से ये वोट अज़मल के ही हैं। वैसे भी असम में अब चुनाव पाँच वर्ष बाद होने हैं। जब होंगे तब पार्टी फिर से अज़मल के साथ गठबंधन कर सकती है। पिछले कई वर्षों में इस तरह के शॉर्टकट ही कॉन्ग्रेस की वर्तमान राजनीतिक सोच को परिभाषित करते रहे हैं। राहुल गाँधी इसी सोच के तहत कंठी माला पहन कर मंदिर भी जाते हैं और इसी के तहत केरल के अपने समर्थकों द्वारा सार्वजनिक तौर पर गाय काटने को लेकर ‘कूल’ भी रहते हैं। ऐसी राजनीतिक सोच का पार्टी को कितना फायदा हो रहा है, वह सबके सामने है। पार्टी अपनी इस शॉर्टकट वाली राजनीतिक सोच के कब्ज़े में कब तक रहेगी यह तो अनुमान की बात होगी पर असम में बदरुद्दीन अज़मल की पार्टी के साथ गठबंधन जोड़ने और तोड़ने के फैसले के पीछे एक अस्त-व्यस्त राजनीतिक सोच साफ़ दिखाई देती है।

यह इसी सोच का परिणाम है कि दो महीने पहले उत्तर प्रदेश में अपने परंपरागत मुस्लिम वोट को फिर से पाने की कोशिश में पार्टी ने प्रियंका वाड्रा के नेतृत्व में उलेमाओं के साथ जिस जोश के साथ बैठकें शुरू की थी, वह जोश अब ढीला पड़ता नजर आ रहा है। यह इसी राजनीतिक सोच का परिणाम है कि प्रियंका वाड्रा चंदन लगाकर मंदिर तो जाती हैं पर जब मुस्लिम वोट के लिए उनके बीच जाती हैं तब काला लिबास पहनती हैं। कॉन्ग्रेस के लिए मुस्लिम वोट का पुराना मोह और हिंदू वोट की नई चाहत एक अस्पष्ट पार्टी और उसके नेतृत्व का ऐसा रोलिंग प्लान है, जिसे लगातार चलाया जा रहा है पर उसके अनुकूल राजनीतिक परिणाम आने की संभावना दिखाई नहीं देती।

साभार-ऑपइंडिया

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