उत्तराखंड के विद्वानों ने आजादी से पहले लिखी गई पुस्तकों और हस्तलेखों का हवाला दिया जिसमें कालापानी को काली नदी का स्रोत दिखाया गया है। ये उन इलाकों पर भारत के दावे में अहम कारक हैं जिनको नेपाल ने अब अपने हिस्सों के तौर पर मानचित्र में शामिल कर लिया है। नेपाल की संसद के निचले सदन ने इस विवादित मानचित्र को शनिवार को स्वीकृति दे दी थी जिसके बाद भारत की तरफ से कड़ी आपत्ति जताई गई है। नेपाल के नये मानचित्र में कालापानी, लिपुलेख और लिमपियाधुरा पर दावा किया गया है। इन इलाकों को भारत अपनी सीमा में बताता है।
काली को दोनों देश की सीमा माना जाता है लेकिन नेपाल का दावा है कि इसका स्रोत कालापानी इलाका है। नेपाल के टीकाकारों का तर्क है कि काली नदी जिसे महाकाली भी कहा जाता है उसका असली स्रोत काली-यंगती छोटी नदी है जिसका उद्गम लिमपियाधुरा में है। यह दावा नेपाल को इलाके में अतिरिक्त क्षेत्र (अधिकार क्षेत्र से बाहर) देता है।
अल्मोड़ा में कुमाऊं विश्वविद्यालय के एसएस जीना परिसर में इतिहास के प्राध्यापक वी डी एस नेगी ने स्कंद पुराण के मानस खंड का हवाला दिया है जिसमें काली नदी का संदर्भ दिया गया है जिसे प्राचीन समय में श्यामा के तौर पर भी जाना जाता है। नेगी ने कहा, “स्कंद पुराण के मानस खंड के 117 पाठ के श्लोक नंबर दो में स्पष्ट है कि ‘श्यामा’ या काली नदी ‘लिपि पर्वत’ या लिपुलेख पर्वत से निकली है।”
उन्होंने नेपाल और ब्रिटिश भारत के बीच हुए 1816 के सीमा समझौते का संदर्भ देते हुए कहा, “स्कंद पुराण का मानस खंड 12वीं सदी के बाद के हिस्से में संकलित किया गया था जो सगौली की संधि पर हस्ताक्षर किए जाने से पहले की बात है।”
नेगी ने कहा कि भारत की आजादी से पहले ब्रिटिश यात्रियों की तिब्बत यात्रा और भारतीय विद्वानों की कैलाश-मानसरोवर पर हस्तलिपि में कालापानी को काली नदी का उद्गम बताया गया है। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश यात्री और 1905 में तिब्बत की यात्रा करने वाले, चार्ल्स ए शीरिंग ने अपनी पुस्तक ‘पश्चिमी तिब्बत और ब्रिटिश बॉर्डरलैंड’ में कहा कि कालापानी, काली नदी का मूल स्रोत है।
वहीं दुसरी ओर यहां के एक अधिकारी ने भी कहा कि स्थानीय भूमि रिकार्ड भी यही बताते हैं कि कालापानी और लिपुलेख की भूमि भारत—नेपाल सीमा पर भारत की ओर स्थित दो गांवों के निवासियों की है। पिथौरागढ के धारचूला के उपजिलाधिकारी ए के शुक्ला ने जमीन के दस्तावेजों के हवाले से बताया कि भारत—नेपाल सीमा पर लिपुलेख, कालापानी और नाभीढांग की सारी जमीन पारंपरिक रूप से धारचूला के गर्बियांग और गुंजी गांवों के निवासियों की है।
गर्बियांग के ग्रामीणों ने बताया कि वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध से पहले उनके पूर्वज कालापानी में इसी जमीन पर फसलें उगाया करते थे। बाद में युद्ध के पश्चात लिपुलेख दर्रे के जरिए चीन के साथ सीमा व्यापार बंद हो गया और वहां फसलें उगाना भी छोड दिया गया। गर्बियांग गांव के निवासी और धारचूला में रंग कल्याण संस्था के अध्यक्ष कृष्णा गर्बियाल ने बताया कि 1962 से पहले हम कालापानी और नाभीढांग में पाल्थी और फाफर जैसे स्थानीय अनाज उगाया करते थे।
उन्होंने बताया कि पहले कालापानी के पार नेपाल में माउंट आपी तक की जमीन गर्बियांग के ग्रामीणों की ही थी लेकिन नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1816 में हुई सुगौली संधि के बाद उन्होंने इसे छोड दिया। इस संधि के बाद नेपाल और भारत के बीच स्थित काली नदी को सीमा रेखा मान लिया गया। उन्होंने बताया कि गर्बियांग के ग्रामीण कालापानी में काली नदी के स्रोत को बहुत पवित्र मानते हैं और उसमें अपने मृतकों की अस्थियों को प्रवाहित करते हैं।
साभार: इंडिया टीवी
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