Reservation in India: आरक्षण नीति की हो समग्र समीक्षा, मामले पर बने व्यावहारिक सहमति

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केंद्रीय कैबिनेट द्वारा ओबीसी से जुड़े विधेयक को मंजूरी मिलने के बाद आरक्षण की बहस एक बार फिर से चर्चा में है। पिछड़ा वर्ग की पृथक गणना कराने तथा जनसंख्या के अनुरूप शिक्षा व नौकरी में आरक्षण देने की मांग भी तेज हो गई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली केंद्रीय कैबिनेट ने ओबीसी आरक्षण से जुड़े संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। आने वाले दिनों में केंद्र सरकार संसद में इससे जुड़े विधेयक को प्रस्तुत करेगी। विधेयक पारित होने के बाद राज्यों को केंद्र सरकार से इतर अपने हिसाब से ओबीसी सूची बनाने का अधिकार मिल जाएगा।

दरअसल ओबीसी आरक्षण से जुड़ा संविधान संशोधन विधेयक इसलिए लाना पड़ा, क्योंकि इसी वर्ष मई में देश की शीर्ष अदालत ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची तैयार करने पर राज्यों के अधिकार पर रोक लगा दी थी। मालूम हो कि राज्य सरकारें ओबीसी की सूची का निर्धारण खुद करती हैं, जबकि केंद्रीय सेवाओं के लिए केंद्र अलग से करता है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के लिए वर्ष 2018 में संविधान में 102वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 342ए लाया गया था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने तीन-दो के बहुमत से 102वें संशोधन को सही ठहराया था।

बहुमत से 102वें संविधान संशोधन को वैध करार दिया, किंतु कोर्ट ने कहा कि राज्य सामाजिक व आíथक रूप से पिछड़े वर्ग (एसईबीसी) की लिस्ट तय नहीं कर सकते, बल्कि केवल राष्ट्रपति उस लिस्ट को अधिसूचित कर सकते हैं। अब केंद्र सरकार ने संशोधित विधेयक में अनुच्छेद 342ए में एक संशोधन किया है जिसके तहत राज्य सरकारों को संबंधित राज्य सूचियों में शामिल करने के लिए ओबीसी या सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गो की पहचान करने की शक्ति दी है।

भारत में विभिन्न शोधों और अध्ययनों में यह बात समय-समय पर सामने आती रही है कि ओबीसी में ऐसी अनेक जातियां-उपजातियां हैं जिन तक आरक्षण का लाभ समुचित रूप से नहीं पहुंच पा रहा है। कुछ जातियां आरक्षण का लाभ लेने में आगे हैं और अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में पहुंच गई हैं, जबकि पिछड़े समाज में एक बड़ा तबका शैक्षणिक रूप से काफी पिछड़ा है। केंद्र सरकार ने इसी को ध्यान में रखते हुए अक्टूबर 2017 में रोहिणी आयोग का गठन किया था। यह आयोग पिछड़ा वर्गो में ऐसे समूहों का पता लगाएगा जिनको आरक्षण का लाभ पर्याप्त रूप से नहीं मिल पा रहा है और साथ ही वे समूह जिन तक आरक्षण का लाभ सिमटकर रह गया है। इससे आरक्षण का मूल उद्देश्य अर्थात सामाजिक, आíथक व राजनीतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जब मई 2021 में अपने एक फैसले में राज्यों की ओबीसी सूची को ही गलत बता दिया था, तब रोहिणी आयोग ने राज्यों के साथ आरक्षण पर चर्चा की अपनी पूरी योजना को टाल दिया था। अब केंद्र सरकार के नए संविधान संशोधन विधेयक लाने के बाद राज्यों के साथ यह आयोग पुन: चर्चा शुरू कर सकेगा।

आरक्षण का वर्गीकरण : ओबीसी आरक्षण के वर्गीकरण की आवश्यकता इस धारणा से उत्पन्न होती है कि ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल कुछ ही संपन्न समुदायों को 27 प्रतिशत आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त होता है। केंद्र सरकार की नौकरियों और विश्वविद्यालय में प्रवेश में विभिन्न ओबीसी समुदायों के प्रतिनिधित्व तथा उन समुदायों की आबादी की तुलना करने के लिए आवश्यक डाटा की उपलब्धता अपर्याप्त है। सनद रहे कि वर्ष 2021 की जनगणना ओबीसी समुदाय से संबंधित डाटा एकत्र करने को लेकर घोषणा की गई थी। हालांकि इस संबंध में अभी तक कोई आम सहमति नहीं बन पाई है।

वर्ष 2018 में, रोहिणी आयोग/ ओबीसी वर्गीकरण आयोग ने पिछले पांच वर्षो में ओबीसी कोटा के तहत दी गई केंद्र सरकार की 1.3 लाख नौकरियों का विश्लेषण किया था। आयोग ने पूर्ववर्ती तीन वर्षो में विश्वविद्यालयों, आइआइटी, एनआइटी, आइआइएम और एम्स समेत विभिन्न केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ओबीसी प्रवेशों से संबंधित आंकड़ों का विश्लेषण किया था। आयोग के मुताबिक, ओबीसी के लिए आरक्षित सभी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों की सीटों का 97 प्रतिशत हिस्सा ओबीसी के रूप में वर्गीकृत सभी उप-श्रेणियों के केवल 25 प्रतिशत हिस्से को प्राप्त हुआ। उपरोक्त नौकरियों और सीटों का 24.95 प्रतिशत हिस्सा केवल 10 ओबीसी समुदायों को प्राप्त हुआ। नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में 983 ओबीसी समुदायों (कुल का 37 प्रतिशत) का प्रतिनिधित्व शून्य है। विभिन्न भíतयों एवं प्रवेश में 994 ओबीसी उप-जातियों का कुल प्रतिनिधित्व केवल 2.68 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व है। वर्ष 2019 के मध्य में आयोग ने यह सूचित किया कि उसका मसौदा रिपोर्ट (उप-वर्गीकरण पर) तैयार है। यह माना जाता है कि इस रिपोर्ट के गहरे राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं।

क्या हो आगे की राह : इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था कुछ ऐसी है कि ओबीसी समुदाय में आने वाली कुछ जातियां ओबीसी में ही शामिल कुछ अन्य जातियों से सामाजिक और आíथक दोनों ही रूपों में बेहतर स्थिति में हैं। दरअसल, मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था तो कर दी गई, लेकिन ओबीसी में ही अत्याधिक कमजोर वर्ग के लिए कुछ विशेष नहीं किया गया। यदि इस संदर्भ में थोड़ा और गहराई से विचार करें तो हम पाएंगे कि मंडल आयोग से पहले भी आरक्षण के संबंध में लोगों की बहुत-सी शिकायतें थीं, लेकिन आयोग की सिफारिशों के बाद से इन शिकायतों ने गंभीर संघर्ष या उथल पुथल का रुख धारण कर लिया।

हाल के वर्षो में देश के विभिन्न हिस्सों में कई समुदायों द्वारा (इनमें कई प्रभावशाली और हाशिये पर खड़े समुदाय भी शामिल हैं) ओबीसी आरक्षण की मांग हेतु आंदोलन करने की घटनाएं सामने आईं। इसमें गुजरात के पाटीदार, राजस्थान के गुज्जर, हरियाणा के जाट और सबसे हालिया महाराष्ट्र के मराठा समुदाय जैसे प्रभावशाली समुदाय का आंदोलन शामिल है। कई आधिकारिक आंकड़ों ने इस तथ्य की ओर इशारा किया कि ओबीसी को प्रदत्त आरक्षण ने गरीबों को सशक्त करने में अहम भूमिका निभाई है।

पिछले दो दशकों के दौरान एक चिंता यह भी उभर कर सामने आई कि ओबीसी आरक्षण का लाभ भी ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखने वाली कुछ ताकतवर जातियों के हाथों में ही सिमटकर रह गया है। ऐसे में ओबीसी वर्ग के अंदर ही वर्गीकरण की मांग लगातार की जाती रही है और अब तक नौ राज्यों- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने पहले ही ओबीसी वर्गीकरण को लागू कर दिया है। ओबीसी आरक्षण से संबंधित केंद्रीय सूची में इस प्रकार के वर्गीकरण की व्यवस्था नहीं की गई है। हालांकि पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का फैसला कर चुकी सरकार ने अब ओबीसी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था कर उन पिछड़ी जातियों को राहत देने की तैयारी की है, जिन्हें आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पाता है। वैसे बेहतर यही होगा कि ओबीसी जातियों के उपवर्गीकरण की दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही आरक्षण की बढ़ती मांगों का भी कोई समाधान निकालने की कोशिश हो। केंद्र तथा राज्य सरकारों को ओबीसी और एससी/ एसटी समुदाय के जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ न मिलने की चिंता होनी चाहिए। सरकार की ये जिम्मेदारी है कि वे समय-समय पर इसकी समीक्षा करें, ताकि इस वर्ग के जरूरतमंद लोगों को आरक्षण का लाभ मिले और संपन्न या सक्षम लोग इसे न हड़पें।

केंद्र सरकार द्वारा ओबीसी आरक्षण से जुड़े हाल ही में दो बड़े फैसलों के बाद यह सवाल फिर इंटरनेट मीडिया पर चर्चा का विषय बन गया है कि जाति के आधार पर आरक्षण होना चाहिए या नहीं! दूसरे शब्दों में कहें तो क्या जनसंख्या के एक वर्ग विशेष को आरक्षण देने का आधार ‘जाति’ अथवा ‘वर्ग’ होना चाहिए या नहीं? इस प्रश्न के जवाब में लंबे समय से कभी भावनात्मक तो कभी मजबूत प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती रही हैं। लोग पूर्वाग्रह से ग्रस्त विचार और पक्ष लेकर बहस में शामिल होते हैं और शायद ही कभी अपना मत बदलते हैं, यही वजह है कि देश में अभी भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि आरक्षण एक आवश्यक और उपयोगी नीति है। इस प्रश्न के संदर्भ में बहुत-से लोगों का विचार है कि आरक्षण के मानदंड के रूप में केवल आíथक पिछड़ेपन को ही आधार बनाया जाना चाहिए, जबकि कुछ लोगों का विचार यह है कि इसमें सामाजिक पिछड़ेपन को भी शामिल किया जाना चाहिए। जबकि हमें आरक्षण को और अधिक महत्वपूर्ण एवं तटस्थ होकर देखने की जरूरत है। जहां एक ओर इसने कई वर्गो को लाभान्वित किया है, वहीं यह एक सीमित रियायत भी है जो हाशिये पर खड़े लोगों को सामाजिक और आíथक असमानता से मुक्त कर मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास करता है।

स्वतंत्रता के बाद सात दशकों में आरक्षण सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा बना रहा है। विडंबना यह है कि भारत में उद्यमिता का अभाव दिखाई पड़ता है, ऐसे में हर कोई सरकारी नौकरी की तरफ देखता है और अपनी सुविधानुसार आरक्षण की व्याख्या करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में सामाजिक सहभागिता को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण की नितांत आवश्यकता है, किंतु एक सच यह भी है कि आरक्षण के उद्देश्यों के बारे में अधिकांश लोग अनजान हैं। आज जरूरत इस बात की है कि लोगों को आरक्षण की ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने में मदद की जाए। भारत की जातीय, लैंगिक और क्षेत्रीय विविधताओं के बारे में बच्चों को बताया जाए और आरक्षण के लिए व्यावहारिक सहमति बनाई जाए। हमें यह समझने की जरूरत है कि आजादी के सात दशक बाद भी आरक्षण का समुचित लाभ वंचित तबकों तक नहीं पहुंचा पाया है, ऐसे में बिना समुचित क्रियान्वयन के अनेक प्रकार के प्रविधान किए जाने का कोई औचित्य नहीं है। हमें कौशल और प्रतिस्पर्धा बढ़ाने पर भी जोर देना होगा। इसके लिए भारत में शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता है, ताकि समाज के सभी वर्गो के लिए एक ऐसा मंच तैयार किया जा सके जहां हम बिना किसी किंतु-परंतु के अवसर की समानता की बात कर सकें।

[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय] – साभार- दैनिक जागरण

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