भारतीय फार्मास्युटिकल कंपनी जायडस कैडिला इसी हफ्ते कोरोना वैक्सीन जायकोव-डी को इमरजेंसी अप्रूवल के लिए सेंट्रल ड्रग्स रेगुलेटर को अप्लाई कर सकती है। अगर इसे मंजूरी मिलती है, तो ये दुनिया की पहली DNA बेस्ड वैक्सीन होगी।
इसके साथ देश में उपलब्ध वैक्सीन की संख्या 4 हो जाएगी। अब तक भारत में सीरम इंस्टीट्यूट की कोवीशील्ड, भारत बायोटेक की कोवैक्सिन और रूस की स्पुतनिक-V इस्तेमाल हो रही हैं।
ये सिंगल डोज वैक्सीन है या डबल?
भारत में अभी लगाई जा रही तीनों वैक्सीन डबल डोज वैक्सीन हैं। वहीं, जॉनसन एंड जॉनसन और स्पुतनिक लाइट जैसी सिंगल डोज वैक्सीन भी हैं, जो आने वाले महीनों में भारत में आ सकती है, लेकिन जायकोव-डी वैक्सीन इन सभी से अलग है। इस भारतीय वैक्सीन के एक या दो नहीं बल्कि तीन डोज लगाए जाएंगे।
फेज-1 और फेज-2 के ट्रायल के दौरान तीन डोज लगाने पर ये वैक्सीन ज्यादा समय तक इम्यूनिटी को स्ट्रॉन्ग रखती है। हालांकि कैडिला इसके दो डोज की भी टेस्टिंग कर रही है। इससे जुड़े नतीजे भी जल्द आ सकते हैं।
इस वैक्सीन को लगाने का तरीका भी बाकी वैक्सीन से अलग है क्या?
हां, जायकोव-डी एक निडिल फ्री वैक्सीन है। ये जेट इंजेक्टर से लगेगी। जेट इंजेक्टर का इस्तेमाल अमेरिका में सबसे ज्यादा होता है। इससे वैक्सीन को हाई प्रेशर से लोगों की स्किन में इंजेक्ट किया जाता है। वहीं, आमतौर पर जो निडिल इंजेक्शन यूज होते हैं, उनसे फ्लूड या दवा मसल्स में जाती है। जेट इंजेक्टर में प्रेशर के लिए कंप्रेस्ड गैस या स्प्रिंग का इस्तेमाल होता है।
इस डिवाइस का आविष्कार 1960 में हुआ था। WHO ने 2013 में इसके इस्तेमाल की अनुमति दी थी। 2014 से जेट इंजेक्टर अमेरिका में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। इसके साथ ही यूरोप, अफ्रीका और एशिया के कुछ देशों में भी इसका इस्तेमाल होता है।
जेट इंजेक्टर से वैक्सीन लगाने का क्या फायदा है?
सबसे पहला फायदा तो यही है कि इससे लगवाने वाले को दर्द कम होता है, क्योंकि ये आम इंजेक्शन की तरह आपके मसल के अंदर नहीं जाती। दूसरा फायदा ये कि इससे इंफेक्शन फैलने का खतरा निडिल वाले इंजेक्शन की तुलना में काफी कम होता है। फार्मजेट, स्पिरिट इंटरनेशनल, वैलेरिटस होल्डिंग्स, इनजेक्स, एंटरीस फार्मा जैसी कंपनियां जेट इंजेक्टर बनाती हैं।
जायकोव-डी को कब तक अप्रूवल मिल सकता है?
कैडिला इसी हफ्ते जायकोव-डी के इमरजेंसी अप्रूवल के लिए DGCI को आवेदन दे सकती है। वैक्सीन के फेज 3 के ट्रायल का डेटा एनालिसिस लगभग तैयार है। कंपनी ने सरकार को इसकी जानकारी दे दी है। इस वैक्सीन का टेस्ट बड़ों के अलावा 12 से 18 साल के बच्चों पर भी किया जा रहा है। जिन लोगों को पहले से गंभीर बीमारियां हैं, उन पर भी इस वैक्सीन को टेस्ट किया जा रहा है।
जायडस कैडिला के मैनेजिंग डायरेक्टर डॉक्टर शर्विन पटेल ने पिछले दिनों कहा था कि हमें उम्मीद है कि हम जुलाई तक इस वैक्सीन का बड़ी मात्रा में उत्पादन शुरू कर देंगे। साफ है कि कंपनी को इस महीने के अंत तक या फिर जुलाई की शुरुआत में अप्रूवल मिलने की उम्मीद है।
इस वैक्सीन से टीके की जरूरत किस हद तक पूरी हो सकती है?
जायडस कैडिला एक साल में 24 करोड़ डोज के उत्पादन की बात कह रही है। कंपनी की तैयारी ऐसी है कि अप्रूवल मिलने के कुछ ही दिन बाद ये बाजार में आ जाएगी। कंपनी हर महीने 2 करोड़ वैक्सीन का प्रोडक्शन करेगी। इसके साथ ही प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए दूसरे मैन्युफैक्चरर्स से भी बात चल रही है। कंपनी पहले महीने में करीब एक करोड़ डोज बनाएगी। इसके बाद अगले महीने से प्रोडक्शन को डबल कर दिया जाएगा।
कितने दिन पर लगाए जाएंगे जायकोव-डी के तीन डोज?
जायकोव-डी का दूसरा डोज पहले डोज के 28 दिन बाद लगाया जाएगा। वहीं, तीसरा डोज पहले डोज के 56 दिन बाद लगेगा। यानी, हर डोज में 4-4 हफ्ते का अंतर रहेगा। जायकोव-डी के तीसरे फेज के ट्रायल के लिए 28 हजार से ज्यादा लोगों को इनरोल किया गया है। इसमें 12 से 18 साल तक के बच्चे भी शामिल हैं।
कैडिला ने देशभर के 20 सेंटर्स पर तीसरे फेज के ट्रायल किए हैं। हर सेंटर पर 12 से 18 साल तक के 20-20 बच्चे भी ट्रायल का हिस्सा थे। ट्रायल में शामिल सेंटर्स की ओर से कहा गया है कि वैक्सीन के बच्चों पर कोई साइड इफेक्ट दिखाई नहीं दिए हैं। उम्मीद है कि जल्द ही देश को बच्चों की पहली वैक्सीन मिल जाएगी।
कहा जा रहा है कि कंपनी जल्द ही 5 से 12 साल के बच्चों पर भी वैक्सीन का ट्रायल कर सकती है। अगर ट्रायल के नतीजे उत्साहजनक रहे तो वैक्सीनेशन का दायरा और बढ़ सकता है।
ये वैक्सीन कैसे काम करती है?
जायकोव-डी एक DNA-प्लाज्मिड वैक्सीन है। ये वैक्सीन शरीर की इम्यूनिटी को बढ़ाने के लिए जेनेटिक मटेरियल का इस्तेमाल करती है। जिस तरह अमेरिका समेत कई देशों में लग रही फाइजर और मॉडर्ना की वैक्सीन इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए mRNA का इस्तेमाल करती हैं, उसी तरह ये प्लाज्मिड-DNA का इस्तेमाल करती है।
mRNA को मैसेंजर RNA भी कह सकते हैं, जो शरीर में जाकर कोरोना वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बनाने का मैसेज देती है। वहीं, प्लाज्मिड इंसानी कोशिकाओं में मौजूद एक छोटा DNA मॉलिक्यूल होता है। ये DNA आम क्रोमोसोम DNA से अलग होता है। प्लाज्मिड-DNA आमतौर पर बैक्टीरियल सेल में पाया जाता है और स्वतंत्र रूप से रेप्लिकेट हो सकता है।
प्लाज्मिड-DNA इंसानी शरीर में जाने पर वायरल प्रोटीन में बदल जाता है। इससे शरीर में वायरस के प्रति मजबूत इम्यून रिस्पॉन्स विकसित होता है। यह वायरस को बढ़ने से रोकता है। अगर कोई वायरस अपना आकार-प्रकार बदलता है, यानी उसमें म्यूटेशन होता है तो इस वैक्सीन को कुछ ही हफ्तों में बदला जा सकता है।
बाकी वैक्सीन की तुलना में इसका रखरखाव ज्यादा आसान है। इसे 2 से 8 डिग्री तापमान पर स्टोर किया जा सकता है। यहां तक कि 25 डिग्री के रूम टेम्परेचर पर भी ये खराब नहीं होती है। इस वजह से इसके रखरखाव के लिए कोल्ड चेन की जरूरत भी नहीं पड़ती है। यहां तक कि कोरोना के नए वैरिएंट के लिए बाकी वैक्सीन की तुलना में इसे आसानी से मॉडिफाई भी किया जा सकता है। साभार-दैनिक भास्कर
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