भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद निशिकांत दुबे द्वारा सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ की गई विवादास्पद टिप्पणी अब कानूनी पचड़े में उलझती नज़र आ रही है। मामले की गंभीरता को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दुबे के खिलाफ दायर अवमानना याचिका को अगले सप्ताह सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने का निर्णय लिया है।
क्या है मामला? सांसद निशिकांत दुबे ने शनिवार को वक्फ संशोधन कानून के संदर्भ में एक बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि “अगर सुप्रीम कोर्ट कानून बनाएगा, तो फिर संसद और विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए।” इतना ही नहीं, उन्होंने मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना पर निशाना साधते हुए यह भी कहा कि “देश में गृह युद्ध के लिए सीजेआई जिम्मेदार होंगे।”
यह बयान जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाते हुए कई वकीलों और नागरिक संगठनों ने इसे गंभीर चिंता का विषय बताया।
सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया मामले को तत्काल संज्ञान में लेते हुए वकील ने सुप्रीम कोर्ट की पीठ—जिसमें न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं—से आग्रह किया कि याचिका पर शीघ्र सुनवाई की जाए। वकील ने कहा कि दुबे की टिप्पणी के कारण सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों की बाढ़ आ गई है और इससे देश की सर्वोच्च अदालत की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंच रही है।
इस पर न्यायमूर्ति गवई ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता को अवमानना याचिका दायर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने मामले को अगले सप्ताह सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने का आश्वासन भी दिया।
सरकारी पक्ष और राजनीतिक प्रतिक्रिया याचिकाकर्ता की ओर से यह भी आरोप लगाया गया कि सरकार दुबे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। एक सहयोगी वकील ने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी को पत्र लिखकर अवमानना कार्यवाही शुरू करने की सहमति मांगी थी, लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं आया है।
भाजपा ने भी इस पूरे मामले से खुद को अलग करते हुए कहा है कि निशिकांत दुबे के बयान उनके व्यक्तिगत विचार हैं और पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पार्टी नेताओं से आग्रह किया है कि वे न्यायपालिका के प्रति सम्मान बनाए रखें और ऐसे विवादास्पद बयान देने से बचें।
न्यायपालिका और संसद के संबंधों पर बहस यह मामला न सिर्फ कानूनी दृष्टिकोण से अहम है, बल्कि यह संसद और न्यायपालिका के बीच संवैधानिक सीमाओं और संतुलन को लेकर भी नई बहस को जन्म देता है। सवाल यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट किसी कानून की वैधता की समीक्षा करता है, तो क्या उसे “कानून बनाने” की संज्ञा दी जा सकती है?
आगे क्या होगा? अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई पर टिकी हैं। क्या अदालत निशिकांत दुबे के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करेगी? क्या सोशल मीडिया पर फैले वीडियो को हटाने का आदेश दिया जाएगा? और क्या सरकार इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट रुख अपनाएगी?
यह मामला केवल एक सांसद की टिप्पणी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के बीच मर्यादाओं और गरिमा के संतुलन का एक अहम परीक्षण भी बन गया है।
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