पढ़िए दैनिक भास्कर की ये खबर…
नब्बे के दशक की बात है, जब रोम में ड्राइविंग सिखाने वाले 45 वर्षीय शख्स को 18 साल की लड़की से बलात्कार के जुर्म में पकड़ा गया। 6 साल बाद इटली की सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ड्राइवर बेचारा मासूम है और असल गलती तो लड़की की थी, जो चुस्त जींस पहनकर ड्राइविंग सीखने पहुंची। ड्राइवर ने अपने पक्ष में दलील देते हुए कहा कि लड़की ने इतनी कसी हुई जींस पहन रखी थी कि बिना उसकी मर्जी के वो कुछ कर ही नहीं सकता था।
इस दलील के साथ ही मुजरिम बेकसूर हो गया और 18-साला लड़की शातिर, जिसने जानबूझकर एक शादीशुदा अधेड़ पुरुष को फंसाया। दोषी की रिहाई के साथ ही इटली की संसद गुस्से की आग में धुधुआने लगी। वहां स्कर्ट और पैंट जैसी तयशुदा पोशाक छोड़ औरतें जींस में संसद पहुंचने लगीं। वो भी ढीली-ढाली नहीं, बल्कि पैरों के इर्द-गिर्द ऐसे फंसी हुई, जैसे चंदन के पेड़ पर सांप कसे हों।
इटालियन संसद की आग को भारत पहुंचते काफी साल लग गए। बीते तीन दिनों में सोशल मीडिया पर ऐसी ढेरमढेर तस्वीरें उग आईं, जिनमें लड़कियां घुटनों या उससे भी ऊपर फटी हुई जींस पहने हैं। जींस से झांकते ये छेद उस मंत्री के बयान का जवाब हैं, जिन्होंने तीन दिन पहले लड़कियों की जींस पर अजब बयान दे दिया। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत एक सभा में अपने साथ घटे एक हादसे काे बयान कर रहे थे। बात उन्होंने युवाओं के फैशन से शुरू की, जो जाकर रुकी औरतों की जींस पर।
दरअसल एक हवाई यात्रा के दौरान मंत्री जी की मुलाकात ऐसी महिला से हुई, जिसने गमबूट पहने हुए थे, जिसकी जुगलबंदी घुटनों पर से फटी जींस कर रही थी। इतना होता तो भी गनीमत थी, बातचीत के दौरान उन्हें पता चला कि वो दो बच्चों की मां भी है। अब जो मां ढंके हुए कपड़े भी न पहन सके, वो भला बच्चों को क्या संस्कार दे सकेगी! देवभूमि के मंत्री जी का दर्द भरी सभा में छलक पड़ा।
इसके बाद से लड़कियों से लेकर महिला आयोग तक मंत्री महोदय पर बरस पड़े। फटी जींस में लड़कियां दनादन अपनी तस्वीरें डालते हुए उन्हें अपनी सोच को सीने-पिराने की सलाह दे रही हैं। तस्वीरी मुहिम कुछ दिनों में खत्म हो जाएगी। सारी तस्वीरें और आग-लगाऊ कैप्शन भी खप चुके होंगे। शायद मंत्री जी अपने कहे का गलत अर्थ लगाने के बयान भी जारी कर दें। जीवन दोबारा ढर्रे पर आ जाएगा, जहां फटी जींस या तंग कपड़े पहनी औरतों पर भले नेता या एलीट क्लास जबान सी लें, लेकिन सोच वहीं अटकी रहेगी।
केवल नेताओं या पुरुषों की ही नहीं, बल्कि उन लड़कियों की भी, जो विरोध के नाम पर अनजाने ही खुद को कठपुतली बना चुकी हैं। दुनिया के कई हिस्से ऐसे हैं, जहां की औरतें सिर से पैर तक ढंके रहने को अपनी मर्जी का नाम देती हैं। एक जालीदार झिर्री से उनकी आंखें झांकती होती हैं ताकि कामधंधे में कोई रुकावट न आए। वहीं जमीन के ढेरों रक्बे ऐसे हैं, जहां की औरतें आजादी के नाम पर तंग, बेआराम कपड़ों को अपनी च्वॉइस बता रही हैं।
मर्जी के नाम पर साजिश ओढ़ती औरतों की बात पर एक कहानी याद आती है। किस्सा 17वीं सदी के रोम का है। तब वहां कपड़ों को लेकर गुलाम और मालिकों में कोई फर्क नहीं था। दोनों ही चमचमाते-मुलायम कपड़े पहनते। खासकर बाहर निकलने पर कपड़ों से भेद करना मुश्किल था कि कौन मालिक है, कौन गुलाम। ये और बात है कि मालिकों के चेहरे मोम जैसे नरम दिखते, जबकि गुलामों के चेहरे और शरीर चाबुक के घावों से रिसते होते। गुलामों को बढ़िया कपड़े पहनाने के पीछे ये सोच थी कि जैसे अमीर का घोड़ा उसकी शान होता है, वैसे ही शानदार कपड़े पहने लंब-तड़ंग गुलाम भी उसकी रईसी पर मोहर लगाता है।
फिर हुआ ये कि कई शौकीन-मिजाज गुलामों का शौक हद लांघने लगा। वे मालिकों के न होने पर उनके कपड़े पहनकर बाहर निकलने लगे। मालिकों को भनक लगी। दोषी गुलामों को आननफानन मार दिया गया, लेकिन मालिक भड़क चुके थे। वे गुलामों से कपड़ों की तथाकथित आजादी छीनने की बात करने लगे। उन्होंने रोमन सीनेट में प्रस्ताव दे दिया कि गुलामों का ड्रेसकोड तय होना चाहिए, लेकिन ये क्या! सीनेट ने फैसला दिया कि व्यवस्था में कोई बदलाव ‘न’ हो। आपको लग रहा होगा कि सीनेट के सदस्यों ने समानता के बारे में सोचते हुए फैसला किया, लेकिन बात दरअसल उलट है। वे जानने थे कि गुलाम ड्रेसकोड में बाहर निकलेंगे तो राज खुल जाएगा। वे अपनी संख्या और ताकत जान जाएंगे और विद्रोह हो जाएगा।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पोशाकों पर शोध के दौरान पढ़ी-कही जाती ये कहानी मालिक-गुलाम की नहीं, बल्कि अब औरत-मर्द की है। आरामदेह कपड़ों में घर से बाहर निकली औरत घुड़सवारी भी कर सकती है, तैराकी भी। मीटिंग्स में चुस्त स्कर्ट के कारण पैरों को सिकोड़े रखने की गुलामी भी खत्म हो जाएगी। आजाद औरत खतरनाक हो सकती है। लिहाजा किसी अदृश्य अंतरराष्ट्रीय सीनेट ने बैठक बुलाई और मामले में जरा-सा ट्विस्ट दे दिया। उन्हें कपड़े चुनने की आजादी तो मिली, लेकिन ये बताते हुए कि फलां कपड़ों में तुम और हसीन लगोगी।
फलां सिंगार में और जवां। पुरुषों ने उसकी वॉर्डरोब को चुन-चुनकर ऐसे कपड़ों से भर दिया, जो उसके शरीर के उतार-चढ़ाव को किसी नक्काशी की शक्ल दे दें। पुरुषों का एक और खेमा भी था, जिसने औरत नाम की जायदाद को कपड़ों की पोटली बना दिया। ऐसी हुस्न-ए-गुलिस्तां पर सिवाय खाविंद के किसी की नजर न पड़े। कपड़े ही उसका नजरबट्टू बन गए। इधर प्रेम में गले तक डूबी औरतों ने खुद पर थोपी हुई इस ‘आजादी’ को हार बनाकर पहन लिया। ये तभी से चला आ रहा है।
हांगकांग की संस्था इक्वल अपॉर्चुनिटीज कमीशन (EOC) ने एविएशन इंडस्ट्री के कपड़ों को लेकर एक शोध किया। इसमें 29% महिला क्रू ने माना कि उन्हें ड्यूटी पर लगातार यौन हिंसा झेलनी होती है। हिंसा करने वालों में 59% लोग यात्री होते हैं, जबकि 41% लोग महिला अटेंडेंट के सहकर्मी होते हैं। खुद महिलाओं ने माना कि ऊंची हील और जालीदार स्टॉकिंग्स के कारण वे वस्तु हो चुकी हैं, जैसे फ्लाइट में बैठने पर यात्रियों को आराम के लिए मिलने वाली दूसरी सुविधाएं।
लगभग सभी फ्लाइटों में skirts-only policy होती है। और साथ में नापे हुए इंची हील्स। कपड़े ही नहीं, फ्लाइट क्रू (समझें औरतें) को चश्मा लगाने की भी इजाजत नहीं। अगर एकदम जरूरी हो तो लैंस लगा सकती हैं, वहीं पुरुष क्रू को ऐसी कोई मनाही नहीं। चश्मा पहनने के लिए भी दक्षिण कोरियाई महिला फ्लाइट अटेंडेंट्स को लड़ाई लड़नी पड़ी थी। ब्रिटिश एयरवेज की औरतों को साल 2016 में ट्राउजर पहनने के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी क्योंकि मासिक धर्म के दौरान स्कर्ट पहनने में तकलीफ होती थी। छोटी स्कर्ट छोड़ आरामदेह पैंट पहनने की इजाजत तो मिली, लेकिन इस शर्त पर कि उन्हें लाइन मैनेजर से परमिशन लेनी होगी।
खाड़ी देश, जहां घर की औरतों को सिर से पैर तक ढंका होना चाहिए, वहीं फ्लाइट में बैठते ही मर्द वैसी अटेंडेंट चाहते हैं जो जितने कम कपड़ों में हो, उतना अच्छा। स्पेनिश एयरलाइन्स Iberia में भर्ती से पहले महिलाओं का प्रेग्नेंसी टेस्ट होता और लिखित में लिया जाता कि वे गर्भवती नहीं होंगी क्योंकि इससे वे लुभावने कपड़े नहीं पहन सकेंगी।
17वीं सदी की शुरुआत में यूरोप की कुलीन महिलाएं कॉरसेट पहना करती थीं। इस पोशाक में लोहा और व्हेल की हड्डियां यहां-वहां लगाई जाती थीं ताकि औरत का शरीर ‘अनुशासित’ रहे। कपड़ों की तह के नीचे लेस की तरह लगा ये लोहा कितना नुकसान पहुंचाता था, इस पर लैंसेट (Lancet) ने एक स्टडी की, जो 1890 में Death From Tight Lacin नाम से छपी। इसमें बताया गया कि शरीर को कसा हुआ और उभरदार दिखाने के लिए औरतें रोज कितनी बर्बरता और चोट झेलती थीं। अब ये पोशाक उस काल की फिल्मों तक सीमित है, लेकिन बदला तब भी कुछ नहीं।
बात चाहे 17वीं सदी की हो या 21वीं की। पेरिस हो या फिर बुलंदशहर- औरत पर ‘ज्यादा से ज्यादा’ औरत दिखने का दबाव चला आ रहा है। वर्ना कोई वजह नहीं थी कि घुटने दिखाती जींस को संस्कार से जोड़ा जाता। और न ही इसकी कोई जरूरत थी कि लड़कियां विरोध, प्रदर्शन के लिए उसी एक जींस का सहारा लेतीं।साभार-दैनिक भास्कर
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