ईश्वर की रचनाओं का साथ मिले, तो तनाव दूर होता है। इस रचना में हमारे मूड को बेहतर करने का रसायन है। ये हमारी शारीरिक कोशिकाओं को बेहतर पोषण से जोड़ते हैं। मानसिक तंतुओं को एक टॉनिक मिलता है, जो हमें फिर से ऊर्जा, ताजगी, चैतन्यता देकर हमारी जीवनशक्ति बढ़ा देता है। प्रकृति की रचनाओं के संग सुकून का एहसास होता है। यह तनाव और चिंताओं को दूर करता है और हमारी सोच को सकारात्मक दिशा के साथ कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता है।
इंसान में तनाव बढ़ने का एक सीधा कारण प्रकृति से बढ़ती दूरी है। हमने अपनी दिनचर्या में प्रकृति के विभिन्न अवयवों से खुद को बाहर कर लिया है। इसलिए कई देशों में जड़ों से जुड़ने के लिए नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं और यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया से जुड़े जानकारों का कहना है कि प्रकृति के साथ प्रेम और संपर्क से व्यक्ति का तनाव दूर होता है, और उसमें सृजनात्मक हार्मोन बनता है। प्रकृति के साथ कुछ पल बिताने से व्यक्ति में ताजगी और नई ऊर्जा का संचार होता है। अस्तित्व की विभिन्न रचनाओं से जोड़ने के लिए जापान में फॉरेस्ट बाथ की अवधारणा दी गई है। इसमें इच्छुक व्यक्तियों को जंगल की सैर कराई जाती है। जंगल भ्रमण के दौरान पेड़ों से दोस्ती, तालाब-पोखर से जुड़ाव और हवा, मिट्टी, जंगल के जीवों से प्रेम करना सिखाया जाता है। पेड़ों की गंध और जंगल से आती खुशबू और आवाज, हवा के साथ मोहक सुवास में व्यक्ति को मानसिक स्नान कराया जाता है। प्रकृति की ताजगी से भरपूर हवा को लेकर व्यक्ति अपने फेफड़े को शुद्ध और स्वस्थ बनाता है।
जीवन में जो श्रेष्ठतम है, उसका प्रभाव प्रकृति के समीप आने से मिलता है। मनुष्य प्रकृति का अंग है। अगर हम अपने मूल से नहीं जुड़ेंगे, तो टूट-फूट जाएंगे। प्रकृति को देखना और उसके साथ रहना ही काफी नहीं है। उसको भोगना, महसूस करना और जीवन में उसको उतारना भी पड़ता है। वृक्ष के पास बैठकर संवेदना और करुणा का अनुभव नहीं हुआ, तो हमारी सारी क्रिया बेकार गई। झील के नीचे बैठकर मां के प्यार को महसूस नहीं किया, तो उसका क्या फायदा है? बालू, पानी, जंगल, पहाड़, जीव-जंतु सभी इस प्रकृति के अंग हैं। उनसे हमारा नाता है। उस सनातन संबंध से हमें अपने आप को जोड़ना होगा। हमने फूल से प्रेम नहीं किया, जानवरों से करुणा नहीं दिखाई तो हमारे जीवन में सौंदर्य का अभाव रहेगा। यह बात समझनी होगी कि प्रकृति के पास जाना है, तो स्वभाव को भी प्राकृतिक बनाना होगा।
प्रकृति के सभी तत्वों में सौंदर्य है। हर एक तत्व में रस है। फूल को देखकर अगर भीतर कोई सौंदर्यबोध हुआ, तभी हमारी वहां मौजूदगी सफल होगी। तालाब के किनारे बैठकर भीतर का कोर नहीं भीगा, तो जीवन में शुष्कता का रोना रहेगा ही। हम जो देखते हैं, जिसके साथ रहते हैं, वैसे हो जाते हैं। हम जब भी प्रकृति के समीप जाएं, तो अपने विचारों को छोड़ कर जाएं। और प्रकृति के साथ समय बिताकर लौटें, तो चांद के माधुर्य को अपने साथ ले आएं। तारों से भरे आकाश को रोजाना अपने चिंतन में जीवित रखें। असीम आकाश केवल सिर के ऊपर ही नहीं है, वैसा आकाश हमारे अंदर भी है। उस आकाश का विस्तार ही प्रकृति के साथ साहचर्य को प्रगाढ़ करेगा। साभार-नवभारत टाइम्स
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