सुप्रीम कोर्ट:- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे से जुड़ा मामला एक नई संविधान पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया है। शुक्रवार को सात जजों की पीठ ने 1967 के उस निर्णय को खारिज कर दिया, जिसमें एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान मानने से इनकार किया गया था। अब तीन जजों की पीठ इस मामले की गहनता से सुनवाई करेगी और यह तय करेगी कि क्या एएमयू संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त करने का हकदार है।
क्या था 1967 का फैसला? 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना था, यह तर्क देते हुए कि विश्वविद्यालय केंद्रीय कानून के तहत स्थापित है। हालांकि, शुक्रवार को सात जजों की संविधान पीठ ने 4:3 के बहुमत से इस फैसले को पलटते हुए कहा कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिलना चाहिए।
संविधान की गूंज सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में स्पष्ट किया कि किसी भी धार्मिक या भाषाई समुदाय को अपने संस्थान स्थापित करने का अधिकार है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 30 में उल्लेखित है। हालांकि, अदालत ने यह भी कहा कि धार्मिक समुदाय केवल संस्थान की स्थापना कर सकते हैं, जबकि संस्थान का प्रशासन सरकारी नियमों के अनुसार ही किया जा सकता है।
नई पीठ से क्या उम्मीदें हैं? एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर अब तीन जजों की नई बेंच गठित की जाएगी, जो यह तय करेगी कि विश्वविद्यालय का दर्जा क्या होगा। इस फैसले का मुस्लिम समुदाय में खासा समर्थन है, और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने इसे ऐतिहासिक करार दिया है। उन्होंने कहा कि यह फैसला एएमयू के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद करेगा और धार्मिक अल्पसंख्यकों के शैक्षिक अधिकारों को मजबूत करेगा।
सवाल उठता है: अगर एएमयू अल्पसंख्यक नहीं तो कौन? मौलाना खालिद रशीद ने सवाल उठाया कि अगर एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जाता, तो फिर संविधान के तहत अल्पसंख्यक संस्थान की परिभाषा क्या होगी? यह सवाल संविधान और शिक्षा क्षेत्र में एक बड़ा विमर्श खड़ा करता है, खासकर जब शिक्षा के अधिकार और सांस्कृतिक पहचान की बात आती है।
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