सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई टाल दी। यह अधिनियम 15 अगस्त 1947 को धार्मिक स्थलों के स्वरूप को बनाए रखने का प्रावधान करता है। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की पीठ ने कहा कि यह मामला तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सुना जाना चाहिए, जबकि वर्तमान में इसमें दो ही न्यायाधीश थे। कोर्ट ने इसे मार्च में सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया।
हस्तक्षेप आवेदनों पर नाराजगी
सीजेआई ने मामले में लगातार दायर किए जा रहे हस्तक्षेप आवेदनों पर आपत्ति जताई और कहा कि इनकी एक सीमा होनी चाहिए। उन्होंने कहा, “हम आज इस मामले पर सुनवाई नहीं करेंगे। यह तीन न्यायाधीशों का मामला है और बहुत अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं। दखल दायर करने की भी एक सीमा होनी चाहिए।”
कौन-कौन कर रहा है अधिनियम का समर्थन और विरोध?
इस मामले में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, सीपीआई (एमएल), एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, जमीयत उलमा-ए-हिंद, इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, ज्ञानवापी मस्जिद प्रबंधन समिति, मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद समिति समेत कई संगठनों ने 1991 के कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं के खिलाफ आवेदन दायर किए हैं। उनका तर्क है कि यदि इस अधिनियम को निरस्त किया जाता है तो इससे पूरे भारत में अनगिनत मस्जिदों के खिलाफ मुकदमे शुरू हो सकते हैं।
वहीं, भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, पूर्व सांसद चिंतामणि मालवीय, सेवानिवृत्त सेना अधिकारी अनिल काबोत्रा, अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय, काशी राजपरिवार की महाराजा कुमारी कृष्ण प्रिया, वाराणसी निवासी रुद्र विक्रम सिंह, धार्मिक नेता स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती, मथुरा निवासी देवकीनंदन ठाकुर जी सहित अन्य ने अधिनियम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की हैं। उनका कहना है कि यह अधिनियम हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख समुदायों के उनके ऐतिहासिक पूजा स्थलों को पुनर्स्थापित करने के अधिकार को बाधित करता है।
अधिनियम की संवैधानिकता पर सवाल
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि अधिनियम की धारा 2, 3, और 4 संविधान के मूल ढांचे और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। यह धर्मनिरपेक्षता और कानून के शासन के खिलाफ है। साथ ही, यह न्यायालय जाने के अधिकार को समाप्त करता है, जिससे न्यायिक उपचार के मौलिक अधिकार का हनन होता है।
सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश
12 दिसंबर को, शीर्ष अदालत ने आदेश दिया कि जब तक यह मामला विचाराधीन है, तब तक देशभर की किसी भी अदालत में किसी भी धार्मिक स्थल को लेकर कोई नया मुकदमा दायर नहीं किया जाएगा। साथ ही, मौजूदा मुकदमों में किसी भी प्रकार का अंतरिम या अंतिम आदेश पारित करने पर रोक लगा दी गई है।
अधिनियम की असमानता पर आपत्ति
हिंदू याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अधिनियम में भगवान राम जन्मभूमि को इससे बाहर रखा गया है, लेकिन भगवान कृष्ण जन्मभूमि को इसमें शामिल कर दिया गया है। उनका कहना है कि यह अधिनियम धार्मिक आस्थाओं के साथ भेदभाव करता है और इस पर पुनर्विचार आवश्यक है।
आगे की राह
अब यह मामला मार्च में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जाएगा, जहां तीन न्यायाधीशों की पीठ इसकी संवैधानिकता पर विचार करेगी। इस कानूनी लड़ाई का परिणाम न केवल भारत के धार्मिक स्थलों के भविष्य को प्रभावित करेगा, बल्कि देश की धर्मनिरपेक्षता और न्याय प्रणाली की दिशा भी तय करेगा।
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