पढ़िये दैनिक भास्कर की ये खास खबर….
1999 की गर्मियों की एक सुबह थी। काबुल में रहने वाली शुक्रिया बरकजई को बुखार महसूस हुआ। उस वक्त अफगानिस्तान में तालिबान का राज था। उनके नियमों के मुताबिक कोई भी महिला बिना महरम यानी पुरुष संरक्षक के घर से बाहर नहीं निकल सकती थी। बरकजई के पति काम पर गए थे और उसका कोई बेटा नहीं था।
बरकजई ने अपनी दो साल की बेटी के सिर से बाल निकाल दिए और लड़कों वाले कपड़े पहनाकर उसे अपना महरम बना लिया। खुद सिर से पांव तक आंखों में जाली वाला नीला बुरका पहन लिया। डॉक्टर को दिखाकर वो जैसे ही लौट रही थी उसे रास्ते में तालिबानी लड़ाकों ने रोक लिया।
उनमें से एक शख्स ने बिना कुछ बोले बरकजई पर कोड़े बरसाने शुरू कर दिए। उसे तब तक पीटा गया जब तक वो जमीन पर गिर नहीं गई। दर्द और अपमान का घूंट पीकर वो रोते हुए खड़ी हुई। अपनी बेटी का हाथ थामा और वापस घर की तरफ चल दी।
बरकजई की आपबीती तालिबान के जुल्म की महज एक बानगी है। लड़कियों और महिलाओं पर तालिबान की बेइंतहा क्रूरता की दास्तानें हर तरफ पसरी हुई हैं। आगे हम आपको तीन तस्वीरें और एक वीडियो दिखाने जा रहे हैं। ये दृश्य और कहानियां आपके जेहन पर चोट कर सकते हैं। इसलिए अगर आप कमजोर दिल के हैं तो नीचे स्क्रॉल न करें।
आपने तीन तस्वीरें और एक वीडियो देखा। इन सभी में दो बातें कॉमन हैं। पहली, ये सभी दास्तानें तालिबानी हुकूमत की हैं। दूसरी, सभी में क्रूरता का निवाला महिलाएं हैं।
हम यहां तालिबान की सोच में महिलाओं के लिए क्रूरता और दोयम दर्जे की पड़ताल करने जा रहे हैं। चूंकि तालिबान शरिया कानूनों से चलता है इसलिए हम इससे जुड़ी 5 बातें सामने रखेंगे…
- शरिया क्या है और इसकी शुरुआत कहां से हुई?
- शरिया में किस तरह के क्राइम का उल्लेख हुआ है?
- तालिबान हुकूमत में महिलाओं के साथ कितनी क्रूरता होती है?
- कौन-से देश शरिया कानूनों से चलते हैं?
- तालिबान इतना सख्त और कुछ देश नरम क्यों?
कुरान, हदीस, इस्लामिक स्कॉलर्स और समुदाय की आम राय के आधार पर शरिया चलता है। हदीस का संकलन अलग-अलग सूमहों ने किया है। इस्लामिक स्कॉलर्स के नजरिए में भी फर्क हो सकता है इसलिए शरिया कानून कहीं बेहद सख्त और कहीं कुछ नरम होते हैं। इस्लाम में प्रमुख रूप से चार स्कूल ऑफ थॉट्स हैं…
तालिबान का शरिया
तालिबान क्रूरता की हदें पार करते हुए आज भी हुदूद सजाओं का इस्तेमाल करते हैं। ये शरिया का एक्सट्रीम वर्जन अपनाते हैं।
पश्तो में तालिबान का मतलब स्टूडेंट होता है। तालिबान को खड़ा करने में मदरसों का बड़ा योगदान है। 1990 के दशक में इन मदरसों की फंडिंग सऊदी अरब से होती थी। वहीं से शरिया की विचारधारा भी आ गई। वक्त के साथ तालिबान की कट्टरवादी सोच और गहरी होती गई।
1996 से अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत आ गई। देश में शरिया कानून लागू हो गया। सार्वजनिक सजा देना आम हो गया। म्यूजिक, टीवी और वीडियो पर बैन लगा दिया गया। जो शख्स पांच वक्त की नमाज नहीं पढ़ता था या दाढ़ी कटवा लेता था, उसे सार्वजनिक रूप से पीटा जाता था।
इस लेख की शुरुआत में हमने शुक्रिया बरकजई की दास्तान सुनाई थी। शुक्रिया ने फोटोजर्नलिस्ट लिन्सी अडारियो को बताया कि औरतों पर जुल्म करने वाले खुद नहीं जानते वो ऐसा क्यों कर रहे हैं। वो मारते हैं, पीटते हैं, अपमान करते हैं। इससे उन्हें खुशी मिलती है, लेकिन उन्हें इस जुल्मो-सितम का कारण नहीं पता। साभार-दैनिक भास्कर
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