तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (टीएनपीसीबी) को सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार का सामना करना पड़ा है। यह मामला प्रसिद्ध योग गुरु सद्गुरु जग्गी वासुदेव की संस्था, ईशा फाउंडेशन द्वारा कोयंबटूर जिले के वेल्लियांगिरी में बनाए गए योग और ध्यान केंद्र से जुड़ा है।
मामले की पृष्ठभूमि
2006 से 2014 के बीच, ईशा फाउंडेशन ने बिना उचित पर्यावरणीय मंजूरी के कई इमारतों का निर्माण किया था। इस मामले में तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कारण बताओ नोटिस जारी किया था। हालांकि, 14 दिसंबर 2022 को मद्रास उच्च न्यायालय ने इस नोटिस को यह मानते हुए खारिज कर दिया कि फाउंडेशन द्वारा संचालित सुविधाएं ‘शिक्षा’ की श्रेणी में आती हैं। केंद्र सरकार ने भी न्यायालय को यह जानकारी दी थी कि ईशा फाउंडेशन न केवल योग की शिक्षा देता है, बल्कि एक स्कूल भी संचालित करता है।
सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी
हाल ही में, टीएनपीसीबी ने उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘नौकरशाहों का मैत्रीपूर्ण खेल’ करार देते हुए कड़ी आलोचना की। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने टीएनपीसीबी की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह केवल अदालत की औपचारिक मंजूरी प्राप्त करने का प्रयास है।
तमिलनाडु सरकार को निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि अब जब ईशा फाउंडेशन ने योग और ध्यान केंद्र का निर्माण कर लिया है, तो यह सुनिश्चित किया जाए कि पर्यावरणीय नियमों का पूरी तरह पालन किया जाए। महाधिवक्ता पीएस रमन को अदालत ने इस संबंध में आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए।
शिवरात्रि समारोह और अगली सुनवाई
इस मामले में ईशा फाउंडेशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि इस पर सुनवाई शिवरात्रि के बाद की जाए, क्योंकि फाउंडेशन द्वारा एक बड़े समारोह का आयोजन किया जाना है। पीठ ने इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए मामले की अगली सुनवाई शिवरात्रि के बाद तय की।
पर्यावरणीय अनुपालन की अनदेखी?
ईशा फाउंडेशन पर पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी के बिना निर्माण करने का आरोप लग चुका है। सवाल यह उठता है कि क्या इस तरह की संस्थाएं अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी कर सकती हैं? उच्च न्यायालय के फैसले ने यह माना कि चूंकि फाउंडेशन शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत है, इसलिए इस पर अभियोजन की आवश्यकता नहीं। यह निर्णय पर्यावरणीय कानूनों की गंभीरता पर भी प्रश्न उठाता है।
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