पूरे देश में नवरात्रि का त्योहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। मां की आराधना करने के लिए पूरे 9 दिनों का उपवास रखा जाता हैं। जगह-जगह पर मां के पंडाल लगाए जाते हैं और कई जगहों पर तो गरबा का आयोजन भी किया जाता है। नवरात्रि शुरू होते ही लोगों के बीच बधाइयों का तांता भी लग जाता है। शारदीय नवरात्र में देवी दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा-अर्चना प्रतिदिन विधि-विधान से होती है। प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा- अर्चना की जाती है।
नवरात्र दो ऋतुओं के संधिकाल में स्वयं को तराशने व निखारने वाला बेहद विलक्षण और अदभुत नौ दिवसीय महापर्व है। अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक का यह महापर्व मनुष्य की आंतरिक ऊर्जाओं के भिन्न-भिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती है। इनको ही मान्यताएं नौ प्रकार की या देवियों की संज्ञा देती है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री, ये दरअसल किसी अन्य लोक में रहने वाली देवी से पहले मनुष्य की अपनी ही ऊर्जा के नौ निराले रूप हैं।
नवरात्रि के प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा- अर्चना की जाती है। मां शैलपुत्री सौभाग्य की देवी हैं। उनकी पूजा से सभी सुख प्राप्त होते हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण माता का नाम शैलपुत्री पड़ा। माता शैलपुत्री का जन्म शैल या पत्थर से हुआ, इसलिए इनकी पूजा से जीवन में स्थिरता आती है। मां को वृषारूढ़ा, उमा नाम से भी जाना जाता है। उपनिषदों में मां को हेमवती भी कहा गया है।
शैलपुत्री अपनें अस्त्र त्रिशूल की भाँति हमारे त्रीलक्ष्य, धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ मनुष्य के मूलाधार चक्र पर सक्रीय बल है। मूलाधार में पूर्व जन्मों के कर्म और समस्त अच्छे और बुरे अनुभव संचित रहते हैं। यह चक्र कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र प्राणी का प्रारब्ध निर्धारित करता है, जो अनुत्रिक के आधार में स्थित तंत्र और योग साधना की चक्र व्यवस्था का प्रथम चक्र है। यही चक्र पशु और मनुष्य के बीच में लकीर खींचता है। यह मानव के subconscious mind यानी अचेतन मन से जुड़ा है। इस चक्र का सांकेतिक प्रतीक चार दल का कमल अंतःकरण यानी मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार द्योतक हैं।
वृषभ पर आसीन के दाहिने हाथ में त्रिशूल जो धर्म, अर्थ और मोक्ष के द्वारा संतुलन का प्रतीक है, शैलपुत्री के लक्ष्य को स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित करता है। बाएँ हाथ में सुशोभित कमल-पुष्प कीचड़ यानी स्थूल जगत में रह कर उससे परे रहने का संकेत देता है। मनुष्य में प्रभु की अपार शक्ति समाहित है शैलपुत्री उसका व्यक्त संकेत है। देह में यह शक्ति इस चक्र के आवरण में आवरण में अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर रही है।
कभी प्रजापति दक्ष की कन्या सती के रूप में प्रकट शैलपुत्री मूलाधार मस्तिष्क से होते हुए सीधे ब्रह्मांड का प्रथम सम्पर्क सूत्र है । यदि देह में शैलपुत्री को जगा लिया जाए तो संपूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करने वाली शक्ति शनैः शनैः देह में प्रकट होने लगती हैं। फलस्वरूप व्यक्ति विराट ऊर्जा में समा कर मानव से महामानव के रूप में तब्दील हो जाता है। शैलपुत्री की सक्रियता से मन और मस्तिष्क का विकास होने लगता है।अंतर्मन में उमंग और आनन्द व्याप्त हो जाता है। इनका जागरण न होने से मनुष्य विषय-वासनाओं में लिप्त होकर सुस्त, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित होकर थका थका सा दिखाई देता है।
वस्तुतः शैलपुत्री मनुष्य के कायाकल्प के द्वारा सशक्त और परमहंस बनाने का प्रथम सूत्र है। स्वयं में ध्यान-भजन के द्वारा इनकी तलाश देह में काम को संतुलित करके बाहर से चट्टान की शक्ति प्रदान करती है। मानसिक स्थिरता देती है।
शैलपुत्री मां की आरती-
शैलपुत्री मां बैल सवार। करें देवता जय जयकार।
शिव शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिमा किसी ने न जानी।
पार्वती तू उमा कहलावे। जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू। दया करे धनवान करे तू।
सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती जिसने उतारी।
उसकी सगरी आस जा दो। सगरे दुख तकलीफ मिला दो।
घी का सुंदर दीप जला के। गोला गरी का भोग लगा के।
श्रृद्धा भाव से मंत्र गाएं। प्रेम सहित शीश झुकाएं।
जय गिरिराज किशोरी अंबे। शिव मुख चंद चकोरी अंबे।
मनोकामना पूर्ण कर दो। भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।
बता दें कि एक साल में कुल 4 बार नवरात्र आते हैं, जिनमें से शारदीय और चैत्र नवरात्रि का महत्व सबसे अधिक होता है। इस साल शारदीय नवरात्र 7 अक्टूबर से शुरू हो रहे हैं, जो 14 अक्टूबर को खत्म होंगे फिर 15 अक्टूबर को विजय दशमी यानी दशहरा मनाया जाएगा। हिंदू पांचांग के अनुसार हर साल आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र की शुरुआत होती है। इस साल चतुर्थी तिथि का क्षय होने से नवरात्र आठ दिनों का ही होगा।
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