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गुजरात में बीते दस सालों के दौरान हुए अपराध के आंकड़ों से पता चलता है कि हर चार दिन में अनुसूचित जाति की एक महिला के साथ बलात्कार होता है.
यह जानकारी बीबीसी गुजराती के सूचना के अधिकार के इस्तेमाल के ज़रिए मांगी गई जानकारी के जवाब में गुजरात पुलिस मुख्यालय से मिली है. ये आंकड़े सरकार के सुरक्षित गुजरात के दावे के उलट हैं.
महात्मा गांधी के गुजरात में भयावह आकंड़ों के बाद भी राज्य के नेताओं में इसको लेकर चुप्पी दिखती है. सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक नेताओं की चुप्पी संवैधानिक व्यवस्था का मखौल उड़ाने वाली है.
14 अप्रैल को भीमराव अंबेडकर की 130वीं जयंती पर अंबेडकरवादियों ने माना कि भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध का शोक मनाने के सिवा कोई विकल्प नहीं हैं, जबकि अंबेडकर हमेशा महिलाओं की विशेष सुरक्षा के हिमायती रहे.
क़ानूनी तौर पर भारत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों पर अत्याचार को रोकने के लिए भारत में 1989 से ही एससी-एसटी अत्याचार निषेधात्मक क़ानून लागू है. इस क़ानून के तहत विभिन्न नियमों का निर्धारण 1995 में हुआ.
10 दिन में एक एसटी महिला का रेप
इस क़ानून का उद्देश्य अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर दूसरी जाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले अपराधों को रोकना है. विकसित समझे जाने वाले गुजरात में इस क़ानून के बाद भी बीते दस सालों में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले में बढ़ोतरी हुई है.
विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि दूसरे समुदाय के महिलाओं की तुलना में दलित महिलाओं को कहीं ज़्यादा ख़तरे का सामना करना पड़ता है.
आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में गुजरात पुलिस ने बताया है कि बीते दस सालों में अनुसूचित जाति की 814 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई है. इसी समयावधि में अनुसूचित जनजाति की 395 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई है.
अगर इन आंकड़ों को समझने के नज़रिए से देखें तो हर चार दिन में अनुसूचित जाति यानी दलित परिवार की एक महिला के साथ बलात्कार हुआ है जबकि प्रत्येक दस दिन में एक अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी परिवारों की महिला को यह दंश झेलना पड़ा है.
अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के सबसे ज़्यादा मामले अहमदाबाद, राजकोट, बनासकांठा, सूरत और भावनगर में मिले.
अहमदाबाद में दस साल के दौरान 152 मामले देखने को मिले जबकि राजकोट में 96 मामले सामने आए हैं. बनासकांठा, सूरत और भावनगर क्रमश: 49, 45 और 36 मामलों के साथ तीसरे, चौथे और पांचवें पायदान पर हैं.
10 सालों में 395 दलित महिलाओं का बलात्कार
पिछले दस सालों में अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों को देखें तो ये मामले लगभग दोगुने हो गए हैं.
2011 में गुजरात में अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के 51 मामले दर्ज हुए थे. 2020 में ऐसे मामलों की संख्या 102 हो गई है.
अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ-साथ अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ भी बलात्कार के मामलों में तेज़ी देखने को मिली है.
बीते दस सालों में गुजरात में अनुसूचित जनजाति की 395 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है. इन दस सालों में सूरत में सबसे ज़्यादा 50 अनुसूचित जनजाति की महिला के साथ बलात्कार हुआ है, जबकि भरूच में 41, पंचमहल में 25 और साबरकांठा और बनासकांठा में 18-18 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है.
2011 में जहां 27 अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले दर्ज किए गए थे वे 2020 में बढ़कर 46 हो चुके हैं.
दलित कार्यकर्ता चंदू मेहरिया ने दलित महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों की बढ़ती संख्या की वजह बताते हुए कहा, “ये महिलाएं ग़रीब घरों की हैं. सामाजिक स्तर पर इनकी मामूली हैसियत है. महिला होने के साथ साथ दलित होने के चलते भी इनका जीवन कहीं ज़्यादा मुश्किल भरा होता है और उन्हें ख़तरा ज़्यादा होता है.”
दलित महिला अधिक ख़तरे में होती हैं?
गुजरात के सामाजिक कल्याण विभाग के उपनिदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ हसमुख परमार भी मानते हैं कि महिलाओं का दलित होना उनके साथ अपराध होने की आशंका को बढ़ाता है.
उन्होंने बताया, “जैसा कि कहते हैं कि ग़रीब की जोरू, सबकी ग़ुलाम. दलित महिलाओं के सामने ख़तरा ज़्यादा होता है. यह उनके जेंडर और सामाजिक हैसियत के चलते होता है और यह एक तरह से उनकी सामाजिक हत्या है.”
अनुसूचित जनजाति के हितों के लिए काम करने वाली संस्था आनंदी से जुड़ी नीता हार्दिकर का मानना है कि दूसरी महिलाओं की तुलना में दलितों के साथ बलात्कार होने की आशंका ज़्यादा होती है.
इसकी वजहों को बताते हुए नीता ने बताया, “अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की दूसरी महिलाओं की तुलना में सामाजिक हैसियत कितनी कम होती है, ये अपराध करने वाले जानते हैं और यह उनके दिमाग़ में होता है.”
डॉ. हसमुख परमार के मुताबिक ज़्यादातर मामलों में मुक़दमा दर्ज भी नहीं होता है. उन्होंने बताया, “गुजरात के गांवों में आज भी पीड़िता पहले सरपंच के पास जाती है. स्थानीय स्तर पर कई मामले सुलझा लिए जाते हैं. पुलिस और अदालत तक मामला पहुंचता ही नहीं है.”
इस वजह से वास्तविक मामलों के बारे में पता नहीं चल पाता है. नीता हार्दिकर भी इससे सहमत दिखती हैं.
उन्होंने बताया, “जनजातीय इलाकों में पुलिस अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के मामले भी दर्ज नहीं करती. इसके अलावा पितृसत्तात्मक समाज होने के चलते, घर के बड़े बुज़ुर्ग मामले को दर्ज नहीं कराते हैं, उन्हें अपने घर परिवार की चिंता होती है. इसलिए वैसे मामलों की संख्या बहुत ज़्यादा है जो दर्ज नहीं होते हैं.”
गुजरात में अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं की स्थिति
नीता हार्दिकर के मुताबिक अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है. उन्होंने कहा, “अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना की एक बड़ी वजह पलायन भी है.”
गै़र-सरकारी संगठन विकल्प के प्रमुख हिमांश बांकर का भी यही मानना है. अहमदाबाद स्थित मानव विकास अनुसंधान केंद्र से जुड़े महेशभाई बताते हैं, “जनजातीय समुदाय के लोग काम की तलाश में अपने परिवार के साथ पलायन करते हैं. वे किराए पर खेती करते हैं. इन परिवारों की महिलाओं के सामने मुश्किल परिस्थिति होती है, कई बार कांट्रैक्टर और नियोक्ता ही उनके साथ अपराध करते हैं.”
गुजरात महिला आयोग की चेयरपर्सन नीलाबहन अंकोलिया अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय की महिलाओं की सुरक्षा के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताती हैं, “शहरी क्षेत्रों में, यौन उत्पीड़न के मामले तो सामने आ जाते हैं. ग्रामीण और पिछड़े इलाक़ों में ऐसे मामले दर्ज हों, इसकी व्यवस्था की जा रही है. इसके लिए राज्य भर में 270 महिला अदालतें शुरू की गई हैं.”
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकारी कोशिशों के बारे में नीलाबहन बताती हैं, “हम लोगों ने 400 महिलाओं को नियुक्त किया है, जिसमें महिला वकील और स्नातक तक पढ़ी लिखी महिलाएं शामिल हैं. इससे पीड़िता को अदालत से जल्दी न्याय दिलाने में मदद मिलेगी.”
“इसके अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की चार हज़ार स्वयंसेवी बहनों को नियुक्त किया गया है. इससे इन महिलाओं के साथ होने वाले अपराध को कम करने में मदद मिली है.”
गुजरात महिला आयोग की अध्यक्ष नीलाबहन अंकोलिया ने बताया, “अनुसूचित जाति और जनजाति इलाकों में महिला अदालतों में इन्हीं वर्ग की महिलाओं को नियुक्त किया गया है. ताकि महिलाएं अपनी स्थानीय बोली में अपनी शिकायतें दर्ज करा सकें. हमारी कोशिशों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातीय इलाकों में सामान्य छेड़छाड़ की घटनाओं में भी कमी देखी गई है क्योंकि पीड़िता को जल्दी ही क़ानूनी सहायता मिल जाती है और इन प्रावधानों से महिलाओं में जागरूकता भी आयी है.”
पर्याप्त नहीं हैं क़दम
नीता हार्दिकर के मुताबिक गुजरात सरकार के उठाए गए क़दम पर्याप्त नहीं हैं. उन्होंने कहा, “‘टीवी पर सुरक्षित गुजरात के विज्ञापनों और रैलियों में नारे लगाने से राज्य की महिलाओं की स्थिति नहीं सुधरने वाली है. इसके लिए ज़मीन पर काम करने की ज़रूरत है. महिलाओं की समस्याओं को समझने की ज़रूरत है और उस पर तत्काल क़दम उठाने की ज़रूरत है. तभी जाकर स्थिति बेहतर होगी.”
दलित एक्टिविस्ट चंदू मेहरिया का भी मानना है कि ‘सुरक्षित गुजरात’ महज़ एक सरकारी घोषणा है. उनका मानना है कि सरकार पिछड़े राज्यों की तुलना में गुजरात को सुरक्षित मान रही है जो उपयुक्त नहीं है.
द टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिदिन 88 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, इसमें महज़ 30 प्रतिशत मामले में दोषियों को सज़ा मिलती है.
न्यूज़ 18 डॉटकॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक भारत में 2019 में प्रतिदिन दस दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई, इस सूची में 11,829 महिलाओं के साथ उत्तर प्रदेश शीर्ष पर था.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ अत्याचार निषेध क़ानून नौ सितंबर, 1989 को लाया गया था जिसके नियम 31 मार्च, 1995 को लागू किए गए. इस क़ानून में 22 तरह के अपराधों के ख़िलाफ़ प्रावधान बनाए गए हैं. इन अपराधों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को आर्थिक, लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकार नहीं देने की कोशिश से लेकर शोषण, भेदभाव और उत्पीड़न तक शामिल हैं.
इस क़ानून की धारा 14 के तहत ऐसे मामलों की ज़िला अदालतों में तेज़ी से सुनवाई का प्रावधान है. इस दौरान पीड़िता को एफ़आईआर दर्ज कराने से लेकर चार्जशीट दाख़िल करने तक विभिन्न स्तरों में आर्थिक मदद का भी प्रावधान है, लेकिन पीड़िताओं को इस मदद को हासिल करने में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. साभार-बीबीसी न्यूज़ हिंदी
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