भारत के कोरोना संकट में मदद के लिए अपनी झोली खोलने वाले विदेशों में बसे हिंदुस्तानी

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सिंगापुर में स्टार्ट अप कंसल्टेंट का काम करने वाले शौर्य वेलागापुडी आख़िरी बार भारत में तब रहे थे जब वे आठ साल की उम्र के थे.

तब उनका परिवार नई ज़िंदगी के लिए भारत छोड़कर अमेरिका चला आया था.

लेकिन 32 साल के शौर्य कहते हैं कि वे अपने देश से आज भी बेहद गहराई से जुड़े हुए हैं. इसलिए उन्होंने क़सम ली है कि वे अपनी उम्र भर की बचत भारत में कोरोना महामारी से राहत के लिए चलाए जा रहे कार्यों में दे देंगे.

हाल ही में भारत में उनके एक परिवारवाले की मृत्यु हुई है.

निजी जीवन में हुए इस नुक़सान से उन्हें भारत में दूसरे ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने का विचार मज़बूत हुआ.

भारतीय मूल के लोग विदेशों में अपने देश के लिए कैसा महसूस करते हैं, ये बताते हुए शौर्य एक मशहूर बॉलीवुड गीत का ज़िक्र किया.

उन्होंने कहा, “ये एक ऐसा जुड़ाव है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है.”

शौर्य लगभगर हर रोज़ पाँच हज़ार डॉलर का अनुदान दे रहे हैं. उनका कहना है कि वे तब तक ऐसा करते रहेंगे जबतक कि उनके पैसे ख़त्म न हो जाए.

वे अपना पैसा भारत में काम कर रही ग़ैर-सरकारी सहायता एजेंसियों को भेज रहे हैं.

शौर्य कहते हैं, “मुझे परवाह नहीं, चाहे मेरा दिवाला ही क्यों न निकल जाए. लोगों को ये समझने की ज़रूरत है कि वहां कितने मुश्किल हालात हैं.”

इसी भावना के तहत लाखों डॉलर की रक़म दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारत आ रही है.

इनमें से ज़्यादातर पैसा विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के लोग भेज रहे हैं.

हरजीत गिल

‘हम में से हरेक का परिवार वहां पर है’

भारतीय मूल के कुछ बड़े नाम जैसे गूगल के सुंदर पिचाई, माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नडेला, सिलिकन वैली के अरबपति इन्वेस्टर विनोद खोसला जैसे लोगों ने अपने क़दम पहले ही इस दिशा में बढ़ा दिए हैं.

सिंगापुर के हेल्थ केयर ट्रेड एसोसिएशन ‘एपीएसीएमईडी’ की सीईओ हरजीत गिल कहती हैं, “हमें पूरे भारत से मदद के लिए संदेश मिल रहे हैं. ख़ासकर दिल्ली से, हमें ऑक्सीजन, पीपीई किट्स, दवाएं, वेंटीलेटर्स या अस्पताल में काम आने वाली किसी भी चीज़ के लिए कहा जा रहा है.”

हरजीत गिल भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक हैं. वो कहती हैं कि सभी तरफ़ से मदद मिल रही है क्योंकि भारतीय मूल का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो इससे अछूता रह सका हो.

“हर किसी का दिल टूटा हुआ है. हम में से हरेक का परिवार वहां रहता है. हम बस उनकी मदद का रास्ता खोज रहे हैं.”

दुनिया में भारतीय लोग बड़ी संख्या में विदेशों में बसे हुए हैं. माना जाता है कि क़रीब दो करोड़ भारतीय दुनिया भर में फैले हुए हैं.

ये समुदाय एक दूसरे से क़रीब से जुड़ा हुआ रहता है. भले ही उन्हें देश छोड़े दशकों बीत गए हों लेकिन उन्होंने रिश्ता नहीं तोड़ा है.

प्राइवेट सेक्टर का आगे आना

देविका मेहंदीरट्टा भारतीय मूल की अर्थशास्त्री हैं. वे सिंगापुर में रहती हैं. इस हफ़्ते भारत में उनके संयुक्त परिवार के दो लोगों की मौत हो गई.

उनका मानना है कि भारत सरकार की लापरवाही भरे रवैये के कारण कोरोना महामारी की दूसरी लहर ज़्यादा ख़तरनाक है और इससे मरने वालों की संख्या बढ़ रही है.

वो कहती हैं, “ये केवल मरने वालों की बढ़ती संख्या की बात नहीं है. ये इसलिए गंभीर हो जाता है कि लोग ऑक्सीजन जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ रहे हैं.”

देविका का कहना है कि केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियों पर ध्यान देना ज़रूरी समझा, कुंभ मेले के आयोजन को लेकर आंख बंद कर ली जबकि सरकार को फ़रवरी की शुरुआत में अस्पतालों में ऑक्सीजन के इंतज़ाम पर ध्यान देना चाहिए था.

वो कहती हैं, “लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया. इसलिए प्राइवेट सेक्टर को आगे बढ़कर आना पड़ रहा है.”

भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्ष वर्धन ने सरकार की कोशिशों का बचाव किया है. उनका कहना है कि भारत में मृत्यु दर दुनिया में सबसे कम है और ऑक्सीजन की आपूर्ति भी पर्याप्त है.

वैश्विक नज़रिया अपनाने की ज़रूरत

देश में घरेलू कंपनियों से महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में मदद माँगी जा रही है.

जिंदल स्टील ने अपने कारख़ाने में स्टील का उत्पादन कम कर दिया है ताकि ऑक्सीजन की आपूर्ति ज़रूरतमंद मरीज़ों को की जा सके.

बीबीसी को एक बयान में जिंदल स्टील ने बताया कि उनकी कंपनी अपने प्लांट के पास बड़े कोविड सेंटर्स बना रही हैं जहां मरीज़ों को पाइपलाइन से ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सकेगी.

टाटा समूह, रिलायंस और डेलीवरी जैसी कंपनियां भी आगे आई हैं.

जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर पवित्र सूर्यनारायण कहते हैं, “भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में संसाधनों की बड़ी कमी रही है. ये एक लंबे समय से चली आ रही समस्या है.”

पवित्र सूर्यनारायण का कहना है कि भारत के संकट के लिए एक वैश्विक नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है.

“अगर आप भारत को अकेले छोड़ देते हैं तो ये वायरस आपको फिर काटने के लिए चला आएगा. आप पैसा दे सकते हैं लेकिन आप रातों रात स्वास्थ्य क्षेत्र में बुनियादी ढांचा नहीं खड़ा कर सकते हैं.”

“यहां तक कि पर्याप्त ऑक्सीजन का इंतज़ाम और वैक्सीन उत्पादन में तेज़ी लाने में भी कुछ हफ़्ते लगेंगे. तब तक भारत को स्याह सच्चाइयों से रूबरू रहना पड़ेगा.”साभार-बीबीसी न्यूज़ हिंदी

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