अभी हाल ही में अमेरिका से यह खबर आई थी कि वहां 2020 में बायोमेडिकल क्षेत्र में पेटेंट हासिल करने वाले इनवेंटर्स में सिर्फ 12.8% औरतें हैं. इस सिलसिले में हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की एक स्टडी की याद आती है जिसमें कहा गया था कि अगर महिला बायोमेडिकल इनवेंटर्स की संख्या ज्यादा होगी तो महिलाओं की सेहत में 35% सुधार होगा. कोविड-19 ने महिलाओं की मैन्स्ट्रुअल हेल्थ को जिस तरह प्रभावित किया है, उससे महिला डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और रिसर्चर्स का महत्व खास तौर से समझ आता है. भला औरतों की सेहत का ख्याल रखना, औरतों को ही जरूरी क्यों लगना चाहिए?
कोविड-19 ने औरतों पर कहर ढाया है
कोविड-19 के जो तमाम असर हैं, उनमें से एक असर मैन्स्ट्रुअल हेल्थ पर भी पड़ा है. कोविड से संक्रमित महिलाओं के मैन्स्ट्रुअल साइकिल बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. न्यूज रिपोर्ट्स बताती हैं कि ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं जो कोविड से तो उबर गईं, लेकिन उनके पीरियड्स ने अजीबो गरीब रूप ले लिया है. कइयों को कई कई महीने ब्लीडिंग होती रहती है, तो कोई दर्द से छटपटाती रहती है. ब्लीडिंग हेवी होती है, और खून में क्लॉट्स होते हैं. पीरियड्स स्किप होना भी बहुत आम बात हो रही है. कई बार लड़कियों के मूड स्विंग्स हो रहे हैं. प्रीमैस्ट्रुअल सिंड्रोम भी बदतर होता जा रहा है. पिछले साल सितंबर में रीप्रोडक्टिव बायोमेडिसिन ऑनलाइन में एक स्टडी पब्लिश हुई थी. इसमें कोविड-19 से संक्रमित 177 औरतों को शामिल किया गया था. इसमें 45 महिलाओं ने कहा था कि उनके मैस्ट्रुअल ब्लड की मात्रा में बदलाव हुआ है. 50 ने कहा था कि उनके मैन्स्ट्रुअल साइकिल पर असर हुआ है, जैसे ब्लीडिंग कम हुई है, या पीरियड्स लंबे समय तक होते रहते हैं. स्टडी में यह भी कहा गया कि कोविड संक्रमित हर पांच में से एक महिला के पीरियड्स पर कुछ न कुछ असर जरूर हुआ है.
इसमें दिलचस्प कुछ और भी है. कोविड संक्रमित महिलाओं के मैन्स्ट्रुएशन, सेक्स हार्मोन्स और ओवेरियन रिजर्व्स पर कोविड-19 का क्या असर होता है, इस पर सिर्फ एक स्टडी हुई है. यह स्टडी वुहान, चीन में हुई है. फिलहाल भारत में सोसायटी ऑफ मेन्स्ट्रुअल डिसऑर्डर्स एंड हाइजीन मैनेजमेंट एक स्टडी कर रहा है. स्टडी सिर्फ इस पर की जा रही है कि औरतों के अनुभव कैसे हैं. कोविड ने उनके मैन्स्ट्रुएशन को कैसे प्रभावित किया है. लेकिन इसकी वजह का पता नहीं लगाया जा रहा. अगर समस्या की वजह पता होगी, तभी इलाज होगा. लेकिन जैसी सच्चाई है, उसके हिसाब से औरतों को बायोमेडिकल साइंस में शामिल ही नहीं किया जाता. अब भी मेडिसिन की दुनिया में डीफॉल्ट शरीर एक पुरुष का शरीर ही होता है.
कोविड ने शरीर को बदला है, यह हम कैसे कह सकते हैं
जाहिर सी बात है, कोविड-19 की वजह से दुनिया भर में लोग तनाव में हैं. एन्जाइटी, स्ट्रेस बढ़ा है और जीवन शैली बदल गई है. इसका असर औरतों के मैन्स्ट्रुअल हेल्थ पर पड़ा है. यह ठीक वैसे ही है, जैसे एकाएक अगर हालात बदल जाते हैं, या कोई गंभीर बीमारी हो जाती है तो औरतों के पीरियड्स पर भी असर होता है. पर ज्यादातर डॉक्टर्स ऐसा मानकर चल रहे हैं. मेडिसिन की दुनिया में सब मानने से काम नहीं चलता. इसे पुख्ता करने के लिए शोध अध्ययन करने पड़ते हैं. लेकिन औरतों पर अध्ययन तभी होते हैं, जब उनकी रीप्रोडक्टिव हेल्थ की बात आती है. जैसे जिका वायरस के समय हुआ था. जिका वायरस के बाद जन्म लेने वाले बच्चों में विकृतियां आने लगीं तब इस बारे में अध्ययन किए गए कि इस वायरस का औरतों पर क्या असर होता है. कुल मिलाकर मेडिकल साइंस में पुरुष सोच औरतों को सिर्फ एक साधन के तौर पर ही देखती है जो आने वाली पीढ़ी को जन्म देती है.
इस पुरुष सोच का नतीजा क्या होता है
कोविड-19 तो हाल की बीमारी है लेकिन औरतों की सेहत पर कई बीमारियां बहुत असर करती रही हैं. अल्जाइमर्स जैसा रोग औरतों को आदमियों से ज्यादा प्रभावित करता है. दुनिया भर में अल्जाइमर्स से ग्रस्त होने वाले लोगों में औरतें दो तिहाई हैं. आदमियों के मुकाबले उन पर हार्ट अटैक का असर तीन गुना ज्यादा घातक होता है. औरतों को शारीरिक दर्द की स्थितियों से दो गुना ज्यादा गुजरना पड़ता है. उन्हें फाइब्रोमायल्जिया, क्रोनिक फेटीक सिंड्रोम और क्रोनिक लाइम डिजीज़ ज्यादा होते हैं जिनमें शरीर, मांसपेशियों में भयंकर दर्द होता है. पुरुषों के मुकाबले उनके रूमैटिक अर्थराइटिस होने की आशंका भी तीन गुना ज्यादा है. मल्टीपल स्कलेरिसिस होने की आशंका चार गुना ज्यादा. ऑटोइम्यून से प्रभावित लोगों में 78 प्रतिशत औरतें हैं. इस बीमारी में हमारा इम्यून सिस्टम हमारे शरीर के हेल्थी सेल्स पर ही हमला करने लगता है. लेकिन जैसा कि माया दुसेनबेरी जैसा अमेरिकी पत्रकार की किताब डूइंग हार्म कहती है, बुरी दवाओं और आलसी विज्ञान ने औरतों को नजरंदाज करके बीमार बनाया है. औरतों की बीमारियों पर अलग से काम किया ही नहीं गया. आदमियों के शरीर के हिसाब से बीमारियों के इलाज ईजाद किए गए हैं पर जब लक्षण अलग अलग हों, तो इलाज एक सरीखे कैसे हो सकते हैं.
जैसे हार्ट अटैक का ही मामला ले लेते हैं. इसके साधारण लक्षणों के बारे में हम क्या जानते हैं? इसमें छाती में दर्द होता है, पसीना आता है, बाएं हाथ में दर्द होता है. लेकिन अगर औरतों को हार्ट अटैक होता है तो इनमें से शायद कोई लक्षण दिखाई दें. उनका जी मिचलाता है और पसीना आता है. लेकिन इन लक्षणों पर ध्यान नहीं दिया गया है. इन पर स्टडी नहीं की गई.
अभी लंबी लड़ाई है
हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की स्टडी कहती है कि अगर मेडिकल साइंस में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी तो औरतों की सेहत सुधरेगी, पर यही काफी नहीं है. इसके लिए और सुधार भी करने होंगे. चूंकि ऐसा भी देखने को मिला है कि महिला वैज्ञानिक अपने रिसर्च आइडियाज़ को पुरुष वैज्ञानिकों के मुकाबले 40% कम कमर्शियलाइज करती हैं. इसकी एक वजह यह है कि प्रारंभिक चरण के फीडबैक में उन्हें पूर्वाग्रहों का शिकार होना पड़ता है.
हैरानी नहीं है कि साइंस में नोबल पुरस्कार पाने वाले 97% पुरुष हैं. चूंकि महिला वैज्ञानिकों के साथ लगातार नाइंसाफी होती रही है. अमेरिका की साइंस हिस्टोरियन मार्ग्रेट डब्ल्यू रोसिटर ने 1993 में इसे माटिल्डा इफेक्ट कहा था. माटिल्डा इफेक्ट महिला वैज्ञानिकों के प्रति एक तरह का पक्षपात होता है जिसमें हम उनकी उपलब्धियों को मान्यता देने की बजाय उनके काम का श्रेय उनके पुरुष सहकर्मियों को दे देते हैं. इतिहास में नेटी स्टीवेन्स, मारियन डायमंड ऐसी कई महिला वैज्ञानिक हुई हैं जिनके काम का श्रेय, उनकी बजाय उनके पुरुष साथियों को दिया गया.
कोविड-19 ने इस भेदभाव की तरफ एक बार फिर से ध्यान खींचा है. जरूरत इस बात की है कि औरतों पर इसके असर की रिसर्च की जाए. देखा जाए कि उनकी मैन्स्ट्रुएल हेल्थ कैसे प्रभावित हो रही है. रिसर्च होगी, तभी इसकी वजह पता चलेगी और इलाज ढूंढा जाएगा. वरना, मेडिसिन की दुनिया ग्रीक फिलॉसफर अरस्तू के बताए रास्ते पर चलती रहेगी जो कहा करते थे कि औरतें पुरुषों का बिगड़ा रूप हैं. साभार-एबीपी न्यूज़
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