अडाणी व संभल पर संसद में हंगामा, सपा-TMC की खामोशी, कांग्रेस नेता के बयान ने बढ़ाई विवाद की लहर

संसद का शीतकालीन सत्र इस बार तीव्र राजनीतिक गतिरोध का साक्षी बन रहा है। विपक्ष और सरकार के बीच तनाव और विरोध-प्रदर्शन लगातार जारी है। मंगलवार को अडानी मामले को लेकर विपक्षी नेताओं ने संसद परिसर में जोरदार प्रदर्शन किया, जिसमें प्रमुख कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने सक्रिय रूप से भाग लिया। इस प्रदर्शन ने संसद के भीतर और बाहर एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दिया, जिसमें विपक्षी दलों के भीतर एकजुटता की कमी और उनके विभिन्न मुद्दों की प्राथमिकता को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
कांग्रेस और विपक्ष का दृष्टिकोण
कांग्रेस पार्टी ने शीतकालीन सत्र के दौरान अडानी मुद्दे को अपनी प्राथमिकता बनाते हुए इसे संसद में चर्चा के लिए लाने का कड़ा प्रस्ताव रखा है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन किया और सरकार से जवाबदेही की मांग की। कांग्रेस का यह तर्क है कि अडानी से जुड़ी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के मामलों की संसद में खुलकर चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि यह लोकतंत्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है। उनका मानना है कि यदि इस मुद्दे पर चर्चा नहीं होती है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है।
कांग्रेस ने इस मुद्दे को लेकर अपनी पूरी ताकत झोंक दी है, लेकिन सपा और टीएमसी जैसी प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने इससे दूरी बना ली है और अपने अलग-अलग मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है। यह विरोधाभास विपक्ष की एकजुटता पर गंभीर सवाल खड़ा करता है, क्योंकि जहां कांग्रेस अडानी के मुद्दे पर अडिग है, वहीं अन्य दल महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं और मणिपुर हिंसा जैसे मुद्दों पर बहस चाहते हैं।
समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस का रुख
समाजवादी पार्टी (सपा) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने अडानी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग रुख अपनाया है। सपा ने इस मामले की तुलना में संभल हिंसा पर चर्चा की मांग की है, जबकि टीएमसी ने मंहगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं और मणिपुर जैसे मुद्दों को अधिक महत्वपूर्ण बताया है। इन दलों का तर्क है कि अडानी का मुद्दा उतना गंभीर नहीं है जितना कि देश की अन्य समस्याएं, जिनपर संसद में त्वरित और विस्तृत चर्चा होनी चाहिए।
समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेंद्र यादव ने साफ तौर पर कहा कि “अडानी का मुद्दा संभल जैसी घटनाओं के मुकाबले उतना गंभीर नहीं है,” और “हमारे लिए किसानों की समस्याएं और संभल हिंसा का मुद्दा ज्यादा अहम है।” यही स्थिति तृणमूल कांग्रेस की भी है, जिसने महंगाई, बेरोजगारी, उर्वरक की कमी और मणिपुर हिंसा जैसे मसलों को प्राथमिकता दी है।
विपक्षी दलों की आपसी असहमति
विपक्षी दलों के बीच इस समय एकता का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। हालांकि ये सभी दल सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, लेकिन उनके भीतर अडानी मुद्दे पर मतभेद उभरकर सामने आ रहे हैं। कांग्रेस ने इस मुद्दे को सर्वोपरि मानते हुए संसद में उठाने की पूरी कोशिश की है, जबकि अन्य विपक्षी दलों का दृष्टिकोण अलग है। इससे यह साफ है कि विपक्ष की एकजुटता में गहरे मतभेद हैं, जो आगे चलकर उनके प्रदर्शन और प्रभावी संघर्ष के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकते हैं।
विपक्षी नेताओं की बैठक और संवाद की कमी
सोमवार को संसद की कार्यवाही से पहले इंडिया ब्लॉक के नेताओं की एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी मौजूद थे। हालांकि, इस बैठक में तृणमूल कांग्रेस का कोई भी सांसद शामिल नहीं हुआ, जो विपक्षी दलों के बीच संवाद की कमी को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। यह भी दर्शाता है कि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों के बीच पहले जैसी एकजुटता अब नजर नहीं आती।
रेणुका चौधरी का बयान और विवाद
कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी का एक बयान इस समय विवादों का कारण बन गया है। उन्होंने कहा, “सदन की कार्यवाही चलाना हमारी जिम्मेदारी नहीं है, यह कुर्सी पर बैठे लोगों की जिम्मेदारी है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि “अगर वे सक्षम हैं तो सदन चलाएंगे, अगर वे नालायक हैं तो नहीं चलाएंगे।” यह बयान सरकार और विपक्ष के बीच के गतिरोध को और अधिक गहरा कर रहा है। चौधरी के इस बयान ने संसद के भीतर और बाहर बहस का एक नया दौर शुरू कर दिया है, क्योंकि यह बयान विपक्ष की रणनीति और उनके दृष्टिकोण को चुनौती देता है।
संसद के शीतकालीन सत्र में अडानी मुद्दे को लेकर जो गतिरोध और विरोध देखा जा रहा है, वह विपक्ष की एकजुटता की कमी को उजागर करता है। जहां कांग्रेस इस मुद्दे को प्राथमिकता दे रही है, वहीं अन्य विपक्षी दलों का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं और मणिपुर जैसे मुद्दों पर है। इस स्थिति से यह साफ हो जाता है कि विपक्षी दलों के बीच सहयोग की कमी एक बड़ी बाधा बन सकती है, जो उनके संघर्ष को कमजोर कर सकती है।
यह संकट सिर्फ विपक्ष की एकजुटता को चुनौती नहीं दे रहा, बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संसद की कार्यवाही को भी प्रभावित कर रहा है। ऐसे में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि क्या विपक्ष अपनी असहमति को सुलझा पाता है और आगामी दिनों में संसद की कार्यवाही किस दिशा में बढ़ती है।
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