पढ़िए दी बैटर इण्डिया की ये खबर…
हरियाणा में फतेहाबाद के रहने वाले शिक्षक प्रमोद गोदारा और उनकी पत्नी, ASI चंद्र कांता पिछले ढाई-तीन सालों से जैविक खेती कर रहे हैं और अपने खेतों पर ‘एग्रो-टूरिज्म’ को विकसित कर रहे हैं।
दिन-भर और कई बार रात को ड्यूटी के बाद घर लौटने के बाद अक्सर लोगों की चाह होती है कि वे थोड़ा आराम करें या सो लें। लेकिन हरियाणा के हांसी में नियुक्त एएसआई चंद्र कांता घर पहुँचने पर सबसे पहले अपने पेड़-पौधों के साथ समय बिताती हैं। इसके अलावा अगर कभी उन्हें छुट्टी मिलती है, तो उनका लगभग सभी खाली समय अपने पति, प्रमोद गोदारा के साथ अपने खेत में काम करते हुए गुजरता है। मूल रूप से फतेहाबाद जिले के ढिंगसरा गाँव के रहनेवाले, प्रमोद और चंद्र कांता पिछले तीन साल से जैविक खेती और बागवानी कर रहे हैं।
बीएससी, एमएससी और बीएड करनेवाले प्रमोद गोदारा ने लगभग 15 साल बतौर शिक्षक काम किया है और 2017 से वह फतेहाबाद में एक प्राइवेट स्कूल चला रहे हैं। अपने-अपने काम के बावजूद, ये दोनों पति-पत्नी अपनी जमीन और खेती-बाड़ी से जुड़े हुए हैं। अपने इस पूरे सफर के बारे में, उन्होंने द बेटर इंडिया से विस्तार में बात की।
प्रमोद और कांता दोनों ही किसान परिवार से संबंध रखते हैं। लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि वे कभी खुद खेती करेंगे। प्रमोद कहते हैं, “एक समय था जब किसान परिवार से होने के बावजूद मैं खेती से भागता था, लेकिन आज लगता है कि अपनी जड़ों से जुड़े बिना कामयाबी हासिल करना संभव नहीं है।”
बहुत से किसान परिवारों की तरह प्रमोद और कांता के परिवारवाले भी उन्हें पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करते हुए देखना चाहते थे। क्योंकि, बहुत से परिवारों में अभी भी यह धारणा है कि खेती सिर्फ अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग करते हैं और इसमें कभी सफलता नहीं मिलती। प्रमोद भी यही सोचते थे। वह कहते हैं, “पढ़ाई के लिए ज्यादातर गाँव से बाहर ही रहा और इस कारण, मैंने कभी अपने खेतों से लगाव महसूस नहीं किया। फिर लोगों ने भी हमेशा से दिमाग में यही सोच डाली थी कि जीवन में कामयाबी का मतलब सरकारी नौकरी है। लेकिन आज समझ में आता है कि कामयाबी के असल मायने क्या हैं।”
दूसरी तरफ बात अगर कांता की करें, तो वह प्रकृति से जुड़ी रही हैं। उन्होंने बताया कि अपने परिवार के साथ वह खेती में हाथ बंटाया करती थीं और नौकरी के बाद, वह घर में ही पेड़-पौधे उगाने लगी थीं। हालांकि, उन्होंने कभी खेती के बारे में नहीं सोचा था और अपने खेतों को वे हर साल ठेके पर ही दिया करते थे।
वे बताते हैं कि उनके पास 13 एकड़ पुश्तैनी जमीन है। इस जमीन को वे ठेके पर दिया करते थे, लेकिन 2019 में उन्होंने सोचा कि क्यों न इस जमीन पर बाग लगा दिया जाए। उन्होंने कहा, “जमीन को ठेके पर देने में भी कोई खास फायदा नहीं दिख रहा था। इसलिए किसी ने सलाह दी कि आप बाग लगाकर छोड़ दें, इससे कुछ सालों में आमदनी मिलने लगेगी। लेकिन जब बगीचा लगाने के लिए खेती को समझने लगे, तो लगा कि हमें आधुनिक खेती से जुड़ना चाहिए। इसलिए हम दोनों ने मिलकर फैसला लिया कि अब हम अपने खेतों को खुद संभालेंगे।”
2019 में, लगभग चार एकड़ जमीन पर उन्होंने अमरुद और कीनू के पौधे लगाना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने उद्यान विभाग से संपर्क किया और उनसे सब्सिडी पर पौधे खरीदे। प्रमोद कहते हैं कि जैसे-जैसे वे खेतों में थोड़ा-थोड़ा समय देने लगे, तो उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई। उन्होंने यूट्यूब और इंटरनेट के माध्यम से आधुनिक खेती की तकनीकों और तरीकों को जानना शुरू किया। वह कहते हैं कि उन्होंने जैविक खेती के बारे में जाना और समझा। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वे अपने खेतों में किसी भी तरह का कोई हानिकारक रसायन नहीं इस्तेमाल करेंगे।
खेती करने के उनके सफर में चुनौतियां बहुत थीं। जैसे गाँव के लोग उनसे कहते कि पढ़े-लिखे होकर क्यों खेती कर रहे हैं? दूसरा, उनके इलाके में पानी की समस्या थी और इसको लेकर वे बहुत चिंतित थे। लेकिन बागवानी अधिकारी, कुलदीप श्योराण ने उनकी हर तरह से मदद की। सबसे पहले उनके खेतों में तालाब का निर्माण कराया गया ताकि पानी इकट्ठा किया जा सके। इसके बाद, उन्होंने पेड़-पौधे लगाए। फलों के पेड़ लगाने के साथ-साथ उन्होंने मौसमी सब्जियां लगाना भी शुरू किया।
मौसमी सब्जियों के बाद, वे अपने खेतों में गेहूं और तरह-तरह की दालें भी उगाने लगे। कांता कहती हैं कि वे सभी कुछ जैविक तरीकों से उगाते हैं। सभी फसलों के लिए वे जीवामृत, वेस्ट डीकम्पोज़र, और गोबर की खाद का इस्तेमाल करते हैं। कीटों से फसल को बचाने के लिए वे नीम के तेल का स्प्रे करते हैं। लेकिन फिर भी शुरुआत में, उन्होंने बहुत सी कठिनाइयां झेली। कई बार फसल खराब हुई तो कभी इंजन, बिजली जैसे साधनों की परेशानी आई। लेकिन पिछले दो सालों में उन्होंने अपने खेतों के लिए सभी तरह की तकनीकें इकट्ठा कर ली हैं, जिनमें ड्रिप इरिगेशन, स्प्रिंकलर, रेन गन और सोलर पंप शामिल हैं।
प्रमोद कहते हैं, “मुझे स्कूल में सभी बच्चे सर कहते हैं और कांता को हर जगह मैडम कहकर संबोधित किया जाता है। बस इसी से प्रेरित होकर हमने अपने खेतों को ‘मैडम सर फार्म’ का नाम दे दिया।”
तीन गुना बढ़ी आमदनी
वे आगे बताते हैं कि पिछले साल कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण स्कूलों का ज्यादातर काम ऑनलाइन हो गया। इसलिए प्रमोद के पास और समय होने लगा कि वे अपने खेतों को देख सकें। इसलिए उन्होंने अपने खेत पर ही ठहरने के लिए एक कमरा और रसोई बना लिया। इस कमरे और रसोई को भी उन्होंने पारम्परिक तरीकों से बनाया है। निर्माण के लिए उन्होंने भले ही ईंटों का इस्तेमाल किया है, लेकिन ईंटों की चिनाई मिट्टी के गारे में की गयी है। प्लास्टर के लिए सीमेंट की जगह गोबर और मिट्टी को मिलाकर, दीवारों को लीपा गया है।
घर को लीपने का ज्यादातर काम खुद कांता ने किया है। वह कहती हैं कि उन्होंने बचपन से ही अपने गाँव में दादी-नानी को इसी तरह घरों को लीपते देखा था। इससे घर ठंडे रहते हैं और इनमें रहते हुए आप खुद को प्रकृति के और करीब महसूस करते हैं। यहां पर उन्होंने खाने-पीने की भी व्यवस्था की हुई है। उनके बहुत से जान-पहचान के लोग अपने परिवार के साथ आकर उनके खेतों पर अच्छा समय बिताते हैं। खेतों में लगी ताजा सब्जियां तोड़कर, खेतों पर ही चूल्हे और तंदूर पर खाना पकाया जाता है।
पिछले साल से उनसे गेहूं, चना, सब्जियां और सरसों आदि खरीद रहे सुरेश यादव बताते हैं, “मैं उनके खेतों पर खुद गया हूँ और देखा है कि वे सबकुछ जैविक तरीको से उगा रहे हैं। इसलिए उनकी सभी चीजों की गुणवत्ता बहुत अच्छी है। आज के समय में अपने खान-पान पर ध्यान देने की बहुत जरूरत है। इसलिए हमने तय किया कि परिवार को शुद्ध और जैविक खिलाया जाए। हमें ख़ुशी है कि हमारे जान-पहचान में ही कोई हमें अच्छी गुणवत्ता की चीजें उपलब्ध करा रहा है। मुझे तो लगता है कि अगर किसी के पास जमीन है तो उन्हें खेती जरूर करनी चाहिए।”
आज उनके अपने परिवार को तो शुद्ध खाना मिल ही रहा है। साथ ही, लगभग 50 लोग भी उनसे गेहूं, सरसों, चना और दाल आदि खरीदते हैं। इसके अलावा, सब्जियों की खरीद के लिए गाँव और आसपास के लोग भी खूब आते हैं। अब उनकी लागत काफी कम है और आमदनी ज्यादा है। अगले साल से, उन्हें फलों से भी अच्छी आमदनी मिलने लगेगी। वे बताते हैं कि ठेके पर जमीन देने पर उन्हें सालाना तीन लाख रुपए मिलते थे। लेकिन अब लगभग ढाई साल साल बाद, उनकी यह कमाई तीन गुना बढ़ गयी है। अपने खेतों से वह लगभग नौ लाख रुपए कमा पा रहे हैं। साथ ही, उन्होंने आने वाले लगभग 30-40 सालों के लिए अच्छा बगीचा भी लगा दिया है।
अपनी तरह के सभी लोगों को प्रमोद और कांता अपनी जड़ों से जुड़े रहने की सलाह देते हैं। प्रमोद कहते हैं, ” कोरोना महामारी की वजह से पिछले साल से ही लगभग सभी क्षेत्रों में नुकसान हो रहा है। स्कूल-कॉलेजों को भी काफी परेशानी झेलनी पड़ रही है और इस कारण लोग तनाव में हैं। लेकिन मुझे लगता है कि मैं पहले से ही खेती से जुड़ा हुआ हूँ तो इस वजह से मुझे ज्यादा तनाव नहीं हुआ। क्योंकि कहीं न कहीं मैं जानता हूँ कि खेती करने के कारण अब मैं ज्यादा आत्मनिर्भर हूँ।” आगे उनकी योजना अपने खेतों पर ‘एग्रो टूरिज्म’ को बढ़ावा देने की है।
प्रमोद और कांता, आज उन सब लोगों के लिए एक प्रेरणा हैं जो अपने गांवों के आसपास रहकर भी खेती से नाता तोड़ रहे हैं। वे कहते हैं कि किसान परिवारों से जुड़े हुए सभी लोगों को कोशिश करनी चाहिए कि वे अपने साथ-साथ अपने बच्चों को भी शुद्ध और जैविक खेती और खाने का महत्व समझाएं।
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