दिल्ली विधानसभा चुनाव की आधिकारिक घोषणा भले ही अभी न हुई हो, लेकिन राजनीतिक गतिविधियों ने जोर पकड़ लिया है। इस बार दिल्ली का चुनाव न केवल स्थानीय राजनीति बल्कि पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य पर भी गहरा प्रभाव डालता दिखाई दे रहा है। आम आदमी पार्टी (आप), कांग्रेस, और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। खासकर कांग्रेस और आप के बीच प्रतिद्वंद्विता आईएनडीआई गठबंधन के भीतर भी अलग ही रंग दिखा रही है।
आम आदमी पार्टी: जीत के लिए पूरा जोर आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और महासचिव संगठन डॉ. संदीप पाठक ने पिछले सप्ताह दिल्ली चुनावों के लिए एक व्यापक योजना तैयार की। सभी विधायकों, मंत्रियों, बोर्ड कॉरपोरेशन के चेयरमैन, और वरिष्ठ नेताओं को हर विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय रहने का निर्देश दिया गया है। पार्टी ने “घर-घर पहुंचो” अभियान को प्राथमिकता देते हुए, जनता को लुभाने के लिए नई गारंटियों की झड़ी लगा दी है।
दिल्ली में महिलाओं को ₹2100 मासिक सहायता का वादा हो या पुजारियों और ग्रंथियों को ₹18,000 प्रति माह का वेतन देने की घोषणा, आप ने हर वर्ग को साधने का प्रयास किया है। हालांकि, इन वादों की गूंज पंजाब में भी सुनाई दे रही है, जहां दो साल बाद विधानसभा चुनाव होंगे। पंजाब की राजनीतिक और धार्मिक संरचना को देखते हुए यह रणनीति आप के लिए अहम साबित हो सकती है।
कांग्रेस: आप की गारंटियों को चुनौती कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में आप की बढ़त रोकने के लिए पंजाब के विधायकों और नेताओं को मैदान में उतार दिया है। पंजाब के विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वारिंग, सुखजिंदर सिंह रंधावा, और परगट सिंह जैसे बड़े नाम दिल्ली की अलग-अलग विधानसभा सीटों पर सक्रिय हैं।
गारंटियों पर निशाना प्रताप सिंह बाजवा ने अरविंद केजरीवाल की ₹2100 मासिक सहायता योजना पर सवाल उठाते हुए कहा कि पंजाब में आप सरकार ने महिलाओं को ₹1000 देने का वादा किया था, जो 34 महीने बाद भी पूरा नहीं हुआ है। कांग्रेस ने मोहल्ला क्लीनिक की तुलना पंजाब में वादा किए गए 16 मेडिकल कॉलेजों से की, जिनमें अब तक एक भी कॉलेज का निर्माण शुरू नहीं हुआ है।
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि आप सरकार के वादे सिर्फ दिखावे तक सीमित हैं और दिल्ली में किए गए बड़े-बड़े वादों का हश्र पंजाब में जनता देख चुकी है।
आप और कांग्रेस: आईएनडीआई गठबंधन में प्रतिस्पर्धा दिलचस्प बात यह है कि आप और कांग्रेस, दोनों ही आईएनडीआई गठबंधन के हिस्सेदार हैं। इसके बावजूद, दोनों पार्टियां दिल्ली में एक-दूसरे के वोट काटने के लिए तैयार हैं। कांग्रेस का दावा है कि आप का काम प्रचार-प्रसार तक सीमित है, जबकि उनकी पार्टी जमीनी सच्चाई को उजागर करने में जुटी है। आप के नेताओं ने पंजाब और दिल्ली के मुद्दों को जोड़कर जनता को लुभाने की रणनीति अपनाई है।
धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति? आप की पुजारियों और ग्रंथियों के लिए वेतन योजना को लेकर दिल्ली और पंजाब में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। केंद्रीय सिंह सभा के नेताओं ने अरविंद केजरीवाल पर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का आरोप लगाया। सिख विचारकों ने यह सवाल उठाया कि मौलवियों के वेतन को लेकर आप सरकार चुप क्यों है।
यह मुद्दा पंजाब में भी तूल पकड़ सकता है, जहां धार्मिक और सामाजिक संतुलन चुनावी राजनीति में बड़ी भूमिका निभाता है।
क्या आप की मुश्किलें बढ़ेंगी? कांग्रेस के इस बार दिल्ली चुनाव में पूरी ताकत झोंकने से आप की राह आसान नहीं होगी। कांग्रेस की गारंटी-आधारित राजनीति की आलोचना और आप के वादों की विश्वसनीयता पर सवाल दिल्ली और पंजाब दोनों में असर डाल सकते हैं। भाजपा, जो मुख्य विपक्षी दल के रूप में पहले से सक्रिय है, कांग्रेस और आप के आपसी संघर्ष का लाभ उठा सकती है।
दिल्ली चुनाव न केवल राजधानी की सियासत बल्कि पड़ोसी राज्यों, खासकर पंजाब, के राजनीतिक समीकरणों को भी प्रभावित करेगा। आम आदमी पार्टी अपनी सरकार की उपलब्धियों और नई गारंटियों पर जोर दे रही है, जबकि कांग्रेस इन्हें खोखले वादे बताकर घेर रही है।
आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली का चुनावी रण पंजाब की राजनीति को कितना प्रभावित करता है और कौन सी पार्टी जनता का विश्वास जीतने में सफल होती है। सियासत के इस बदलते समीकरण पर नजर बनाए रखें।
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