सम्पादकीय

बहुत दिनों से आप लोगों से सीधा संवाद नहीं हुआ है और कई साथियों की इच्छा भी है कि मैं कुछ लिखूँ। तो आज की बात जनता के साथ प्रशासनिक अधिकारियों के व्यवहार के बारे में है।मैं अधिकारियों और जनता के बीच निरंतर संवाद का पक्षधर रहा हूँ और इसी लिए मैं कह सकता हूँ कि अधिकारी वर्ग को जनता के करीब आने की सख्त जरूरत है।

मुझे ये कहना ही होगा कि अधिकारियों को जो अधिकार मिले हुए हैं उनका इस्तेमाल तो लगभग हर अधिकारी करता ही है लेकिन कर्तव्यों के निभाने के मामले में ऐसा नहीँ हो रहा है। वैसे हर अधिकारी को यही लगता है कि जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना इतना आसान नहीं होता। और ये भी एक सच है कि अधिकारी को आम जनता से ज़्यादा चिंता हाई कमान और लखनऊ में बैठे बड़े अधिकारियों के हुकुम बजाने की करनी पड़ती है।
खैर आरोप प्रत्यारोप के खेल से तो वैसे भी कुछ होना नहीं है इसलिए सलाह देकर उम्मीद रखना ज़्यादा बेहतर होगा।अधिकारियों को एक सलाह है कि वो सोशल मीडिया के द्वारा जनसंवाद को बढ़ाएं।इस काम में फेस बुक लाइव जैसे टूल्स अपनाये जा सकते हैं।किसी क्षेत्र विशेष के कुछ चुने हुए लोगों से ज़ूम मीटिंग भी बहुत प्रभावी हो सकती हैं।इसके लिए जिलाधिकारी, एस एस पी, नगरायुक्त और वी सी, जी डी ए स्तर के अधिकारी शुरूआत करें तो अधीनस्थ अधिकारी भी इस तरह के संवाद करने को आगे आयेंगे।
विभाग द्वारा पहले से ही स्थापित अपने ट्विटर हैंडल, फेसबुक पेज आदि पर आम जन को अपनी समस्याएं भेजने को कहा जाए और फिर संबंधित अधिकारियों को ज़ूम मीटिंग में जोड़कर जनता को जवाब दिया जाए।अभी तक तो जनता कंप्लेंट्स और एप्लिकेशन देती रहती है और अधिकारी अपनी इच्छानुसार उन पर कार्यवाही करता है या नहीं करता है।जब तक इन कंप्लेंट्स पर की गई कार्यवाही को लेकर जवाबदेही तय नहीं होगी तब तक अधिकारी दाता और जनता याचक बनी रहेगी।

अंत में एक बात साफ साफ कहना चाहता हूँ कि अब प्राइवेटाइजेशन का ज़माना है,रेल से लेकर बिजली विभाग तक से सरकारी व्यवस्था के स्थान पर प्राइवेट व्यवस्था के प्रयोग सफल हो रहे हैं।ऐसे में सरकारी कार्यप्रणाली से परेशान जनता कहीं अब नगर निगम, जी डी ए,पुलिस और जिला प्रशासन को प्राइवेट हाथों में देने की मांग ना कर बैठे।

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