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बिहार सरकार ने बीते दो साल में पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप के लिए एक भी आवेदन नहीं लिया है. वहीं राज्य सरकार के वर्ष 2016 में लिए एक फ़ैसले की वजह से इस स्कॉलरशिप का लाभ लेने वाले क़र्ज़ के जाल में फँस गए हैं.
परेशानी में डूबे 25 साल के सुरेश (बदला हुआ नाम) बिहार के समस्तीपुर में रहते हैं. सुरेश की चिंता, उन पर लदा क़र्ज़ है जो उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए लेना पड़ा था.
किसान परिवार से आने वाले सुरेश ने साल 2015 मे पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप बिहार सरकार से ली थी. उस वक़्त इस स्कीम के तहत अनुसूचित जाति/ जनजाति के छात्रों को मैट्रिक के बाद मान्यता प्राप्त संस्थान से आगे की पढ़ाई करने पर पूरी फ़ीस सरकार चुकाती थी.
लेकिन साल 2016 में बिहार सरकार ने इस पर ‘कैप’ लगा दिया यानी सरकार ने पढ़ाई पर ख़र्च की एक सीमा निर्धारित कर दी.
सुरेश ने बीबीसी हिन्दी को बताया, “साल 2015 से 2019 तक मेरा प्रत्येक साल ख़र्च 1,65,800 रूपए था. लेकिन सरकार ने पहले साल 52,000 दिए और चौथे साल तक ये कम होते होते सिर्फ़ 15,000 रह गया. मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए गांव के महाजन से 100 रूपए पर 10 रूपए के सूद की दर से क़र्ज़ लेना पड़ा जो आज तक किसी तरह चुका रहा हूं.”
साल 2019 में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सुरेश बेरोज़गार हैं और उनके दो भाई अब बिहार सरकार की ‘स्टूडेंट क्रेडिट स्कीम’ की सहायता से पढ़ाई कर रहे हैं. वो कहते हैं, “सरकार को पूरा पैसा नहीं देना था तो पहले बता देती. हम लोग पढ़ाई ही नहीं करते.”
क्या है पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप?
पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों को दसवीं परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए आर्थिक सहायता देती है. किसी भी मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थान में पढ़ाई का पूरा ख़र्च सरकार उठाती है. ये स्कॉलरशिप उन छात्रों को मिलती है जिनके परिवार की सालाना आय ढाई लाख रुपये से कम हो.
ये एक केन्द्र प्रायोजित योजना है जिसे अमल में राज्य सरकार लाती है. इसमें सालाना ‘कमीटेड लाइबेलिटी’ फ़ंड 115 करोड़ रुपये का होता था, जिसके ऊपर ख़र्च होने पर केन्द्र सरकार, बिहार राज्य को फ़ंड करती थी.
ये ‘कमीटेड लाइबेलिटी फ़ंड’ प्रत्येक राज्य के ख़र्च के मुताबिक़ निर्धारित किया जाता था. हालांकि अब इस फ़ंडिंग पैटर्न में बदलाव हुआ है. अब अनुसूचित जाति के छात्र के मामले में ये 60:40 और अनुसूचित जनजाति के छात्र के मामले में 75:25 केन्द्रांश और राज्यांश है.
ग्वालियर के मालवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के छात्र रंजीत की पढ़ाई पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप स्कीम की वजह से हिचकोले खाती रही.
रंजीत ने बीबीसी को बताया, “हमसे बिहार सरकार ने कहा कि आप मन लगाकर पढ़िए, फ़ीस की चिंता मत कीजिए. लेकिन कॉलेज के पूरे सत्र में साल 2014 से 2018 तक मुझे फ़ीस के चलते कभी हॉस्टल से निकाला गया, कभी परीक्षा नहीं देने दी और अभी भी चूंकि कॉलेज की पूरी फ़ीस नहीं भरी गई है तो कॉलेज ने मेरे सारे डॉक्यूमेंट रख लिए हैं.”
बिहार में अनुसूचित जाति/ जनजाति से आने वाले लाखों नौजवानों की हालत सुरेश और रंजीत जैसी है. पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना पर बिहार सरकार का रवैया इन छात्रों की बदहाली की वजह है.
2019 से 2021 का अब तक नहीं लिया आवेदन
बिहार सरकार ने बीते दो साल (2019-20 और 2020-21) में पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप के लिए एक भी आवेदन नहीं लिया है. वहीं इस सत्र यानी 2021-22 की आवेदन प्रक्रिया भी शुरू नहीं हुई है.
बिहार सरकार के मुख्य सचिव ने पटना हाईकोर्ट में जो हलफ़नामा अगस्त 2021 में दिया था, उसके मुताबिक़ “साल 2018-19 में राज्य ने पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप का फ़ायदा 75,001 छात्रों को दिया है जबकि बाक़ी आवेदकों को लाभ देने की प्रक्रिया जारी है. वहीं साल 2019-20 और 2020-21 के आवेदनों के लिए बिहार सरकार का शिक्षा विभाग एनआईसी की मदद से पोर्टल बनवा रहा है, जिस पर अगस्त 2021 से ही 2019-20 और 2020-21 के लिए आवेदन लिए जाएंगें.”
साल 2016 में आर्थिक सहायता पर कैप
राज्य सरकार ने वित्तीय वर्ष 2016-17 में 16 मई, 2016 को एक आदेश जारी करके पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप के इस प्रावधान में बदलाव कर दिया कि पढ़ाई का सारा ख़र्च सरकार उठाएगी.
सरकार के इस आदेश में स्कॉलरशिप में मिलने वाली आर्थिक सहायता की सीमा तय की गई. यही वजह थी कि जिन छात्रों को पहले ये आश्वासन मिला कि उनकी पढ़ाई का पूरा ख़र्च राज्य सरकार उठाएगी, वो अपनी पढ़ाई पूरा करने के लिए क़र्ज़दार हो गए या फिर उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी.
बिहार सरकार ने जो हलफ़नामा पटना हाईकोर्ट में फ़ाइल किया है, उसमें ये उल्लेख है कि यदि सरकार पढ़ाई का पूरा ख़र्च उठाती है तो ये राज्य सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय भार होगा और फिर पिछड़ा और अति-पिछड़ा छात्रों के लिए भी ऐसे प्रावधान करने पड़ेंगे. हालांकि कैग रिपोर्ट 2018 -19 के मुताबिक़, साल 2018-19 में अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए जो फंड आया, उसमें से बिजली, सड़क, बांध, कृषि बिल्डिंग पर पैसे ख़र्च हुए.
इस मामले में जनवरी 2020 में पटना हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले और यूथ फ़ॉर दलित आदिवासी राइट, बिहार के अध्यक्ष राजीव कुमार ने बीबीसी हिन्दी से कहा, “ये सरकार की अनुसूचित जाति/ जनजाति के छात्रों के ख़िलाफ़ सुनियोजित साज़िश है. पहले 1.5 से 2 लाख छात्र इस स्कीम का फ़ायदा उठाते थे लेकिन सरकार ने इस स्कीम को बर्बाद कर दिया. अब तो आपको नेशनल स्कॉलरशिप पोर्टल पर राज्य योजनाओं में बिहार का नाम भी नहीं मिलेगा. अधिकारी बार-बार कहते हैं कि आवेदन नहीं लेने की वजह तकनीकी है, लेकिन आज तक कुछ समझ नहीं आया.”
वहीं इस मामले को देख रही अधिवक्ता अल्का वर्मा कहती हैं, “सरकार ने इस योजना में कैप लगा दी जबकि संविधान की धारा 338(9) और 338 ए(9) के तहत राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के परामर्श लिए बिना आप ऐसा नहीं कर सकते. हम इसे कोर्ट में चैलेंज करेंगें.”
हालांकि सरकार ने जो हलफ़नामा दिया है, उसमें कहा गया है कि ” ये कोई नीतिगत नहीं बल्कि वित्तीय निर्णय था.”
छात्रों का भविष्य
बिहार की 15 फ़ीसद आबादी अनुसूचित जाति और एक फ़ीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति की है. राज्य सरकार ने साल 2016 में बिहारी छात्रों के लिए स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना भी शुरू की थी.
अख़बार दैनिक जागरण में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ इस स्कीम का फ़ायदा 11 फ़ीसद अनुसूचित जाति और एक फ़ीसद अनुसूचित जनजाति के छात्रों ने उठाया है. वहीं 58 फ़ीसद पिछड़े वर्ग के छात्रों ने इसका लाभ उठाया है.
इस पर राजनीति भी अब शुरू हो गई है.
बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने नीतीश सरकार पर लाखों अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के भविष्य को बर्बाद करने का आरोप लगाते हुए कहा है, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की काल कोठरी के अधिकारी वंचित वर्गों की कल्याण संबंधित योजनाओं के धुर विरोधी हैं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पोर्टल संबंधित तकनीकी ज्ञान नहीं है. हमारी माँग है कि अविलंब छात्रवृत्ति का पैसा ग़रीब छात्रों में बांटा जाए.” साभार-बीबीसी न्यूज़ हिंदी
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