बलात्कार में जब औरत पर ही उठे सवाल

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जब आपकी जेब काट ली गई हो तो कोई पलट कर ये नहीं पूछता कि, “तुम ही ने कुछ किया होगा?” पर जब मामला बलात्कार का हो तो ये सवाल उठता रहा है. कानून में ऐसा सवाल पूछना गैरकानूनी करार दिए जाने के बाद भी ये सवाल पूछा जा रहा है.

जब तहलका पत्रिका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल को बलात्कार के आरोपों से बरी करनेवाले फैसले को पढ़ा तो इस सवाल की गूंज साफ सुनाई दी.

सवाल था कि नवंबर 2013 की दो रातों को तरुण तेजपाल ने अपनी जूनियर सहकर्मी के साथ लिफ्ट में बलात्कार किया या नहीं?

जवाब तक पहुंचने में पीड़िता से ही पूछा गया.

सवाल कि इससे पहले उन्होंने कब किसके साथ यौन संबंध बनाए, किसे ईमेल कर क्या लिखा, किसके साथ मेसेज भेजकर फ्लर्ट किया – अगर वो सेक्स की इतनी आदि थीं तो उन दो रातों में भी उनकी सहमति रही होगी?

कथित बलात्कार के बाद भी वो मुस्कुरा रहीं थी, अच्छे मूड में दिख रहीं थी, दफ्तर के आयोजनों का हिस्सा बनती रहीं – अगर वो इतनी खुश थीं तो क्या वो सचमुच बलात्कार की पीड़ित हो सकती हैं?

तरुण तेजपाल की जांघें ज़मीन से किस ऐंगल पर थीं, पीड़िता की ड्रेस में शिफॉन की लाइनिंग घुटनों के ऊपर तक थी या नीचे भी, तेजपाल ने उंगलियों से छुआ या उन्हें पीड़िता के शरीर में दाखिल किया – अगर पीड़िता को ये सारी बातें ठीक से याद नहीं तो वो सच बोल भी रही हैं?

527 पन्नों के उस फैसले में बलात्कार के आरोप को गलत माना गया और अभियुक्त बरी हो गया.

ये महज़ इत्तेफाक़ नहीं है. भारत में पिछले 35 सालों में हुए अलग-अलग शोध बताते हैं कि जब बलात्कार की पीड़िता समाज के हिसाब से ‘सही’ माने जाने वाले बर्ताव से अलग तरीके से बर्ताव करती हैं तो उनके अभियुक्त को कम सज़ा दी जाती है या बरी कर दिया जाता है.

बलात्कार के आरोप की सुनवाई में पीड़िता के बर्ताव को अहमियत देने को कानून गलत बताता है. इसके बावजूद कई जज ऐसी सोच के आधार पर फैसलों तक पहुंचते हैं. आईए कुछ उदाहरण देखें.

वो औरत जिसने बलात्कार से पहले कई बार यौन संबंध बनाए हों

नैश्नल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर मृणाल सतीश ने 1984 से 2009 तक सुप्रीम कोर्ट और देश के सभी हाई कोर्ट में आए बलात्कार के फैसलों का अध्ययन किया है.

उन्होंने पाया कि इन 25 सालों में जब बलात्कार ऐसी औरत पर हुआ जिन्होंने कभी यौन संबंध नहीं बनाए थे, तब सज़ा की अवधि ज़्यादा रही.

जिन मामलों में बलात्कार का आरोप लगाने वाली औरत को शादी से पहले ही या शादी के बाहर यौन संबंध बनाने का आदी पाया गया, वहां सज़ा की अवधि कम हो गई.

ऐसी औरतों की तरफ कठोर रवैया समाज की उसी सोच से पनपता है जो औरत के शादी से पहले यौन संबंध बनाने को नीची निगाह से देखता है.

‘वर्जिनिटी’ को दी जानेवाली अहमियत से ये मायने भी निकलते हैं कि यौन संबंध बनानेवाली औरत इतनी इज़्ज़तदार नहीं रही तो इज़्ज़त खोने का डर भी नहीं होगा.

हिंसा के दौरान उसे ज़्यादा तकलीफ भी नहीं हुई होगी.

इन सभी धारणाओं का मूल निष्कर्ष ये कि ऐसी औरत जिसका शादी के बगैर यौन संबंध रहा हो, वो बलात्कार का झूठा आरोप लगा सकती है और मुमकिन है कि ये मामला सहमति से बनाए यौन संबंध का ही हो.

मसलन साल 1984 में दायर ‘प्रेम चंद व अन्य बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा’ का मुकदमा जिसमें एक आदमी, रविशंकर पर, एक औरत के बलात्कार और अपहरण का आरोप था. औरत के मुताबिक जब वो पुलिस में शिकायत करने गईं तो दो पुलिस वालों ने भी उनका बलात्कार किया.

निचली अदालत ने तीनों अभियुक्तों को दोषी पाया. पर जब रविशंकर ने पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट में अपील की तो उन्हें बरी कर दिया गया. फैसले में कहा गया –

अभियोजन पक्ष ये साबित नहीं कर पाया है कि पीड़िता 18 साल से कम उम्र की थीं. फिर वो रविशंकर के साथ घूमती फिरती थीं, और उनके बीच में सहमति से कई बार यौन संबंध बनाए गए थे.

दोनों पुलिसवालों को हाई कोर्ट से राहत नहीं मिलने पर वो साल 1989 में सुप्रीम कोर्ट तक गए जहां उन्हें बरी तो नहीं किया गया पर सज़ा दस साल से कम कर पांच साल कर दी गई. फैसले में कहा गया –

इस औरत का चरित्र ठीक नहीं है, ये आसानी से यौन संबंध बनाने वाली, कामुक बर्ताव करनेवाली हैं. इन्होंने बयान देने से पहले ही पुलिस थाने में हुई घटना के बारे में और लोगों से चर्चा की, ये दर्शाता है कि इनका बयान यकीन करने लायक नहीं है.

समय के साथ कानून की नज़र में बलात्कार के मामलो की सुनवाई मे पीड़िता के यौन चरित्र की तहकीकात के इस तरीके को गलत ठहराया गया.

साल 2003 में भारत की लॉ कमिशन और राष्ट्रीय महिला आयोग ने इसकी समीक्षा की और कहा, “देखा गया है कि औरत के पुराने यौन संबंधों की जानकारी का इस्तेमाल बलात्कार के लिए उनकी सहमति साबित करने में किया जाता रहा है जिससे उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचती है.”

इनकी सिफारिश पर ‘इंडियन एविडेंस ऐक्ट 1872’ में उसी साल संशोधन किया गया और सुनवाई के दौरान पीड़ित महिला के यौन आचरण पर सवाल-जवाब करने या उस जानकारी को बलात्कार के लिए सहमति सिद्ध करने में इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी गई.

लेकिन इसके बावजूद ये जारी रहा. मसलन साल 2014 में दायर ‘स्टेट बनाम हवलदार’ के मुकदमे में जब साल 2015 में फैसला आया, तो उसमें कहा गया –

पीड़िता ने कहा कि उन्हें बलात्कार के बाद अपने गुप्तांग धोने पड़े क्योंकि उनमें खुजली होने लगी थी. ये औरत विवाहत थीं और इनके तीन बच्चे थे, लिहाज़ा ये यौन संबंध बनाने की आदी थीं. ऐसा नहीं है कि ये ज़िंदगी में पहली बार यौन संबंध बना रहीं थी. ऐसे में कथित हिंसा के बाद उनके गुप्तांगों में खुजली होने की बात समझ में नहीं आती. ज़ाहिर है कि उन्होंने अपने गुप्तांगों को इसलिए धोया कि अभियुक्त के साथ यौन संबंध बनाने के सबूत मिट जाएं क्योंकि ये संबंध उन्होंने सहमति से बनाए थे और वो नहीं चाहती थीं कि उनके भाई को इस बारे में पता चले.

दिल्ली के द्वार्का फास्ट ट्रैक कोर्ट ने इस मामले में अभियुक्त को बरी कर दिया.

वो औरत जिसकी योनी में दो उंगलियां आसानी से जा सकती हैं

बलात्कार के मामलों में किसी औरत के यौन आचरण को साबित करने के लिए सवाल-जवाब के अलावा, मेडिकल जांच में टू-फिंगर टेस्ट का तरीका भी अपनाया जाता रहा है.

इस टेस्ट में डॉक्टर पीड़िता की योनी में एक या दो उंगलियां डालकर ये जांच करती हैं कि वो कितनी ‘इलास्टिक’ है.

इसका आधिकारिक मकसद सिर्फ ये साबित करना है कि बलात्कार की कथित घटना में ‘पेनिट्रेशन’ हुआ या नहीं.

लेकिन दो उंगलियों का आसानी से चला जाना इस बात का सूचक माना जाता है कि औरत यौन संबंध बनाने की आदी है.

साल 2013 में, जब निर्भया (ज्योति पांडे) के बलात्कार के बाद ऐसी हिंसा के लिए बने कानूनों पर बहस छिड़ी, तब टू-फिंगर टेस्ट पर रोक लगा दी गई.

स्वास्थ्य मंत्रालय के ‘डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ रिसर्च’ ने यौन हिंसा के पीड़ितों की फोरेंसिक जांच के लिए दिशा-निर्देश जारी किए.

इनमें कहा गया कि, “टू-फिंगर टेस्ट अब से गैर-कानूनी होगा क्योंकि ये वैज्ञानिक तरीका नहीं है और इसे इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. ये तरीका मेडिकल लिहाज़ से बेकार है और औरतों के लिए अपमानजनक है.”

यौन हिंसा के कानूनों की समीक्षा करने के लिए बनाई गई वर्मा कमेटी ने भी साफ किया कि, “बलात्कार हुआ है या नहीं, ये एक कानूनी पड़ताल है, मेडिकल आकलन नहीं”.

इसी साल 2013 में ‘सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च’ ने कर्नाटक में यौन हिंसा के मामलों की सुनवाई के लिए बनाए गए फास्ट ट्रैक कोर्ट्‌स के फैसलों का अध्ययन किया.

20 प्रतिशत से ज़्यादा फैसलों में उन्होंने टू-फिंगर टेस्ट का स्पष्ट उल्लेख और पीड़िता के पहले के यौन आचरण पर टिप्पणियां पाई.

उसी साल गुजरात हाई कोर्ट ने ‘रमेशभाई छन्नाभाई सोलंकी बनाम स्टेट ऑफ गुजरात’ के मुकदमे में एक नाबालिग के बलात्कार के अभियुक्त को बरी कर दिया.

निचली अदालत ने 2005 में हुई इस वारदात के लिए उसे दोषी पाया था. पर अपील के बाद हाई कोर्ट ने कहा –

दोनों डॉक्टरों के बयान, जिनमें से एक गाइनेकॉलोजिस्ट हैं, साफ कहते हैं कि पीड़िता के गुप्तांगों पर कोई चोट नहीं आई थी और मेडिकल सर्टिफिकेट से साफ है कि वो यौन संबंध बनाने की आदी थी.

वो औरत जिसे बलात्कार में कोई चोट नहीं आई

बलात्कार साबित करने के लिए सबसे ज़रूरी बातों में से एक है औरत की सहमति ना होना. सहमति ही यौन संबंध और बलात्कार के बीच का फर्क है.

औरत के गुप्तांगों पर चोट, अभियुक्त को रोकने की कोशिश में उसके शरीर पर चोट या खरोंच के निशान, कपड़ों का फटना वगैरह को सहमति ना होने का सूचक माना जाता रहा है.

लेकिन इसके उलट को भी सही माना जाने लगा. औरत के संघर्ष करने के निशान ना होने पर उसे उसकी सहमति का सबूत बताया जाने लगा.

मृणाल सतीश के अध्ययन में उन्होंने पाया कि लिखित तौर पर अदालतें चाहे ऐसा ना कहें कि, चोटों के ना होने का मतलब सहमति है, पर जिन मामलों में औरत के शरीर पर चोटों के सबूत नहीं थे उनमें सज़ा की मियाद कम थी.

कई अदालतों ने ऐसा कहने में गुरेज़ भी नहीं किया है, और चोट के निशान ना होने को बाकायदा सहमति का सबूत बताया है.

मसलन साल 2014 में कर्नाटक के बेलगावी फास्ट ट्रैक कोर्ट में ‘स्टेट ऑफ कर्नाटक बनाम शिवानंद महादेवप्पा मुरगी’ के मुकदमे में अभियुक्त को बरी कर दिया गया क्योंकि –

ये घटना अगर हुई तो पीड़िता की सहमति से ही हुई होगी क्योंकि मामले में कोई ऐसे सबूत नहीं है, जैसे फटे कपड़े, पीड़िता के शरीर पर चोट इत्यादि. मेडिकल और फोर्सिक सबूत भी पीड़िता के आरोप को पुख्ता नहीं करते.

उसी साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘कृष्ण बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा’ के मुकदमे में साफ कहा था कि बलात्कार साबित करने के लिए पीड़िता के शरीर पर चोटें होना ज़रूरी नहीं है.

बल्कि इससे 30 साल पहले ही साल 1984 में ‘इंडियन एविडेंस ऐक्ट 1872’ में संशोधन किया गया था जिसके मुताबिक, अगर यौन हिंसा के किसी मामले में ये साबित हो जाता है कि यौन संबंध कायम हुआ था तो औरत की सहमति उसके बयान से तय मानी जाएगी.

यानी अगर औरत अदालत में ये कहती है कि उसकी सहमति नहीं थी और वो बयान विश्वासपूर्वक लगता है तो उसे सच माना जाएगा.

ये बदलाव ‘तुकाराम बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र’ के मुकदमे के बाद किया गया, जिसे मथुरा बलात्कार केस के नाम से भी जाना जाता है.

1972 के इस मामले में दो पुलिसवालों पर पुलिस थाने में एक नाबालिग आदीवासी लड़की के बलात्कार का आरोप था. निचली अदालत ने उन्हें दोषी पाया पर अपील के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच और फिर सुप्रीम कोर्ट ने 1978 में उन्हें बरी करते हुए कहा –

लड़की पर उस घटना के बाद चोट के कोई निशान ना होना ये बताता है कि वो एक शांति से हुई घटना थी और लड़की का विरोध करने का दावा मनगढ़ंत है… थाने में उसके साथ आए उसे भाई, आंटी और प्रेमी से कुछ कहने के बजाय उसका अभियुक्त के साथ चुपचाप चले जाने और उसे अपनी हवस को हर तरीके से पूरा करने देने से हमें लगता है कि ‘सहमति’ को ‘पैसिव सबमिशन’ कह कर किनारे नहीं किया जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बहुत निंदा हुई और चार प्रोफेसर ने मिलकर सुप्रीम कोर्ट को एक खुला पत्र लिखा. जिसके बाद बहस के फलस्वरूप 1983-84 में यौन हिंसा के खिलाफ़ कानूनों में बदलाव लाए गए.

वो औरत जिसने बलात्कार के बाद पीड़िता जैसा बर्ताव नहीं किया

इस पूरी चर्चा से ये साफ है कि भारत में यौन हिंसा के खिलाफ़ कानून प्रगतिशील हैं और पिछले दशकों में महिला आंदोलन और जनता की मांग पर पीड़िता के हित को सर्वोपरि रखते हुए इनमें कई बदलाव भी किए गए हैं.

इसके बावजूद 2019 के राष्ट्रीय अपराध सांख्यिकी ब्यूरो के आंकड़े देखें तो आईपीसी के तहत दर्ज होनेवाले सभी अपराधों के राष्ट्रीय औसत ‘कन्विक्शन रेट’ – 50.4 – के मुकाबले बलात्कार के मामलों में ये दर 27.8 प्रतिशत ही है.

इसकी कई वजहें हैं पर एक अहम् वजह एक आम सामाजिक सोच से उपजती है.

शोधकर्ता प्रीति प्रतिश्रुति दाश ने ‘इंडियन लॉ रिव्यू’ के लिए दिल्ली की निचली अदालतों में साल 2013 से 2018 तक आए बलात्कार के 1635 फैसलों का अध्ययन किया.

उन्होंने पाया कि अभियुक्त को निर्दोष पाने वाले मामलों में से करीब 25 प्रतिशत में पीड़िता के बयान को विश्वास लायक नहीं पाया गया. और इसकी प्रमुख वजह थी बलात्कार से पहले और बाद में उनका आचरण.

मसलन साल 2009 में दायर ‘स्टेट बनाम नरेश दहिया व अन्य’ के मुकदमे में दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट ने अभियुक्त को बरी करते हुए कहा –

कथित बलात्कार के होने के बाद भी, पीड़िता शोर मचाने की जगह, अभियुक्त के साथ होटल से सबलोक क्लिनिक के पास वाले खोमचे तक गई और गोल गप्पे खाए. एक बलात्कार पीड़िता का ऐसा व्यवहार उसके बयान की सच्चाई पर शक पैदा करता है.

अध्ययन के मुताबिक पीड़िता के बयान पर विश्वास ना करने की दूसरी वजहों में परिवारवालों और दोस्तों को बलात्कार के बारे में फौरन ना बताना और पुलिस में देर से शिकायत दर्ज करवाना भी शामिल है.

भारतीय कानून के मुताबिक बलात्कार की पीड़ित औरत अपराध के कितने भी वक्त बाद उसकी शिकायत दर्ज करवा सकती है.

देर से की गई शिकायत से मेडिकल और फोरेंसिक सबूत जुटाने और गवाहों को लाने जैसी परेशानियां ज़रूर आती हैं, पर अपनेआप में ये पीड़िता के बयान को झूठा मानने की वजह नहीं बन सकती.

लेकिन साल 2017 के ‘स्टेट बनाम राधे श्याम मिश्रा’ के मुकदमे में ऐसा हुआ. दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट ने अभियुक्त को बरी कर दिया और जब 2019 में दिल्ली हाई कोर्ट में अपील दर्ज हुई तो फैसले को बरकरार रखा गया.

पुलिस में बलात्कार की शिकायत एक दिन देरी से दर्ज किए जाने पर कोर्ट ने कहा –

दिन में पत्नी के बलात्कार के बारे में जब पति को देर शाम पता चला, तब भी दोनों में से कोई भी ना तो पुलिस स्टेशन गया, 100 नंबर पर कॉल किया और ना ही पड़ोसियों को बताया. पुलिस के पास जाने में हुई देरी की वजह के लिए कोई सफाई नहीं दी गई है.

यौन हिंसा के अलावा शायद ही कोई और ऐसा अपराध हो, जिसमें पीड़ित से इतने सवाल किए जाएं. उंगली उसके आचरण पर उठे. उसकी बात पर विश्वास करना इतना मुश्किल हो.

एक संघर्ष कानून बदलने का है जिसमें सफलता मिली पर उससे बड़ी चुनौति उस सामाजिक सोच से लड़ने और बदलने की है जो फैसले की राह में साफ रोड़ा दिखाई देती है .

मर्द और औरत के गैर-बराबर रिश्ते, समाज में ऊंचे-नीचे पद और औरत के कंधों पर इज़्ज़त का अतिरिक्त बोझ – जब तक इनमें बदलाव और बराबरी की कोशिश तेज़ और व्यापक नहीं होगी, इंसाफ की लड़ाई मुश्किल बनी रहेगी.साभार-बीबीसी न्यूज़ हिंदी

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