वर्तमान केंद्र सरकार महंगाई से बहुत डरती है, लेकिन ये वक्त महंगाई की चिंता करने का नहीं है। महंगाई बढ़ने से लोगों की जेब में पैसा भी आता है। सरकार को इस समय मांग में आई कमी को दूर करने के लिए नए नोट छापकर अर्थव्यवस्था में लिक्विडिटी बढ़ानी चाहिए। अमेरिका, यूरोप के देश ये काम कर रहे हैं। अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीत चुके इकोनॉमिस्ट और अमेरिका की एमआईटी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी ने दैनिक भास्कर के साथ खास बातचीत में यह राय जाहिर की। पेश हैं इंटरव्यू के अंश…
कोविड की दूसरी लहर से भारत बाहर निकल रहा है। आप सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती क्या देखते हैं?
सबसे बड़ी चुनौती तो महामारी को नियंत्रण में लाना है, क्योंकि इकोनॉमी के लिए हम लोग बहुत ज्यादा कुछ कर नहीं सकते हैं। लोगों के मन में लॉकडाउन की आशंका रही तो वे अपने आप डर जाते हैं और कुछ डिफेंसिव एक्शन लेने लगते हैं। मेरे ख्याल से इसमें कुछ नहीं किया जा सकता है। अभी किया ये जाना चाहिए कि ऐसे गरीब लोग जिनके पास खाने को नहीं है और जिनकी रोजमर्रा की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही है, उनकी देखभाल सुनिश्चित की जाए। गारंटी हाे कि सबको कुछ न कुछ मिल जाएगा, तो लोग कम डरेंगे। लोग कम डरेंगे तो उनके पास जो पैसे हैं उसे खर्च करेंगे। मेरा सुझाव है कि कम से कम इस साल के लिए मनरेगा गारंटी को 100 दिन से बढ़ाकर 150 दिन कर दिया जाए। इससे ग्रामीण आबादी में आजीविका को लेकर भरोसा बढ़ेगा।
शहरी आबादी के लिए क्या किया जाए?
अभी की परिस्थिति में अर्बन नरेगा असंभव है। आर्थिक संकट के दाैर में ऐसी नई योजना शुरू नहीं की जा सकती। इनमें समय लगता है। मनरेगा एक बहुत जटिल स्कीम थी, जब ये शुरू हुई तो उसमें भी बहुत समस्याएं थीं, भ्रष्टाचार था। अब जाकर यह ठीक हुई है। कोई नई योजना शुरू करने से बेहतर है कि पीडीएस जैसी योजनाएं जो पहले से चल रही हों, उनके जरिए गरीबों तक राहत पहुंचाई जाए। तमिलनाडु में पीडीएस के जरिए गरीबों को कैश ट्रांसफर किया जा रहा है। ये एक अच्छा कदम है।
कौन से राज्य अच्छे कदम उठा रहे हैं?
मैंने तमिलनाडु का नाम लिया, इसी तरह पश्चिम बंगाल ने वेंडर्स को टीकाकरण में प्राथमिकता दी है। इससे वे काम जल्दी शुरू करेंगे और उनसे संक्रमण का खतरा कम होगा। मेरा अनुभव है कि राज्यों में ज्यादा अच्छा काम हो रहा है।
पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने सरकार को नए नोट छापने की सलाह दी है। क्या आप सहमत हैं? यदि हां, तो सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है?
बिल्कुल, मैं तो खुद कई बार सरकार को ये सलाह दे चुका हूं। देश में 2016 से ही मांग में कमी आ रही है। मांग बढ़ाना है तो नए नोट छापने हाेंगे। भारत सरकार के ऐसा न करने के दो कारण लगते हैं- पहला तो ये कि सरकार महंगाई से बहुत डरती है। राजनीतिक रूप से महंगाई बहुत अलोकप्रिय होती है, लेकिन अर्थव्यवस्था की दृष्टि से थोड़ी महंगाई भारत जैसे देश के लिए फायदेमंद है। अमेरिका व यूरोप के देशों में सरकारें खुलेआम नए करंसी नोट छाप रही हैं। वहां अब तक कोई खास क्राइसिस नहीं हुआ।
दूसरी वजह- हम बॉन्ड रेटिंग एजेंसी से बहुत डरे रहते हैं, लेकिन इस बार स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने भी बोला कि हमें ज्यादा खर्च करना चाहिए। ज्यादातर बैंक महंगाई को लेकर बड़े चिंतित रहते हैं। महंगाई से बॉन्ड यील्ड में कमी से इनका नुकसान होता है। इससे क्रेडिट रेटिंग घटने का खतरा रहता है।
एसएंडपी, फिच, क्रिसिल जैसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की रेटिंग पर कितना ध्यान देने की जरूरत है?
ये लोग हर दो-तीन महीने में अनुमान घटाते-बढ़ाते रहते हैं। मुझे इसके बारे में कुछ खास पता नहीं है, लेकिन ये लोग बहुत दुस्साहसी लगते हैं, क्योंकि ये अनुमान कुछ लगाते हैं और ग्रोथ कहीं और चली जाती है। और ये फिर भी अनुमान लगाते रहते हैं। मुझे ये व्यर्थ की कवायद लगती है। कई एजेंसियां खुद बॉन्ड का बिजनेस करती हैं। अपनी सहूलियत के हिसाब से रेटिंग देती हैं। मुझे इन पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। भारत सरकार को रेटिंग से परेशान होने की जरूरत नहीं है।
डेटा को लेकर सरकार पर सवाल उठते रहे हैं। आपको कहां समस्या नजर आती है?
डेटा में पारदर्शिता का अभाव भारत में प्लानिंग की सबसे बड़ी समस्या है। इनकम टैक्स का डेटा जारी होता था, वह बंद हो गया। अरविंद सुब्रमण्यम ने इसे दोबारा शुरू किया और उसके जाने के बाद वह फिर बंद हो गया। हमने 2016 से 2019 के बीच 40 साल में पहली बार देखा कि औसत प्रति व्यक्ति आय का डेटा एनएसएस में कम हो गया था। सरकार ने इसे गड़बड़ बता कर वापस ले लिया, फिर कभी डेटा आया ही नहीं। अगर वो गड़बड़ था, तो सही डेटा सामने आना ही चाहिए। हम सीएमआईई जैसे अन्य प्राइवेट डेटा को देखें तो एनएसएस का डेटा सिमेट्री में था। अरविंद सुब्रमण्यम तो सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। उनकी स्टडी है कि पिछले 3-4 साल की जीडीपी ग्रोथ का डेटा 3-4% ओवर एस्टीमेटेड है। जो भी हो हमारे पास डेटा होना चाहिए। हर डेटा सेट में थोड़ी बहुत गलती होती है। कई बार आपको लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप सबको गलत कह कर सारे डेटा सेट को बंद कर दें। हमें अभी एक तरह से यह पता भी नहीं है कि देश में क्या हो रहा है?
जीएसटी लागू होने से राज्यों का राजस्व पर नियंत्रण कम हुआ है। क्या आपको लगता है जीएसटी राज्यों के खिलाफ है?
मेरे ख्याल से जीएसटी एक तरह से अच्छा आइडिया है। ये अभी नया है। सेल्स टैक्स या वैट में बहुत से कॉम्प्लिकेशन थे, जो बिजनेस के लिए अच्छे नहीं थे। इसमें जो समस्या आ रही है, वह ये है कि इसको कैसे बांटा जाए। अभी केंद्र सरकार ने थोड़ी कटौती की तो राज्यों ने विरोध जताया। एक टकराव सा देखने को मिला। ये डिबेट चालू है, लेकिन मेरे हिसाब से ये स्टेप जरूरी था। जिस तरह ये लागू किया गया, उसे शायद बेहतर किया जा सकता था। छोटे कारोबारियों को इससे समस्या हुई, जो अब भी जारी है। फाइनेंस कमीशन के जरिए जो पैसा राज्यों को मिलता है, वह जीएसटी से ज्यादा है। जब वह अच्छे तरीके से बिना किसी भेदभाव के चल सकता है तो मेरे ख्याल से जीएसटी भी अच्छे तरीके से चलाया जा सकता है।
आरबीआई ने पिछले साल सरकार को 1.76 लाख करोड़ सरप्लस ट्रांसफर किया था। इस पर सवाल भी उठे। आप इसे कैसे देखते हैं?
हमने शुरुआत में भी चर्चा की कि सरकार को अभी पैसों की जरूरत है। तो फिर वो जहां से मिल सके बेहतर है। इसलिए मेरी नजर में इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन ऐसे मामलों में पारदर्शिता होनी चाहिए। सरकार को बजट में ही फिस्कल डेफिसिट के बारे में सही आकलन पेश करना चाहिए और ये बताना चाहिए कि इसकी भरपाई कैसे होगी? यूपीए सरकार के समय से ये समस्या चली आ रही है कि फिस्कल डेफिसिट जो बताया जाता है, उससे ज्यादा ही रहता है।
क्या आपकाे लगता है कि भारत को भी वेल्थ टैक्स शुरू करना चाहिए?
मैं वेल्थ टैक्स के पक्ष में हूं, लेकिन भारत में वेल्थ टैक्स शुरू करना आसान नहीं है। इसके लिए पहले फिस्कल सिस्टम को क्लीन करना होगा। देश में अभी वेल्थ से जुड़ा लीगल डेटा उपलब्ध ही नहीं है। फोर्ब्स का वेल्थ ब्योरा वेल्थ टैक्स में काम नहीं आएगा।
अगर आप देश के वित्तमंत्री बन जाते हैं, तो आपके तीन बड़े फैसले क्या होंगे?
मैं डर जाऊंगा और छुप जाऊंगा (हंसते हुए)। मैं पहला काम डेटा को क्लीन करूंगा। डेटा में पारदर्शिता लाऊंगा। सही डेटा के बगैर आपको पता कैसे चलेगा कि देश की हालत क्या है? इसके बिना सही योजना कैसे बनेगी। दूसरा काम, मैं मॉनेटरी पॉलिसी को अग्रेसिव करूंगा। यानी डिमांड बढ़ाने के लिए नए नोट छापना। तीसरा काम, मैं टैक्स सिस्टम में सुधार लाने की कोशिश करूंगा। पिछले 20 वर्षों में भारत का टैक्स सिस्टम काफी सुधरा है। फिर भी इसमें सुधार की गुंजाइश है। साभार-दैनिक भास्कर
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