नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को धार्मिक स्थलों पर 1991 के कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की। अदालत ने केंद्र को अपनी प्रतिक्रिया दाखिल करने के लिए तीन महीने का समय दिया है।
कोर्ट ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के कुछ प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच पर अपनी प्रतिक्रिया दाखिल करने के लिए केंद्र को 31 अक्टूबर यानी तीन महीने का समय दिया है। केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना है कि मामला विचाराधीन है और सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए कुछ और समय चाहिए। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने से ज्यादा का वक्त दिया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कानून नागरिकों के साथ भेदभाव करता है और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
क्या कहता है प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991?
1991 में लागू किया गया यह प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। यदि कोई इस एक्ट का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। यह कानून तत्कालीन कांग्रेस प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार 1991 में लेकर आई थी। यह कानून तब आया जब बाबरी मस्जिद और अयोध्या का मुद्दा बेहद गर्म था।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा- 2
यह धारा कहती है कि 15 अगस्त 1947 में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव के विषय में यदि कोई याचिका कोर्ट में पेंडिंग है तो उसे बंद कर दिया जाएगा।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट की धारा- 3
इस धारा के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म में बदलने की अनुमति नहीं है। इसके साथ ही यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के रूप में ना बदला जाए या फिर एक ही धर्म के अलग खंड में भी ना बदला जाए।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट की धारा- 4 (1)
इस कानून की धारा 4(1) कहती है कि 15 अगस्त 1947 को एक पूजा स्थल का चरित्र जैसा था उसे वैसा ही बरकरार रखा जाएगा।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट की धारा- 4 (2)
धारा- 4 (2) के अनुसार यह उन मुकदमों और कानूनी कार्यवाहियों को रोकने की बात करता है जो प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के लागू होने की तारीख पर पेंडिंग थे।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट की धारा- 5
में प्रावधान है कि यह एक्ट रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले और इससे संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं करेगा।
कानून के पीछे का मकसद
यह कानून (Pooja Sthal Kanon, 1991) तब बनाया गया जब राम मंदिर आंदोलन अपने चरम सीमा पर भी पहुंचा था। इस आंदोलन का प्रभाव देश के अन्य मंदिरों और मस्जिदों पर भी पड़ा। उस वक्त अयोध्या के अलावा भी कई विवाद सामने आने लगे। बस फिर क्या था इस पर विराम लगाने के लिए ही उस वक्त की नरसिम्हा राव सरकार ये कानून लेकर आई थी।
ज्ञानवापी मामले में हुआ विरोध
भाजपा हमेशा से ही इस कानून का विरोध करती रही है। देश में कई जगहों पर हिंदू अपने पूजा स्थलों का द्वा कर रहे हैं। इसी तरह के दावे को लेकर ज्ञानवापी और मथुरा का मामला कोर्ट में है। हालांकि यह कानून रोड़ा अटकाता है। अब इस कानून की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। अब याचिकाकर्ताओं का कहना है कि जिन स्थलों को आक्रांताओं ने विध्वंस कर दिया था उनको भी यह कानून मान्यता दे रहा है। यह कानून सभी धर्मों को अपने मूल स्थान पाने से वंचित कर देता है।
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