भास्कर एक्सप्लेनर:वायरस बढ़ाने की यात्रा में आलू से लेकर बंदर, बछड़े का ब्लड सीरम भी शामिल; पर बेफिक्र रहिए कोवैक्सिन में नहीं है किसी जानवर का अंश

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कोवैक्सिन में गाय के बछड़े का ब्लड सीरम है या नहीं? इस मुद्दे पर सोशल मीडिया पर कांग्रेस और भाजपा भिड़े। सरकार और कोवैक्सिन बना रही भारत बायोटेक ने कहा कि यह गलत है। प्रक्रिया में जरूर इस्तेमाल हुआ है पर कोवैक्सिन में गाय के बछड़े का ब्लड सीरम नहीं है। यानी जवाब साफ था, पर थोड़ा कॉम्प्लेक्स।

अब सवाल उठेगा कि आखिर बछड़े के ब्लड सीरम का इस्तेमाल कहां और क्यों हो रहा है? इसका जवाब जानने के लिए हमने देश की टॉप वैक्सीन साइंटिस्ट और माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. गगनदीप कंग से बात की। वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया को अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) पर प्रकाशित दस्तावेजों में भी पढ़ा। पता चला कि गाय के बछड़े का ब्लड सीरम ही नहीं बल्कि अफ्रीका के ग्रीन मंकी (एक तरह का बंदर) के लीवर सेल्स का इस्तेमाल भी वैक्सीन में होता है।

आइए, समझते हैं कि वैक्सीन बनाने में इन जानवरों का इस्तेमाल कहां और कैसे होता है?

सबसे पहले समझते हैं कि आखिर वैक्सीन बनती कैसे है?

  • भारत बायोटेक ने कोवैक्सिन बनाने में कोरोनावायरस का इस्तेमाल किया है। इसे कमजोर किया है ताकि शरीर में जाकर इम्यून रिस्पॉन्स तो विकसित करें, पर इंफेक्शन न बढ़ाएं। तभी इसे इनएक्टिवेटेड वैक्सीन कहते हैं। यह वैक्सीन बनाने का ट्रेडिशनल तरीका है। अब तक ज्यादातर वैक्सीन ऐसे ही बने हैं।
  • तब तो इस वैक्सीन को बनाने के लिए वायरस चाहिए। लैबोरेटरी में उसे बनाना पड़ेगा। इसके लिए लैबोरेटरी में वायरस को इंफेक्ट हो चुके इंसानों के टिश्यू जैसा माहौल देते हैं। इंसानों के टिश्यू तो ला नहीं सकते, इसलिए ग्रीन मंकी (अफ्रीका में बंदर की एक प्रजाति) के लीवर सेल्स का इस्तेमाल होता है। इन्हें घोड़े, गाय, बकरी या भेड़ से निकाले टिश्यू से बनाए ‘न्यूट्रिएंट्स’ के सॉल्युशन में रखते हैं।
  • इन सॉल्यूशंस में वायरस मल्टीप्लाई होते हैं। इसके बाद इन्हें कई केमिकल प्रक्रियाओं से गुजारा जाता है। प्यूरीफाई किया जाता है। इस प्रोसेस के बाद वायरस में उस सॉल्यूशन का एक अंश भी नहीं बचता और वह वैक्सीन में इस्तेमाल लायक बनता है।
अफ्रीका में पाए जाने वाले ग्रीन मंकी के लीवर के सेल्स को वायरस विकसित करने में उपयोग किया जाता है। कोविड के इनएक्टिवेटेड वायरस बनाने में इसका इस्तेमाल हुआ है।

वायरस बनाने में क्या शुरू से जानवरों का इस्तेमाल हो रहा है?

  • नहीं। जर्मन वैज्ञानिक रॉबर्ट को (1843-1910) को माइक्रोबायोलॉजी का पितामह माना जाता है। उन्होंने एंथ्रेक्स, ट्यूबरक्लोसिस और हैजे के वायरस की पहचान की। उन्होंने ही लैब में वायरस बनाने की तकनीक भी विकसित की। शुरू में उन्होंने आलू की स्लाइस का इस्तेमाल किया। पर आलू खराब हो जाते थे। तब उनके असिस्टेंट की सलाह पर उन्होंने एगार का इस्तेमाल किया। यह लाल अल्गी से बनी एक जेली है, जिसका इस्तेमाल आज भी माइक्रोबायोलॉजी लैब्स में होता है।
  • समय के साथ टेक्नोलॉजी विकसित हुई और 1950 के दशक में भ्रूण से एग्स निकालते थे। उन पर वायरस विकसित करते थे। आज भी इनफ्लुएंजा के वायरस ऐसे ही बनाए जाते हैं। इस दौरान मंकी किडनी सेल्स का इस्तेमाल भी शुरू हुआ। पोलियो से लेकर कई अन्य वायरस का आइसोलेशन मंकी लीवर सेल्स से ही हुआ। जिनसे बाद में वैक्सीन बनाई गई।
  • जब हम कोवैक्सिन की बात करते हैं तो विरो सेल लाइन का इस्तेमाल हुआ है। इसे अफ्रीकी ग्रीन मंकी किडनी से निकालकर विकसित किया गया है। खासियत यह है कि इनका इस्तेमाल कई दिनों तक कर सकते हैं। इन सेल्स को मेंटेन रखने के लिए कई ‘न्यूट्रिएंट्स’ चाहिए होते हैं। बछड़े के ब्लड सीरम से इन सेल्स को यह न्यूट्रिएंट्स मिलते हैं। सेल्स बनाने के लिए इस सीरम का इस्तेमाल होता है।

आलू की स्लाइस पर लैबोरेटरी में विकसित वायरस की कॉलोनी।

बछड़े के ब्लड सीरम का इस्तेमाल ही क्यों?

  • यह तो समझ आ ही गया होगा कि बछड़े के ब्लड सीरम का इस्तेमाल विरो सेल्स बनाने में होता है। क्यों होता है, इसका जवाब FDA की वेबसाइट पर है। उसके मुताबिक गाय एक बड़ा जानवर है। दुनिया के कई हिस्सों में आसानी से उपलब्ध है। इसके साथ ही इससे मिलने वाले एंजाइम विरो सेल्स बनाने में प्रभावी हैं।
  • बछड़े के ब्लड सीरम को भी जन्म के 3 से 10 दिन के अंदर निकाला जाता है। अगर देरी करें तो ब्लड सीरम में एंटीबॉडी बन जाते हैं, जिन्हें अलग करना मुश्किल हो जाता है। बछड़े के ब्लड सीरम का इस्तेमाल 50 से अधिक वर्षों से न्यूट्रिएंट्स के तौर पर हो रहा है। यह सिंथेटिक सीरम के मुकाबले ज्यादा प्रभावी साबित हुआ है।

फिर आप कैसे कह सकते हैं कि कोवैक्सिन में बछड़े का सीरम नहीं है?

  • दरअसल, सीरम का इस्तेमाल सिर्फ विरो सेल्स को मल्टीप्लाई करने में होता है। जब विरो सेल्स मल्टीप्लाई हो जाते हैं तो उन्हें प्यूरीफाई करते हैं। इस दौरान उसमें किसी भी जानवर का कोई अंश नहीं रह जाता। तब जाकर वायरस से उन सेल्स को इंफेक्ट किया जाता है और वायरस बनाए जाते हैं।
  • पूरी प्रक्रिया को दो स्तरों पर देखा जाना चाहिए। पहले विरो सेल्स उगाए। इसमें गाय के बछड़े का सीरम इस्तेमाल हुआ। उसे प्यूरीफाई किया। फिर दूसरे स्तर पर इन सेल्स को वायरस से इंफेक्ट किया और उन्हें विकसित किया। जब वायरस मल्टीप्लाई हो गए तो उनका इस्तेमाल वैक्सीन में किया। यह पूरी प्रक्रिया ऐसी है कि फाइनल प्रोडक्ट में जानवर का अंश रहना नामुमकिन है।

19वीं शताब्दी में डिप्थीरिया का इलाज विकसित हुआ था। घोड़ों को इंफेक्ट करते थे। जब उनका शरीर एंटीबॉडी बनाता था तो उसका प्रोडक्शन बढ़ाया जाता था। तस्वीरः जीन-लूप चार्मेट/साइंस सोर्स

क्या और भी जानवरों का सीरम वैक्सीन में इस्तेमाल होता है?

  • हां। वैक्सीन का इतिहास देखें तो 400 साल पहले भारत और चीन में इसकी जड़ें मिलती हैं। इसे देखकर ही तो एडवर्ड जेनर को चेचक का टीका बनाने की प्रेरणा मिली। तब काउपॉक्स को वेरिओली वेक्सोन नाम दिया। आगे जाकर यह तकनीक वैक्सीन कहलाई, जिसे हम टीका कहते हैं।
  • खैर, डिप्थीरिया के रोग में एंटीबॉडी सप्लीमेंट के तौर पर घोड़े के सीरम का इस्तेमाल 100 साल से हो रहा है। इसमें घोड़ों को डिप्थीरिया का इंजेक्शन लगाया जाता था। जब उसका शरीर वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बना लेता था तो उसे घोड़े से निकले ब्लड सीरम से अलग कर इंसानों पर इस्तेमाल करते थे।
  • पुणे का पूनावाला परिवार वैक्सीन तो बाद में बनाने लगा, उसका पुश्तैनी व्यवसाय तो घोड़ों की ब्रीडिंग ही है। पहले यह परिवार दवाओं में इस्तेमाल के लिए घोड़ों का सीरम सप्लाई करता था। बाद में उसने खुद ही वैक्सीन बनाने की सोची और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया बनाया, जो आज दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन बनाने वाली कंपनी है। अदार पूनावाला इसके सीईओ हैं। साभार-दैनिक भास्कर

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