नवरात्री के पहले दिन अग्रसेन जयंती मनाई जाती हैं। इस बार यह जयंती 7 अक्टूबर को मनाई जाएगी। महाराज अग्रसेन, अग्रवाल अर्थात वैश्य समाज के जनक कहे जाते हैं। उनका जन्म द्वापर युग के अंत और कलयुग के प्रारंभ में हुआ था। वह भगवान श्री कृष्ण के समकालीन थे।
महाराजा अग्रसेन का जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा वल्लभ सेन के यहां हुआ था जो प्रतापनगर के राजा थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ सेन से कहा था कि तुम्हारा ये पुत्र राजा बनेगा। इसके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा। मान्यता के अनुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की 34वीं पीढ़ी में द्वापर के अंतिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से 5000 वर्ष पूर्व हुआ था। यह भी कहा जाता है कि उनका जन्म विक्रम संवत प्रारंभ होने के करीब 3130 साल पहले हुआ था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र थे। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी माता का नाम भगवती था।
बचपन से ही मेधावी एवं अपार तेजस्वी अग्रसेन जी अपने पिता की आज्ञा से नागराज कुमुट की कन्या ‘माधवी’ के स्वयंवर में गए। राजकुमारी ने युवराज अग्रसेन के गले में वरमाला डालकर उनका वरण किया। इसे देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा और वह इनसे कुपित हो गए जिससे इनके राज्य में सूखा पड़ गया और जनता में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रजा के कष्ट निवारण के लिए अग्रसेन जी ने अपने आराध्य देव शिव की उपासना की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इन्हें वरदान दिया तथा प्रतापगढ़ में सुख-समृद्धि एवं खुशहाली लौटाई।
धन-संपदा और वैभव के लिए महाराजा अग्रसेन ने महालक्ष्मी की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया। महालक्ष्मी जी ने उन्हें गृहस्थ जीवन का पालन करके अपने वंश को आगे बढ़ाने का आदेश देते हुए कहा कि तुम्हारा यही वंश कालांतर में तुम्हारे नाम से जाना जाएगा।
कहते हैं कि महाभारत के युद्ध के समय महाराज अग्रसेन 15 वर्ष के थे। युद्ध हेतु सभी मित्र राजाओं को दूतों द्वारा निमंत्रण भेजे गए थे। पांडव दूत ने वृहत्सेन की महाराज पांडु से मित्रता को स्मृत कराते हुए राजा वल्लभसेन से अपनी सेना सहित युद्ध में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया था। महाभारत के इस युद्ध में महाराज वल्लभसेन अपने पुत्र अग्रसेन तथा सेना के साथ पांडवों के पक्ष में लड़ते हुए युद्ध के 10वें दिन भीष्म पितामह के बाणों से बिंधकर वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके पश्चात अग्रसेन जी ने ही शासन की बागडोर संभाली।
महाराजा अग्रसेन की राजधानी अग्रोहा थी। महाराजा अग्रसेन समानता पर आधारित आर्थिक नीति को अपनाने वाले संसार के प्रथम सम्राट थे। राज्य में बसने की इच्छा रखने वाले हर आगंतुक को, राज्य का हर नागरिक उसे मकान बनाने के लिए ईंट, व्यापार करने के लिए एक मुद्रा दिए जाने की राजाज्ञा महाराजा अग्रसेन ने दी थी। उस युग में न लोग बुरे थे, न विचार बुरे थे और न कर्म बुरे थे। राजा और प्रजा के बीच विश्वास जुड़ा था। वे एक प्रकाश-स्तंभ थे, अपने समय के सूर्य थे। सभी ने मिल जुलाकर महान अग्रोहा समाज की स्थापना भी की।
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उनके 18 पुत्र हुए जिनसे 18 गोत्र चले। अपने प्रत्येक बच्चों के गुरु के नाम से 18 गोत्रों गर्ग, गोयल, गोयन, बंसल, कंसल, सिंघल, मंगल, जिंदल, तिंगल, ऐरण, धारण, मुधुकुल, बिंदल, मित्तल, तायल, भंदल, नागल, कुच्छल की स्थापना की। अग्रोहा राज्य की 18 राज्य इकाइयां थीं। प्रत्येक राज्य की इकाई को एक गोत्र से अंकित किया गया था। उस विशेष राज्य इकाई के सभी निवासियों की उस गोत्र द्वारा पहचान की गई। भगवान अग्रसेन ने ऐलान किया कि वैवाहिक गठबंधन एक ही गोत्र में नहीं हो सकता है।
महाराजा अग्रसेन ने 18 यज्ञ किए। इन यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। 18वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न मांस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा।
महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्मग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्मक्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से 3 आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। उनकी दंडनीति और न्यायनीति आज प्रेरणा है। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे अग्रोहा गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए।
वर्तमान के राजस्थान व हरियाणा राज्य के मध्य सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। अग्रसेन वहीं के राजा थे। बाद में इन्होंने अग्रोहा नामक नगरी बसाई थी, जो आज एक प्रसिद्ध स्थान हैं।
भगवान अग्रसेन का भगवा ध्वज अहिंसा और सूर्य का प्रतीक है तथा सूर्य की 18 किरणें 18 गोत्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं। ध्वज में चांदी के रंग की एक ईंट और एक रुपया वैभव, भाईचारे एवं परस्पर सहयोग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
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