सुप्रीम कोर्ट हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में ईशा फाउंडेशन के खिलाफ बंधक बनाने के आरोपों को खारिज कर दिया है। मामला तब सुर्खियों में आया जब एक व्यक्ति ने याचिका दायर कर आरोप लगाया कि उसकी दो बेटियों को कोयंबटूर स्थित फाउंडेशन के आश्रम में बंधक बना कर रखा गया है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनवाई के दौरान दोनों बेटियों की आयु को ध्यान में रखा, जो क्रमशः 42 और 39 वर्ष की हैं। अदालत ने उनकी स्वेच्छा से आश्रम में रहने की बात को स्वीकार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि वे बिना किसी दबाव के वहां हैं।
इससे पहले, मद्रास उच्च न्यायालय ने फाउंडेशन के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि लड़कियों का ब्रेनवॉश किया गया है। पुलिस ने इस मामले की जांच के लिए लगभग 150 जवानों को भेजा, लेकिन ईशा फाउंडेशन ने इन आरोपों को खारिज कर दिया और कहा कि दोनों लड़कियां अपनी मर्जी से वहां रह रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए पुलिस जांच पर रोक लगा दी, और पिछले अनुभवों का हवाला देते हुए कहा कि आठ साल पहले भी एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई थी।
हालांकि, अदालत ने यह स्पष्ट किया कि अन्य शिकायतों की जांच पुलिस द्वारा की जा सकती है, जिससे यह संकेत मिलता है कि मामले में अब भी कुछ विवाद बचा हुआ है। ईशा फाउंडेशन के वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि मीडिया में चल रही स्टेटस रिपोर्ट निजता का उल्लंघन कर रही है, जिससे मामले की जटिलता और बढ़ गई है।
इस फैसले ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा किया है कि कैसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार के अधिकारों के बीच संतुलन बनाया जाए, विशेषकर जब मामला धार्मिक संस्थानों से जुड़ा हो।
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