शहरी क्षेत्र के बड़े सहकारी बैंकों (यूसीबी) को एकल रूप से बैंकिंग नियमन अधिनियम के प्रावधानों के तहत लाया जा सकता है जबकि छोटे सहकारी बैंक पहले की ही तरह सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार की निगरानी में बने रहेंगे। ऐसा होने पर 53 वर्षों से जारी दोहरे नियमन का विवादास्पद मुद्दा सुलझ सकता है।
मार्च 1966 से लागू हुए बैंकिंग अधिनियम में बदलावों के बाद यूसीबी को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के दायरे में लाया गया था। लेकिन, इसके बावजूद भी सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार का इन बैंकों के बोर्ड एवं प्रबंधन से संबंधित मामलों में नियंत्रण बना रहा। इस तरह शहरी सहकारी बैंकों पर दोहरा नियमन चलता रहा। लेकिन दोहरे नियमन की वजह से बढ़ती मुश्किलों को देखते हुए अब बड़े यूसीबी को सीधे आरबीआई की निगरानी में रखने पर विचार किया जा रहा है। संशोधित योजना में छोटे एवं बड़े दोनों तरह के यूसीबी में जमा राशि को भारतीय जमा बीमा निगम से सुरक्षा कवर मिलेगा। बीमित जमा में बढ़ोतरी होने पर उसे भी लाभ मिलेगा।
नया प्रारूप के दायरे में देश भर के 1,551 यूसीबी आएंगे। रिजर्व बैंक की भारत में बैंकिंग प्रगति रिपोर्ट (2017-18) के मुताबिक इन बैंकों का कुल कारोबार 7.36 लाख करोड़ रुपये था और उन्होंने 2.80 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बांटे हुए थे।
एक आधिकारिक सूत्र ने संभावित बदलावों पर कहा, ‘आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच चर्चा काफी आगे बढ़ चुकी है। इस आशय के बदलाव वाले विधेयक को संसद के मौजूदा सत्र में ही पेश किया जा सकता है। इतना साफ है कि दोहरा नियमन खत्म हो जाएगा।’
शहरी सहकारी बैंकों का नोडल प्रभार कृषि मंत्रालय के पास है। इस संबंध में राज्य सरकारों की तरफ से भी सूचनाएं आने की संभावना है। आर गांधी समिति ने 2015 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 20,000 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार वाले सहकारी बैंकों को वाणिज्यिक बैंक बना दिया जाए। इस सुझाव पर फिर से गौर किया जा रहा है। यहां तक कि इस स्तर से नीचे के सहकारी बैंकों को भी बैंकिंग अधिनियम के दायरे में लाया जा सकता है। मसलन, संकट में फंसे पंजाब एवं महाराष्ट्र सहकारी (पीएमसी) बैंक का कारोबारी आकार 12,000 करोड़ रुपये ही था। एक अन्य सूत्र कहते हैं, ‘भले ही 20,000 करोड़ रुपये की सीमा रखने पर चर्चा चल रही है लेकिन ऐसी कोई वजह नहीं है कि इसे नीचे नहीं लाया जा सकता।’
गांधी समिति ने यह भी कहा था कि सहकारी बैंकों का वाणिज्यिक बैंक में रूपांतरण ‘कानूनी तौर पर सही होना’ जरूरी नहीं है। इसके अलावा यूसीबी के अनियंत्रित विस्तार पर लगाम रखने के लिए शाखाओं की संख्या, परिचालन क्षेत्र एवं कारोबार पर सजग नजर रखनी होगी। बड़े यूसीबी अमूमन एक से अधिक राज्यों में मौजूद हैं और एक निश्चित सीमा से ऊपर होने पर उन्हें अधिसूचित वाणिज्यिक बैंक बनाने के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाएगा।
बड़े शहरी सहकारी बैंक को लघु वित्त बैंक (एसएफबी) बनाने का विचार पहले ही छोड़ दिया गया है। दरअसल एसएफबी पर लाइसेंस शर्तों के तहत कई पाबंदियां होती हैं जो बांटे जाने वाले कर्ज के आकार और व्यवसाय की प्रकृति से जुड़ी होती हैं।
आरबीआई ने अपनी हालिया मौद्रिक नीति समीक्षा में यूसीबी के भविष्य को लेकर कुछ संकेत दिए। उसने कहा कि बड़ी जमाओं के बारे में जानकारी मुहैया कराने को लेकर नए दिशानिर्देश बनाए जा रहे हैं। बड़े यूसीबी पर बैंकिंग नियमन अधिनियम लागू होने के बाद बेसल-3 मानकों का पालन करना वाणिज्यिक बैंकों की ही तरह जरूरी हो जाएगा। फिलहाल शहरी सहकारी बैंक बेसल-1 मानक का ही अनुसरण करते हैं जो पुराना हो चुका है। हालांकि उन्हें बेसल-3 के अनुसरण के लिए समय दिया जाएगा। अभी तक केवल एक बार ऐसा हुआ है जब किसी यूसीबी को वाणिज्यिक बैंक बनाया गया था। यह वाकया 1996 में डीसीबी बैंक के साथ हुआ था और वह भी जबरन नहीं हुआ था। जहां तक छोटे यूसीबी का सवाल है तो वे पहले की तरह सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार के नियमन में ही बने रहेंगे। इससे अपने पूंजी ढांचे को देखते हुए उनके पास वृद्धि के सीमित अवसर ही रहेंगे। ऐसे में इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि आगे चलकर कोई एसएफबी या वाणिज्यिक बैंक उनका अधिग्रहण कर लें।
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