आज आर्थिक प्रगति के साथ साथ शारिरिक और मानसिक रूप से प्रगतिशील होने को बहुत ज़रूरी समझा जाता है।
समाज के जागरूक और समझदार लोग “बैक टू बेसिक्स” की तरफ जाने लगे हैं। इसी सोच से हम अब जान चुके हैं कि मिट्टी के बर्तनों में बनाए गए खाने की जो पौष्टिकता और जीवनी शक्ति है वह स्टील या अल्मुनियम के बर्तनों में बनाये भोजन में नहीं मिल सकती।
इसके अलावा चाइना से आए माल के विरोध के चलते अब जनता अपने लोकल माल को ही खरीदना पसंद कर रही है।
हमारे गाज़ियाबाद में मिट्टी के दिए, करवा, गुल्लक, हांडी, तवा, मटकी, घड़ा, गमले, नज़र बट्टू और सुराही आदि बनाने वाले 50 वर्षीय महेश प्रजापति से हमने बात की। उन्होंने बताया कि पिछले 50 सालों से ज़्यादा से उनका परिवार इस काम को कर रहा है । इनके परिवार में 5 पीढ़ियों से ये काम होता आ रहा है। लोगों में बड़ी जागरूकता आई है और अब उनकी सेल डे बाइ डे बढ़ती जा रही है।
पूजा के लिए दीवे, करवा से लेकर साग बनाने वाली हांडी और मटकों की मांग बहुत बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश सरकार भी इस काम में उनकी मदद कर रही है। उनको मोटर से चलने वाला चॉक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया गया है। उन्होंने यह भी बताया है कि सीमित सी कमाई में भी वह अपने बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं और इस काम को भी सिखा रहे हैं।
इस काम में जो उनको बड़ी दिक्कत आ रही है वो ये है कि बर्तनों को पकाने वाले अलाव के धुंए से परेशान होकर आसपास के लोग विरोध करते हैं। वैसे अब उन्होंने उसका भी इंतजाम कर लिया है। अब वो अलाव अपने घर की छत पर जलाते हैं। इससे अब आसपास के लोगों को परेशानी नहीं होती।
“हमारा गाजियाबाद” न्यूज़ पोर्टल की ओर से अपने पाठकों को हम सलाह देना चाहेंगे कि जिस प्रकार से हम लोग रसायनिक खादों से तैयार फसलों के इस्तेमाल को छोड़ रहे हैं व पेस्टिसाइड रहित खाना खाने की बात करते हैं उसी तरह से मिट्टी के बर्तनों में बने भोजन के महत्व को भी समझें।
हम अपने पाठकों को परामर्श देना चाहेंगे कि इंटरनेट पर जाकर देखें के मिट्टी के बर्तनों में पकाए खाने के क्या-क्या लाभ हैं। आने वाली दिवाली पर आइए हम अपने कुम्हार भाइयों को और उनके परिवारों को खुशियों का तोहफा दे और मिट्टी के दीए, करवे आदि के साथ ही भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तनों की भी खरीदारी करें। आभार सहित, टीम हमारा गाज़ियाबाद।
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