बात बराबरी की:सिंगल पिता तो मासूम होता है, अकेले काम करे कि घर संभाले; सिंगल मदर होना गुनाह है, जो औरत घर नहीं बचा सकी, वो काम कैसे संभालेगी?

पढ़िए दैनिक भास्कर  की ये खबर…

थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च (IPPR) के 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चे की मां को खो चुका पिता समाज की नजरों में वो मासूम खरगोश है, जिसकी मदद हर कोई करना चाहे। यहां तक कि दफ्तर में ऐसे पुरुषों को दूसरों के मुकाबले 21% ज्यादा बोनस मिलता है। इसके ठीक उलट अकेली मां चालाक लोमड़ी की तरह होती है, जो बच्चे और अपने अकेलेपन को ट्रॉफी की तरह सजाए मौके तलाशती है। यही कारण है कि अकेली मांओं से सब दूर भागते हैं और यहां तक कि उन्हें काम में भी तरक्की नहीं मिलती। अकेले पिताओं के साथ शानदार व्यवहार को फादरहुड बोनस (fatherhood bonus) कहा गया, जबकि अकेली मांओं के साथ सामाजिक सौतेलेपन को मदरहुड पेनल्टी (motherhood penalty)।

आइए इसे इन 2 दृश्यों से समझते हैं…

  1. बच्चे की मां को गुजरे महीनाभर होने जा रहा है। मातमपुर्सी को आए लोग एक-एक करके जा चुके। घर पर बच्चे के दादा-दादी या नाना-नानी भर हैं। पिता रुटीन पर लौट चुके हैं। सुबह नहा-धोकर दफ्तर निकल पड़ते हैं। रात में लौटते हैं तो बच्चा खा-पीकर सो चुका होता है। इधर घर के बूढ़ों के चेहरों पर झुर्रियों से ज्यादा जवान बेटे की फिक्र है। आखिर वो अकेले कैसे छोटे बच्चे को देखेगा! खाना पकाकर कौन देगा! काम करेगा या घर संभालेगा! चंद रोज में तश्तरी पर चांदी के वरक में सजे रिश्ते आते हैं। चुनाव होता है और नवब्याहता, घर-बच्चे समेत दुखियारे पति को संभाल लेती है।
  2. पति-पत्नी का तनाव रूप बदलकर मारपीट की शक्ल ले लेता है। बच्चे को इस छाया से बचाने को आखिरकार पत्नी तलाक का फैसला ले लेती है। लेकिन अलग होने के बाद भी चैन कहां! जहां जाती है, तलाकशुदा का ठप्पा उसके पूरे वजूद पर हावी रहता है। लोग मिलने से बचते हैं कि कहीं ऐसी औरत का संक्रमण उनकी लड़की-बच्चियों को भी न जकड़ ले। औरत बच्चा भी संभालती है। घर भी। और नौकरी भी। खुद को संभालने का खयाल तक न उसके, और न किसी और के जेहन में आता है।

ये स्टडी यहीं खत्म नहीं होती। इस दौरान ये भी देखा गया कि सिंगल पिताओं के पास नौकरी के मौके ज्यादा आते हैं। अगर वे किसी नौकरी के लिए आवेदन करते हुए CV में ये भर जोड़ दें कि वे अकेले बच्चा संभालते हैं तो हर हाल में उनके पास इंटरव्यू कॉल आएगी ही। वहीं सिंगल मदर से कंपनियां भी कूढ़मगज पड़ोसी की तरह पेश आती हैं और उनके पास नौकरी के मौके घट जाते हैं। कंपनियों में नियुक्ति का जिम्मा संभाल रहे लोग मानते हैं कि जो औरत घर नहीं बचा सकी, वो काम कैसे संभालेगी। इस तरह से अकेली मां अकेली छूटती ही जाती है, जब तक कि वो हार न मान ले।

ऐसी ही एक हारी हुई मां का मामला केरल हाईकोर्ट पहुंचा। अदालत ने सिंगल मां पर बात करते हुए कहा- ‘अगर एक महिला को लगता है कि वह पुरुष के सहयोग के बिना कुछ भी नहीं है, तो यह हमारे सिस्टम की हार है’। साथ ही अदालत ने राज्य सरकार से अकेली मांओं के लिए सपोर्ट सिस्टम पर दरयाफ्त की। पूरा मामला कुछ इस प्रकार है…

केरल में साल 2018 में आई तबाही मचाने वाली बाढ़ के बाद पीड़ितों के बीच राहत और पुनर्वास का काम करते हुए दो सामाजिक कार्यकर्ता करीब आए और लिव-इन में रहने लगे। साल 2019 में महिला ने एक बच्ची को जन्म दिया। इस बीच अलग-अलग धर्म के कारण परिवार ने दोनों के रिश्ते को अपनाने से इनकार कर दिया और जैसा कि अक्सर होता है, दोनों अलग हो गए। कुछ समय तक तो युवती ने बच्ची को संभाला, लेकिन शहर में वो बिल्कुल अकेली हो गई थी। गैर-शादीशुदा, तिसपर बाल-बच्चेदार औरत। न रहने को ठिकाना जुट पाया और न कमाने का कोई जरिया। समाज के ढांचे में किसी भी तरह से वो फिट नहीं हो पा रही थी।

आखिरकार युवती ने घुटने टेक दिए। वो बच्चे को एक बाल कल्याण समिति के पास छोड़ आई, जहां से एक परिवार ने उसे गोद ले लिया। बाद में गलती का अहसास होने पर युवक, प्रेमिका के पास पहुंचा और मान-मनुहार-राजीनामे के बाद बच्ची का जिक्र आया। दोनों बाल कल्याण समिति पहुंचे ताकि अपनी बेटी को वापस पा सकें। बढ़ते हुए मामला कोर्ट जा पहुंचा, जहां जजों ने माना कि लिव-इन-रिलेशन में जन्मी संतान भी वैवाहिक संतान ही मानी जाएगी। इस दौरान दो जजों की बेंच ने मामले को प्रेम की असफलता की बजाय समाज की नाकामी के तौर पर देखा, जहां मदद की बजाय ताने मिलने के कारण मां न चाहते हुए भी अपनी बेटी को अनाथालय में छोड़ने पर मजबूर हो गई।

ये तो हुआ वो मामला, जहां संतान बगैर शादी जन्मी है। लेकिन ऐसा नहीं है कि शादीशुदा रिश्ते में तकलीफ पाकर अलग हुई मां को समाज पलकों पर सजाए रखता है। तलाकशुदा के लिए तो एक खास नरककुंड धधकता रहता है जो मां नहीं, बल्कि उसके बच्चे को भी झुलसाता है।

तीन साल पहले का ऐसा ही एक वाकया याद आता है। मेरी बेहद करीबी एक सिंगल मां अपनी बेटी को बेंगलुरु के नामी स्कूल में एडमिशन के लिए ले गई। स्कूल अपनी तरह का अनोखा स्कूल माना जाता है, जहां बच्चों को पढ़ाई के अलावा भी काफी कुछ मिलता है। ओज से भरी मां का इंटरव्यू हुआ। सबकुछ ठीक रहा। मां खुश थी कि बच्ची सुरक्षित माहौल में पढ़ेगी और हर सप्ताहांत मां के पास भी रहेगी। कुछ दिनों बाद रिग्रेट लेटर आया, जिसमें बच्ची को न लेने की बात थी। बाद में सिलेक्शन कमेटी से बात करने पर एक नया ही रहस्य खुला। दरअसल उस स्कूल में पहले भी सिंगल मांओं के कुछ बच्चे आए थे। वे आम बच्चों से थोड़े अलग थे। उन्हें देखते हुए बोर्ड ने तय कर लिया कि सिंगल मांओं के बच्चे ‘अजीब’ होते हैं, जिनका स्कूल में रहना माहौल खराब कर सकता है। इस वाकये ने महीनों तक मुझे परेशान किया था।

मेरी परिचित मां और उसकी कटार की धार जैसी तेज-तर्रार बिटिया देश के अकेले मां-बच्चा नहीं। यूएन वीमन (UN Women) के मुताबिक देशभर में 13 मिलियन से ज्यादा सिंगल मांएं हैं। प्रोग्रेस ऑफ द वर्ल्ड वीमन नाम की इस रिपोर्ट में 89 देशों को शामिल किया गया, जहां करीब 101 बिलियन सिंगल मांएं हैं। एक ओर जहां ज्यादातर देशों में अकेली मांओं के लिए थोड़ी-बहुत सरकारी पॉलिसी और सपोर्ट सिस्टम होता है, वहीं भारत में हालात काफी खराब हैं। यहां पैसे कमाने, घर संभालने और बच्चे की परवरिश जैसे सारे कामों के बीच मां को किसी कुशल नट की तरह कलाबाजियां करनी होती है। तिसपर समाज का असहयोग आंदोलन चलता है, सो अलग। सारी कोशिशों के बाद गलती से भी अगर कोई ऊंच-नीच हो जाए, तो यही असहयोगी कर्मवीर फाड़ खाने को तैयार रहते हैं।

ये रवैया आम लोगों का ही नहीं, अदालत में शीर्ष पद पर बैठे लोगों का भी होता है। मद्रास हाईकोर्ट ने साल 2018 में अकेली मांओं पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ये एक ‘खतरनाक कंसेप्ट’ है, जिससे समाज तहस-नहस हो सकता है। गोया समाज न हो, हजारों साल पुरानी कोई इमारत हो, जिसे खंडहर होने को बस हवा का हल्का झोंका चाहिए। यहां सोचने की बात है कि अगर मांएं या सिंगल पिता अपने बच्चे को सही परवरिश दे सकें तो इससे समाज क्यों तहस-नहस होगा?

कारण तलाशने के लिए हमें थोड़ी दूर जाना होगा- प्राचीन रोम में। वहां 131 ईसा पूर्व रोम के जनरल मैटेलस मेकडोनिकस ने कहा था- रोमवासियों, अगर हम बगैर पत्नी के जीवित रह पाते, तो हम वही करते। लेकिन प्रकृति ने औरतों को गर्भ देकर हम पुरुषों को विवश किया कि हम उन्हें रखें ताकि हमारा वंश चल सके। तो कुछ इस तरह योजना बनानी होगी कि हमें उन्हें झेलने की नौबत कम से कम आए। इससे हमारा दिमागी संतुलन बना रहेगा।

कम से कम वास्ता रखने का ये रोमन दस्तूर अब तक चला आ रहा है। पुरुषों को स्त्रियां चाहिए तो, लेकिन वहीं तक, जहां उनके दंभ में दखलंदाजी न हो। इन सबके बीच केरल हाईकोर्ट की बात वाकई उम्मीद देने वाली है। अगर महिला को लगे कि वो पुरुष के बगैर कुछ नहीं, तो आखिरकार ये सिस्टम की हार है। उसी सिस्टम की, जिसे तेजदिमाग, शौर्यवान पुरुषों ने बड़े योजनाबद्ध तरीके से सदियों लगाकर खड़ा किया। साभार-दैनिक भास्कर

आपका साथ – इन खबरों के बारे आपकी क्या राय है। हमें फेसबुक पर कमेंट बॉक्स में लिखकर बताएं। शहर से लेकर देश तक की ताजा खबरें व वीडियो देखने लिए हमारे इस फेसबुक पेज को लाइक करें।हमारा न्यूज़ चैनल सबस्क्राइब करने के लिए यहाँ क्लिक करें।

Follow us on Facebook http://facebook.com/HamaraGhaziabad
Follow us on Twitter http://twitter.com/HamaraGhaziabad

हमारा गाजियाबाद के व्हाट्सअप ग्रुप से जुडने के लिए यहाँ क्लिक करें

Exit mobile version