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प्रथम विश्व युद्ध के पहले फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य का एक ज़िला था. पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य को ब्रिटेन और उसके सहयोगियों से हार का सामना करना पड़ा. पहले विश्व युद्ध के बाद फ़लस्तीन ब्रिटेन के नियंत्रण में आया. पर समस्या इसके बाद और जटिल हो गई. इस इलाक़े में अरबी रहते थे और यहूदी भी रहना चाहते थे.
हज़ारों साल पहले से यहूदियों का इस इलाक़े से ऐतिहासिक और धार्मिक संबंध रहा है. वे मानते रहे हैं कि उन्हें फ़लस्तीनी इलाक़े में रहने का ईश्वरीय हक़ है. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में हज़ारों यहूदी इसराइल बनने से पहले इस इलाक़े में आने लगे थे.
यूरोप और रूस में यहूदियों को यहूदी होने के कारण घोर यातना सहनी पड़ी थी. दूसरे विश्व युद्ध में नाज़ियों का यहूदियों पर अत्याचार के बाद बड़ी संख्या में यहूदी इस इलाक़े में आए.
यहां तक कि यहूदियों पर अरब दुनिया में भी अत्याचार हुआ था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने फ़ैसला किया कि अब फ़लस्तीनी इलाक़े पर संयुक्त राष्ट्र निर्णय करे कि क्या करना है.
संयुक्त राष्ट्र ने फ़लस्तीन को दो देशों में बांटने का सुझाव दिया. एक अरब और दूसरा यहूदियों के लिए. अरबियों ने संयुक्त राष्ट्र की योजना को स्वीकार नहीं किया, लेकिन यहूदी नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए इसराइल की घोषणा कर दी. अमरीकी राष्ट्रपति ने इसराइल की उसी वक़्त मान्यता दे दी.
इसराइल की घोषणा के साथ ही युद्ध शुरू हो गया. महीनों चले युद्ध के बाद इसराइल और अरबी पड़ोसी युद्ध रोकने पर राज़ी हो गए. आगे चलकर एक देश के रूप में इसराइल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलती गई.
इसराइल पूर्वी भूमध्य सागर के आख़िरी छोर पर स्थित है. इसका दक्षिणी छोर लाल सागर तक है. पश्चिम में यह मिस्र से लगता है और पूर्व में जॉर्डन से. लेबनान इसके उत्तर में है और सीरिया उत्तर-पूर्व में.
अभी तक फ़लस्तीन कोई देश नहीं है, लेकिन फ़लस्तीनी पश्चिमी तट और गाज़ापट्टी को मिलाकर एक अलग देश चाहते हैं. इसराइली और फ़लस्तीनी दोनों यरूशलम को राजधानी बनाना चाहते हैं.
अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने यरूशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी थी, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में दुनिया के ज़्यादातर देशों ने इसे ख़ारिज कर दिया.
इसराइल 1948 में बना. 69 साल का इसराइल क्षेत्रफल के मामले में भारत के मणिपुर से भी छोटा है. आबादी भी 85 लाख के आसपास है.
खनिज़ संपदा के मामले में भी इसराइल भारत के सामने कहीं टिकता नहीं है. इसके बावजूद इसराइल का शुमार दुनिया के उन देशों में है, जिनकी तकनीकी और सैन्य क्षमता की मिसाल दुनिया भर में दी जाती है.
यरूशलम पोस्ट के पूर्व संपादक याकोव कात्ज़ ने ‘द वेपन विज़ार्ड्स: हाउ इसराइल बिकम अ हाई-टेक मिलिटरी सुपरपावर’ नाम की एक किताब लिखी है.
यावकोव कात्ज़ ने लिखा है, ”इसराइल के गठन के महज दो साल बाद 1950 में देश का पहला व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल दक्षिणी अमरीका के लिए भेजा गया. इसराइल बिज़नेस पार्टनर के लिए परेशान था. इसराइल के पास उस तरह के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे जिसके आधार पर वो अपनी अर्थव्यवस्था को आकार दे पाता. तब वहां न तेल था और न ही खनिज़ संपदा.”
यावकोव ने लिखा है, ”उस प्रतिनिधिमंडल ने कई बैठकें कीं, लेकिन सबने मज़ाक उड़ाया. इसराइली संतरा, केरोसीन स्टोव और नक़ली दांत बेचने की कोशिश कर रहे थे. अंर्जेंटीना जैसे देशों में संतरा का उत्पादन पहले से ही काफ़ी होता था और वहां बिजली की कमी नहीं थी, इसलिए केरोसीन की भी ज़रूरत नहीं थी. कल्पना करना मुश्किल होता है कि इसराइल पहले निर्यात क्या करता था. आज की तारीख़ में इसराइल हाई-टेक सुपरपावर है और वह दुनिया भर में आधुनिक हथियार बेचने के मामले में काफ़ी आगे है. हर साल वो क़रीब 6.5 अरब डॉलर का हथियार बेचता है.”
यावकोव ने लिखा है, ”1985 तक इसराइल दुनिया भर में सबसे बड़ा ड्रोन निर्यातक देश रहा. उसका ड्रोन का 60 फ़ीसदी वैश्विक मार्केट पर क़ब्ज़ा था. मिसाल के लिए 2010 में पांच नेटो देश अफ़ग़ानिस्तान में इसराइली ड्रोन ही उड़ाते थे. आख़िर जिस देश की उम्र 70 साल भी नहीं हुई है उसने दुनिया की सबसे आधुनिक सेना कैसे तैयार कर ली? इसका जवाब उसकी राष्ट्रीय संरचना में ही निहित है. पहली बात यह कि छोटा देश होने का बावजूद इसराइल अपनी जीडीपी का 4.5 फ़ीसदी शोध पर खर्च करता है.”
इसराइल के बारे में कहा जाता है कि वो अपने देश में नागरिक नहीं सेना तैयार करता है. वहां के हर नागरिक के लिए सेना में सेवा देना ज़रूरी है. पश्चिम के देश मध्य-पूर्व में एक ठिकाने के रूप में इसराइल को सबसे सुरक्षित देश मानते हैं.
यावकोव ने लिखा है, ”2000 में इसराइली एयरफ़ोर्स को पहली ऑपरेशनल एरो मिसाइल बैटरी मिली थी. इस ऑपरेशनल सिस्टम के साथ ही इसराइल दुनिया का पहला देश बन गया था जिसने दुश्मन देश की मिसाइल को रास्ते में ही नष्ट करने क्षमता हासिल कर ली. इसराइल के एरो का आइडिया अपने आप में कमाल का था. इसराइल क्षेत्रफल के मामले में बहुत छोटा देश है जिसके पास ख़ाली ज़मीन का अभाव है. यह बैलिस्टिक मिसाइल की तुलना में काफ़ी प्रभावी है.”
1989 में इसराइल ने अंतरिक्ष में पहला जासूसी उपग्रह छोड़ा. इसके साथ ही इसराइल आठ देशों के उस ख़ास समूह में शामिल हो गया जिनके पास स्वतंत्र रूप से उपग्रह प्रक्षेपण की क्षमता है. शुरुआत में कहा जा रहा था कि इसराइल शायद ही इस क्लब में शामिल हो पाए.
सैन्य ताक़त आज की तारीख़ में इसराइल उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में काफ़ी आगे निकल चुका है. अभी अंतरिक्ष में उसके आठ जासूसी उपग्रह हैं. कहा जाता है कि दुनिया भर में इसराइल के जासूसी उपग्रह का कोई जवाब नहीं है.
इसराइल दुनिया भर में अपने मर्कावा टैंक के लिए भी जाना जाता है. इसे आईडीएफ़ यानी इसराइली डिफेंस फ़ोर्स में 1979 में शामिल किया गया था. इसे पूरी तरह से घर में ही विकसित किया गया है. आईडीएफ़ में क़रीब 1,600 मर्कावा टैंक हैं. इसराइली एयरफ़ोर्स के पास F-15I थंडर लड़ाकू विमान है.
मध्य-पूर्व में F-15I को काफ़ी घातक लड़ाकू विमान माना जाता है. इसमें हवा से हवा में मार करने की क्षमता है. इसराइल के पास जेरिको III परमाणु प्रतिरोधक क्षमता है. जेरिको I बैलिस्टिक मिसाइल को इसराइली सेना में 1970 के दशक में शामिल किया गया. बाद में इसकी जगह जेरिको II ने ली और अब जेरिको III है.
परमाणु शक्ति संपन्न है इसराइल?
पूरी दुनिया में इसराइल, हॉन्ग कॉन्ग और दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था को सबसे स्थिर माना जाता है. ऐसा शून्य मंहगाई दर और बेरोज़गारी में भारी कमी के आधार पर कहा जाता है. इसराइल की कुल जीडीपी 318.7 अरब डॉलर है और उसकी अर्थव्यवस्था की वृद्ध दर लगभग चार फ़ीसदी के आसपास है.
इसराइल आधिकारिक रूप से ख़ुद को परमाणु शक्ति संपन्न देश नहीं कहता है, लेकिन कहा जाता है कि उसने 70 के दशक में परमाणु हथियार हासिल कर लिया था. वॉशिंगटन स्थित संस्था आर्म्स कंट्रोल असोसिएशन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार इसराइल के पास कुल 80 परमाणु हथियार हैं.
अब सवाल उठता है कि क्या भारत इसराइल को उसकी ताक़त के हिसाब से ज़्यादा तवज्जो दे रहा है या भारत की ज़रूरत है? मध्य-पूर्व मामलों के जानकार कमर आगा कहते हैं कि इसराइल के साथ भारत की दोस्ती पारस्परिक है. उन्होंने कहा कि दोनों देशों की अपनी-अपनी ज़रूरते हैं.
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू भारत के छह दिवसीय दौरे पर हैं. किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के लिए छह दिनों का दौरा काफ़ी मायने रखता है.
अमरीका का रास्ता इसराइल होकर… कमर आगा कहते हैं, ”90 के दशक में भारत ने इसराइल के साथ राजनयिक संबंध तब स्थापित किया जब पूरी दुनिया बदल गई थी. सोवियत संघ बिखर चुका था. वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. विचारधारा की राजनीति नेपथ्य में चली गई और आर्थिक गतिविधियों पर आधारित राजनीति को तवज्जो मिलने लगी.”
कमर आगा कहते हैं, ”इसराइल के साथ आप क़रीब आते हैं तो पश्चिमी देशों की सोहबत और आसान हो जाती है. सोवियत संघ के पतन के बाद भारत ने भी अमरीका की तरफ़ रुख़ किया. तब कहा जाता था कि अमरीका का रास्ता इसराइल से होकर जाता है और भारत ने इसी रास्ता को साधा. इसराइल भारत के लिए दो कारणों से काफ़ी अहम है. एक तो उसकी तकनीकी और आतंकवाद से लड़ने की क्षमता और दूसरी पश्चिमी देशों में यहूदियों की तगड़ी लॉबीइंग है. ज़ाहिर है भारत को दोनों चीज़ों की ज़रूरत है.”
‘यहूदी लॉबी का भारत ने उठाया फायदा’ कमर आगा के अनुसार, भारत ने यहूदी लॉबी का पश्चिम में फ़ायदा उठाया है.
उन्होंने, ”भारतीय जनता पार्टी जनसंघ के ज़माने से ही इसराइल का प्रशंसक रही है. जब 1977 में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री तो उसी वक़्त इसराइल के विदेश मंत्री का भारत में एक गोपनीय दौरा हुआ था. जब अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने तो तत्कालीन इसराइल प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन का भारत दौरा हुआ. अब जब मोदी हैं तो चीज़ें बिल्कुल सामने हैं.”
कमर आगा कहते हैं, ”उनके पास टेक्नोलॉजी है और हमारे पास नहीं है. हमें टेक्नोलॉजी की ज़रूरत है. हमारे पास सस्ते मजदूर हैं. ये कम्यूटर चलाना जानते और इन्हें अंग्रेज़ी भी आती है. इसराइल को ऐसे मजदूरों की ज़रूरत है. अगर दोनों देश मिलकर कुछ बनाते हैं तो इसराइल को भारत जैसा विशाल मार्केट मिलेगा.”
आंकड़े क्या कहते हैं? पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल कहते हैं कि भारत की विदेश नीति में अब भी किसी का दबाव काम नहीं करता है. कमर आगा भी कहते हैं भारत इसराइल प्रेम अरब देशों की उपेक्षा नहीं कर सकता है.
इसे वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों से भी समझा जा सकता है. व्यवसाय, सुरक्षा, ऊर्जा और राजनयिक हितों के लिहाज से मध्य-पूर्व भारत के लिए काफ़ी ख़ास है. भारत के वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार 2016-17 में अरब देशों से भारत का व्यापार 121 अरब डॉलर का रहा.
यह भारत के कुल विदेशी व्यापार का 18.25 फ़ीसदी हिस्सा है.
वहीं इसराइल के साथ भारत का व्यापार पांच अरब डॉलर का था जो कि कुल व्यापार का एक फ़ीसदी भी हिस्सा नहीं है. भारत का इसराइल के साथ सुरक्षा संबंध काफ़ी गहरे हैं जबकि अरब के देश रोज़गार, विदेशी मुद्रा और ऊर्जा के लिहाज से काफ़ी अहम हैं.
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