पुद्दुचेरी की एक महिला, सी सेल्वारानी, ने हाल ही में एक ऐसा दावा किया, जिसने भारतीय न्याय व्यवस्था और आरक्षण नीति पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए। उसने दावा किया कि वह जन्म से ईसाई थी, लेकिन वह हिन्दू धर्म में विश्वास करती है और दलित समुदाय से ताल्लुक रखती है, इसलिए उसे आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उसके इस दावे को नकारते हुए उसे आरक्षण देने से इनकार कर दिया और यह सिद्ध किया कि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य केवल आरक्षण प्राप्त करना नहीं हो सकता।
सी सेल्वारानी का मामला तब चर्चा में आया जब उसने 2015 में एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया था। आवेदन में उसे अपने जाति प्रमाण पत्र का सत्यापन देना था, जिसके लिए उसने दलित होने का प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया। लेकिन दस्तावेज़ों की जांच में यह खुलासा हुआ कि वह जन्म से ईसाई थी और उसका बाप्तिस्मा हुआ था। इसके बावजूद, उसने दावा किया कि वह हिन्दू धर्म में विश्वास करती है और उसे आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए।
जब उसका जाति प्रमाण पत्र रद्द किया गया, तो उसने पहले मद्रास हाई कोर्ट और फिर केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) में अपना केस दायर किया। लेकिन उसे कोई राहत नहीं मिली, और अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए यह कहा कि केवल आरक्षण प्राप्त करने के उद्देश्य से खुद को दलित हिन्दू बताना और धर्म के प्रति सच्चे विश्वास का दिखावा करना संविधान और समाज के सिद्धांतों के खिलाफ है। कोर्ट ने यह भी कहा कि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य सिर्फ आरक्षण का लाभ उठाना नहीं हो सकता, क्योंकि इससे आरक्षण नीति के मूल उद्देश्य को नुकसान पहुँचता है।
जाँच और तथ्यों की पुष्टि
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की विस्तृत जाँच की और पाया कि सेल्वारानी का दावा असत्य था। जाँच में यह सामने आया कि उसका पिता एक धर्मांतरित ईसाई था और उसका बाप्तिस्मा जन्म के तीन महीने बाद हुआ था। इसके अलावा, सेल्वारानी के गाँववालों और अन्य स्थानीय लोगों ने भी यह पुष्टि की कि उसकी माता-पिता की शादी चर्च में हुई थी और वह ईसाई धर्म को मानते थे।
महिला ने दावा किया था कि उसकी माँ ने हिन्दू धर्म अपनाया था, लेकिन कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि यदि उसकी माँ हिन्दू धर्म में विश्वास करती थी, तो फिर उसने अपने बच्चों का बाप्तिस्मा क्यों करवाया। अदालत ने यह कहा कि अगर एक व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है, तो उसे अपनी जाति को भी खोना पड़ता है, और यदि कोई व्यक्ति केवल आरक्षण के लाभ के लिए धर्म परिवर्तन करता है, तो यह संविधान के उद्देश्य के खिलाफ होगा।
धर्म परिवर्तन और आरक्षण
सुप्रीम कोर्ट ने इस महत्वपूर्ण मामले में यह स्पष्ट किया कि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य केवल समाज के फायदे के लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति के आत्मिक विश्वास और धार्मिक विचारों से प्रेरित होना चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर धर्म परिवर्तन का उद्देश्य केवल सरकारी नौकरी या आरक्षण प्राप्त करना है, तो यह न केवल न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ है, बल्कि समाज और संविधान के प्रति भी धोखाधड़ी है।
संविधान के उद्देश्यों की रक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि ऐसे मामलों में धर्म परिवर्तन के बाद आरक्षण का लाभ दिया जाता है, तो यह पूरी आरक्षण नीति को ही कमजोर कर देगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद व्यक्ति को अपनी जाति खोनी पड़ती है, और ऐसे किसी भी व्यक्ति को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता जो केवल कागजी तौर पर खुद को दलित बताता है, जबकि उसका वास्तविक विश्वास किसी अन्य धर्म में हो।
महत्वपूर्ण सवाल
इस फैसले से यह सवाल उठता है कि क्या समाज में आरक्षण नीति का गलत तरीके से लाभ उठाने का प्रयास किया जा रहा है? क्या धर्म परिवर्तन के माध्यम से केवल सरकारी नौकरी प्राप्त करने का प्रयास आरक्षण नीति को पूरी तरह से नष्ट कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि किसी भी व्यक्ति को केवल कागजों में दलित बनाकर आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता।
नैतिक दृष्टिकोण और संदेश
यह फैसला न केवल एक कानूनी आदेश है, बल्कि यह एक नैतिक संदेश भी देता है कि समाज और संविधान के सिद्धांतों को बनाए रखते हुए आरक्षण नीति का उद्देश्य केवल उन लोगों को लाभ देना है जो वास्तविक रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। किसी भी व्यक्ति को आरक्षण के लाभ के लिए धर्म परिवर्तन करने या जाति का खेल खेलने का अधिकार नहीं है।