हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश और मुवक्किल के वकील के बीच दिलचस्प बातचीत हुई। मामला लुधियाना की एक महिला को बुरी तरह से पीटने वाले पति की जमानत को लेकर था। पति को लताड़ते हुए अदालत ने कहा- आप किस तरह के मर्द हैं जो पत्नी को क्रिकेट बैट से पीटते हैं? इस पर वकील ने सफाई में बताया कि मुवक्किल ने नहीं, बल्कि उसके पिता ने बहू को बैट से पीटा। यानी पति पाक-साफ थे और रिहाई चाहते थे। इस पर कोर्ट ने साफ कर दिया कि ससुराल में महिला को चाहे कोई भी पीटे-धुने, जिम्मेदारी पति की ही होगी।
सरसरी नजर डालें तो अदालत ने महिला के पक्ष में कार्रवाई की, लेकिन फैसले को डिकोड करें तो अलग ही समझ बनती है। ससुराल में चाहे जो पीटे, जिम्मेदारी पति की होगी- ये कहते हुए कोर्ट बता रही है कि उसे महिलाओं की ताकत पर रत्ती-पाई भरोसा नहीं। बहुरिया रूई की वो ढेरी है, जिसे चाहे जो धुनकर मनमाफिक गद्दे-कुशन बना सकता है।
‘चाहे जो पीटे’- से ये भी समझ बनती है कि पीटने वाला कोई भी हो सकता है, लेकिन पिटने वाली औरत ही होगी। माननीय अदालत के ज़ेहन में पिटती औरत की रिरिआती छवि को लेकर कोई मुगालता नहीं। वो जानती है कि औरत का पिटना वो सच है जो तभी रुकेगा, जब धरती पर से औरत जात ही खत्म हो जाए। तभी तो औरत की रक्षा का जिम्मा वो खुद उसे ही न देते हुए पति को डपटती है कि ‘उठो, जागो, सप्तपदी की रस्म के बाद घर आई ये युवा-अधेड़-बुढ़ाती स्त्री तुम्हारी जिम्मेदारी है। इसकी सुरक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी है’। अक्सर भीड़भाड़ वाली जगहों पर लाउडस्पीकर पर अपने सामान की सुरक्षा खुद करें- की चेतावनी सुनाई पड़ती है। औरत वही सामान है, जिस पर जो चाहे हाथ साफ कर सकता है। इसके लिए किसी बाजार या रेलवे स्टेशन की जरूरत नहीं, उसका अपना घर ही काफी है।
औरत को सीधे रास्ते पर रखने के लिए उसकी पिटाई जरूरी है। इस बात का जिक्र ओल्ड इंग्लिश कॉमन लॉ में भी मिलता है। 15वीं सदी के इस कानून के मुताबिक औरत को गलतियों पर पीटा जाना चाहिए ताकि उसे सबक मिल सके। हालांकि कानून औरतों पर नरमी बरतते हुए ये भी कहता है कि पिटाई इतनी गंभीर न हो कि जानलेवा हो जाए या फिर औरत के शरीर या दिमाग को कोई स्थाई नुकसान हो। गलतियों पर गुस्साए पतियों को शांत करने के लिए कानून ने ये तर्क दिया था कि जानलेवा पिटाई से होने वाला नुकसान ऐसा ही है, जैसे खुद लगाए पेड़ को काट दिया जाना। पेड़ आड़ा-तिरछा हो तो कैंची से उसे तराशा जाना चाहिए। पेड़ काटने से अपनी ही मेहनत पर पानी फिर जाता है।
साल 1882 में अमेरिकी प्रांत मेरीलैंड दुनिया का पहला देश था, जिसने पत्नी की पिटाई पर पतियों को 40 कोड़ों या फिर ज्यादा नुकसान पर सालभर की सजा का नियम बनाया। ज्यादा नुकसान से यहां मतलब बीवी के चेहरे या जिस्म के उन हिस्सों पर चोट से है, जो दिखाई देते हैं। साल 1975 में स्कॉटलैंड के एक जज ने एक ऐसे ही मूर्ख पति पर 11 पाउंड का जुर्माना लगाया, जिसने मार-मारकर पत्नी का चेहरा कुप्पा कर दिया था। जज ने फैसला सुनाते हुए कहा कि पति चाहे तो पत्नी को शरीर के पीछे या उन हिस्सों पर मार सकता है, जो ढंके हों, लेकिन चेहरे पर नहीं। स्त्री का चेहरा हर हाल में सुरक्षित और दर्शनीय रहना चाहिए, चाहे बाकी शरीर और आत्मा कितने ही जख्मों से लहूलुहान हो।
साल 2015-16 में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) का एक सर्वे आया था। सर्वे में 15 से 49 आयु वर्ग की 51% महिलाओं ने माना कि पति का पत्नी को पीटना जायज है। मारपीट को जायज ठहराने वाली पत्नियों के मुताबिक अगर खाना स्वादिष्ट न हो या फिर बच्चे बिगड़ जाएं तो पति को गुस्सा आता ही है। लगभग 37% बीवियों ने ये भी माना कि सास-ससुर की बेइज्जती करने पर भी पत्नी की पिटाई होनी चाहिए। यहां तक कि लगभग 9% औरतों ने पति के साथ यौन संबंध न बनाने वाली पत्नियों की पिटाई को भी सही माना।
इस देसी सर्वे के बहाने से पक्का किया गया कि औरतें पिटती हैं क्योंकि उन्हें यही पसंद है। लेकिन यहां सवाल ये आता है कि सर्वे में इस तरह का सवाल पूछने की जरूरत ही क्यों महसूस की गई। यहां बता दें कि NFHS या किसी भी सरकारी सर्वे में वस्तुनिष्ठ सवाल होते हैं यानी जिनका जवाब हां या नहीं में हो। ऐसे में जाहिर है कि प्रश्नावली में कई सवाल ऐसे भी रहे होंगे जो मनोविज्ञान टटोलने के बहाने से पत्नियों की पिटाई को जायज ठहराते होंगे।
सर्वे के अलावा किताबों और विज्ञान-पत्रिकाओं में भी पिटने-पिटाने का ये दस्तूर मोहरबंद किया जाता रहा। लंदन की मशहूर पत्रिका द रॉयल सोसायटी (The Royal Society) ने खूब जांच-पड़ताल के बाद पाया कि सबसे कामयाब औरतें भी ताकतवर मर्द को साथी चुनती हैं। ताकतवर यानी जीनियस नहीं, बल्कि वो जिसके बाजू पीपल के पेड़ की तरह बलिष्ठ हों और जो गाहे-बगाहे इस ताकत का सबूत भी औरत को कूट-पीटकर दे सके। पत्रिका में ये भी बताया गया कि ऐसे ताकतवर मर्द को दूसरे मर्द प्रतिद्वंदी की तरह देखते हैं। नतीजा ये होता है कि औरत दुर्ग बन जाती है, जिसकी छत पर मर्द नाम का झंडा फहराने की होड़ लगी होती है। जिसने दुर्ग के किवाड़ सबसे पहले तोड़े, जिसने जितना ज्यादा ध्वंस किया, पताका उसी की फहराएगी। दूसरी ओर दुर्ग पर ज्यादा से ज्यादा रहस्यमयी, हसीनतरीन और नक्काशीदार दिखने का बोझ होता है। जितना ज्यादा लहरदार होगा, उसे उतना ही ताकतवर मालिक मिलेगा।
लब्बोलुआब ये कि कभी मनोविज्ञान, तो कभी कानून के हवाले से औरतों का पिटना जायज बना रहा। लुधियाना मामले में कोर्ट का फैसला भी इससे अलग नहीं। पिटने से बचाने की जिम्मेदारी पति को देते हुए कोर्ट ने वैसे तो महिला अधिकारों के लिए जागरूकता दिखाई, लेकिन बराबरी का फैसला देने से चूक गई। उसके फैसले की तफसील ने औरत को एक कदम और पीछे खींच लिया। वे औरतें, जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया कि खुद को जमीन में गहरे रोप सकें। वे औरतें जो हजारों किलोमीटर दूर अकेली रहती हैं कि पसंदीदा काम कर सकें। वे औरतें जिन्होंने मर्दाना तमाचे का जवाब उससे भी झन्नाटेदार आवाज में दिया। वे तमाम औरतें अदालत के इस स्टीरियोटाइप फैसले के आगे धुंधलाती दिख रही हैं।साभार-दैनिक भास्कर
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