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राजधानी में पुराना लखनऊ के सआदगंज लकड़मण्डी में कलकत्ता से आए मूर्तिकारों ने पर्यावरण को ध्यान में रखकर काली व पीली मिट्टी और वाटर कलर से भगवान गणपति की इकोफ्रेंडली प्रतिमाओं को जोरों से तैयार कर रहें है।
लखनऊ। मूर्ति विसर्जन से जल के साथ पर्यावरण को न हो नुकसान। कुछ ऐसी ही मंशा को लेकर इस बार भगवान गणपति की मूर्तियां बनाने वाले कारीगरों में देखने को मिल रही है। यही वजह है कि इन दिनों राजधानी में पुराने लखनऊ के सआदगंज लकड़मण्डी में कलकत्ता से आए मूर्तिकारों ने पर्यावरण को ध्यान में रखकर काली व पीली मिट्टी और वाटर कलर से भगवान गणपति की इकोफ्रेंडली प्रतिमाओं को जोरों से तैयार कर रहें है। जो जल को प्रदूषित नही करेंगी और कुछ ही घंटे में घुल जाएगी। जहां मूर्तिकारों की अथक मेहनत से तैयार की गई उनकी दिलकश मूर्तियों पर गणेश उत्सव में हजारों श्रद्धालु श्रद्धा से अपना शीश नवांएगे।
गणपति बप्पा को आने को अब दो दिन ही शेष रह गया हैं। ऐसे में पुराना लखनऊ के सआदतगंज लकडमण्डी में इन दिनों रौनक का माहौल है। भगवान गणेश को नया रूप देने के साथ ही उनको नए-नए सिंहासन पर बिठाया जा रहा है। इस बार पर्यावरण संरक्षण का विशेष ध्यान रखा गया है। पिछले साल के मुकाबले इस बार राजधानी के राजाजीपुरम, आलमबाग, कृष्णानगर, पारा, गोमतीनगर, मोहनलालगंज के साथ साथ उन्नाव, कानपुर, सुल्तानपुर, कन्नौज, हरदोई, महाराष्ट्र से गणपति मूर्ति का आर्डर मिल रहा है। महंगाई होने के बावजूद गणपति लोगों की डिमांड लिस्ट का हिस्सा हैं। 3 सौ रूपए से लेकर 8 हजार रूपए तक एक फिट से लेकर चार फिट तक मूर्तियां बनाने का काम जोरों से चल रहा हैं।
मिट्टी व पुआल और बांस से तैयार होता है स्ट्रक्चर: मूर्तिकार चंदन व कलकत्ता मूर्तिकार कमल, अमरनाथ, विश्वनाथ बताते हैं कि मूर्ति बनाने के लिए लकड़ी का चौड़ा पटरा, बांस व उसकी खपाच, पुआल, जूट की रस्सी, मिट्टी का उपयोग कर स्ट्रक्चर तैयार किया जाता है। उसके बाद मिट्टी की तीन लेयर चढ़ाई जाती है। फिर फिनीशिंग देने के बाद पेंटिंग कर डेकारेशन किया जाता है। लगभग ढाई माह से एक दर्जन कारीगर इस कार्य में जुटे हुए हैं। मौसम साफ व धूप होनें पर तेरह फिट मूर्ति को आकार देनें में 8 से 10 दिन का समय लगता है। मूर्तियों में भरे जाने वाले रंग वे विशेष तौर पर कानपुर से लेकर आते हैं, जिनमें केमिकल का प्रयोग नहीं होता है। मूर्ति बनाने में भी वे कोई ऐसा कैमिकल अथवा पदार्थ प्रयोग नहीं करते हैं, जिससे विसर्जन के बाद उससे पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचे और पानी में जाते ही मूर्तियां घुलना शुरू हो जाती है। साथ ही बताया कि 10 सितम्बर को गणेश चतुर्थी का पर्व है। ऐसे में समय रहते सभी आर्डर को पूरा करना बड़ी चुनौती है। रात-रात जागकर काम किया जा रहा है जिससे ग्राहक को संतुष्ट किया जा सके।
मुश्किल से मिलती है मिट्टी: अब मिट्टी की मूर्तियां बनाना काफी कठिन हो गया है क्योंकि आस पास इलाके के तालाब सूख चुके है इसलिए काली मिट्टी नहीं मिल पाती है। काली मिट्टी के लिए माल, मलिहाबाद व काकोरी के दशहरी गांव से काफी मशक्कत के बाद पैतिस सौ रूपयें से लेकर चार हजार रूपए में पचास फिट मिट्टी मिल पाती है।
बारिश से होती है परेशानी: गणेश मूर्ति बनाने में जुटे कारीगर अपनी परेशानी को बयां करते हुए बताते हैं कि कच्ची मिट्टी से बनी मूर्तियां पानी की एक बूंद से खराब हो जाती हैं। ऐसे में घर के अंदर ही मूर्तियों को बनाया जा रहा है। धूप की जगह पंखों में मूर्तियां सुखाई जा रही हैं। ऐसे में जगह की कमी काफी खल रही है। साभार-दैनिक जागरण
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