आईआईटी गुवाहाटी के वैज्ञानिकों ने श्रीशंकरदेव नेत्रालय के साथ मिलकर ऐसी डिवाइस खोजी है, जो कि शुरुआती स्तर पर ही डायबिटिक रेटिनोपैथी की पहचान कर सकेगी। आईआईटी गुवाहटी के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग और नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर के प्रमुख डॉ. दीपांकर बंदोपाध्याय के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने यह डिवाइस विकसित की है। इसके बारे में जानकारी हाल ही में एसीएस जनरल में प्रकाशित हुई है। शोधकर्ताओं ने इस डिवाइस के लिए पेटेंट भी फाइल कर दिया है।
डायबिटिक रेटिनोपैथी भारत में एक गंभीर गैर-संचारी रोग है। एक अनुमान के अनुसार, 11 – 20 मिलियन भारतीय 2025 तक इस बीमारी से पीड़ित होंगे। यह मधुमेह वाले लोगों में रेटिना की रक्त वाहिकाओं में असामान्य वृद्धि के कारण होती है। यह तब और पीड़ादायक हो जाती है, जब मधुमेह का वह रोगी इंसुलिन का प्रयोग कर रहा होता है।
डॉ. दीपांकर बंदोपाध्याय बताते हैं कि वर्तमान में डायबिटिक रेटिनोपैथी के लिए टेस्ट में पहला कदम एक इनवेसिव आई एग्जाम है, जिसमें आंखों को पतला किया जाता है और नेत्र रोग विशेषज्ञ आंखों का निरीक्षण करते हैं। इस परीक्षण से गुजरने वाले लोग अमूमन ऐसा कहते हैं कि निरीक्षण के बाद कुछ समय तक धुंधला दिखाई देता है। ऑप्टिकल कोहरेंस टोमोग्राफी, फ़्लोरेसिन एंजियोग्राफी, रेटिना में एक्सयूडेट्स का पता लगाना और छवि विश्लेषण जटिल हैं। इनके निरीक्षण के लिए कुशल ऑपरेटरों की आवश्यकता होती है। इसमें एक पेंच ये है कि रोग शुरू होने के बाद ही इनके बारे में पता चलता है।
ईआईटी गुवाहटी ने ये किया समाधान
आईआईटी गुवाहाटी की टीम ने इस बात पर गौर किया कि क्या कोई साधारण परीक्षण जैसे रक्त या मूत्र परीक्षण द्वारा आंखों में दिखाई देने से पहले रेटिनोपैथी को पहचाना जा सकता है। इसने शोधकर्ताओं को रेटिनोपैथी के उपयुक्त बायोमार्करों को देखने के लिए प्रेरित किया। ऐसे रसायन जो शरीर के तरल पदार्थों में पाए जाते हैं, वे रेटिनोपैथी का संकेत दे सकते हैं।
शोधकर्ताओं ने पाया कि माइक्रोग्लोब्युलिन (बी 2 एम), आंसू और मूत्र में पाया जाने वाला प्रोटीन, रेटिनोपैथी का एक विश्वसनीय संकेतक है। इस बात को ध्यान में रखते हुए टीम ऐसी डिवाइस बनाने में लग गई, जो शरीर के तरल पदार्थों में इस प्रोटीन का पता लगा सकने में सक्षम हो।
इस तरह टीम ने एक ऐसा उपकरण विकसित किया, जिसमें संवेदी तत्व बी-2 एम का एक एंटीबॉडी था, जो मानव बाल की चौड़ाई से सौ हजार गुना छोटे सोने के कणों पर स्थिर था। जब नैनोगोल्ड से लदी एंटीबॉडी बी-2 एम के संपर्क में आई, तो इसके रंग में बदलाव हुआ।
ये बनाई डिवाइस
शोधकर्ताओं ने बताया कि हमने एक माइक्रोफ्लूडिक प्रणाली तैयार की जिसमें शरीर का तरल पदार्थ, जैसे कि आंसू या मूत्र बहुत पतली नलियों या कोशिकाओं में खींचा गया, जहां वे सोने के एंटीबॉडी नैनोकणों के संपर्क में आए और बी-2 एम का पता लगाने के लिए रंग में परिवर्तन का मूल्यांकन किया गया। उनके प्रोटोटाइप माइक्रोफ्लूडिक विश्लेषक ने B2M की विश्वसनीय और संवेदनशील पहचान के साथ अच्छे परिणाम दिए। इसे ऑपरेट करना बेहद आसान है। जैसे मधुमेह के लिए ग्लूकोमीटर का प्रयोग किया जाता है, वैसे ही इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
क्या होती है माइक्रोफ्लूडिक डिवाइस
माइक्रोफ्लूडिक उपकरणों को माइक्रोचिप्स और लैब-ऑन-ए-चिप के रूप में भी जाना जाता है। इनका प्रयोग हाल के वर्षों में डिटेक्शन वाली डिवाइस में काफी हो रहा है। इस उपकरण में आम तौर पर तरल पदार्थों के मार्गदर्शन के लिए माइक्रोचैनल्स युक्त एक छोटी प्लेट होती है, जैसे कि रेटिनोपैथी के मामले में मूत्र या आंसू का एक माइक्रोड्रॉप। कैंसर और अन्य बीमारियों में बायोमार्कर का पता लगाने के लिए पहले से ही कई माइक्रोफ्लूडिक डिवाइस विकसित किए गए हैं, पर डायबिटिक रेटिनोपैथी का पता लगाने के लिए ऐसा कोई उपकरण नहीं था। डॉ दीपांकर बंदोपध्याय के नेतृत्व में सुरजेंदु घोष, तमन्ना भुयान और शुभ्रदीप घोष ने इसमें सहयोग किया है। साथ ही श्रीशंकरदेव नेत्रालय के ऑकुलर पैथोलॉजी के प्रमुख दीपांकुर दास भी इसमें सह लेखक रहे हैं। इस शोध को मानव संसाधन विकास मंत्रालय, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और मिनिस्ट्री ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी ने वित्तपोषित किया है।
साभार : दैनिक जागरण।
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