नरेंद्र मोदी सरकार बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों का विनिवेश करने जा रही है। इस साल 23 कंपनियों को बेचने की मंजूरी दी जा चुकी है। 2019 के पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे के मुताबिक भारत में 348 सरकारी कंपनियां हैं। नीति आयोग ऐसी कंपनियों की लिस्ट बना रहा है जिन्हें बेचा जाना है, इसमें बैंक और इंश्योरेंस कंपनियां भी शामिल हैं। एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगले कुछ सालों में सरकारी कंपनियों की संख्या सिमटकर महज दो दर्जन बचेगी।
ऐसा होने पर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के उन युवाओं के सामने चुनौती खड़ी होगी, जिन्हें सरकारी नौकरियों में अब तक 49.5% तक आरक्षण मिलता था। देश की दूसरी सबसे बड़ी फ्यूल रिटेलर कंपनी भारत पेट्रोलियम (BPCL) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। मोदी सरकार BPCL की 53.3% हिस्सेदारी बेचने की तैयारी में है।
यहां 1 जनवरी 2019 तक 11,894 कर्मचारी काम कर रहे थे। इनमें पिछड़ा वर्ग के 2042, अनुसूचित जाति के 1921 और 743 अनुसूचित जनजाति के कर्मचारी थे। इनमें 90% से ज्यादा भर्तियां आरक्षण के तहत हुई थीं। प्राइवेटाइजेशन के बाद वहां की चार हजार से ज्यादा आरक्षित भर्तियों को भी खुली भर्ती से भरा जाएगा। यह एक उदाहरण है। नीचे उन सरकारी कंपनियों और उनके कर्मचारियों की सूची है जिन्हें बेचने की मंजूरी दी जा चुकी है।
गृह मंत्रालय के राजभाषा आयोग से रिटायर रमेश भंगी कहते हैं, ‘ग्रेजुएशन में मेरे अंक 41% ही थे। आरक्षण की वजह से एग्जाम में बैठने का मौका मिला। फिर मैंने परीक्षा पास की और गृह मंत्रालय में काम करने का मौका मिला। आरक्षण न होता तो आज मैं कहीं पशु चरा होता या कागज बीन रहा होता।’
सरकारी कंपनियों के निजी हाथों में जाने से करीब 7 लाख आरक्षित नौकरियों पर संकट
2019 के पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे के मुताबिक, सरकारी कंपनियों में कर्मचारियों की कुल संख्या करीब 15 लाख है। इसमें से 10.4 लाख स्थायी कर्मचारी हैं। इन नौकरियों में अनुसूचित जाति के लिए 15%, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5% और ओबीसी के लिए 27% आरक्षण है। सरकारी कंपनियां विनिवेश के बाद निजी हाथों में जाएंगी तो नौकरियों से आरक्षण की कोई गारंटी नहीं रहेगी। इससे 49.5 प्रतिशत भर्तियां होंगी, जिनकी संख्या करीब 7 लाख हो सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया कहते हैं, ‘सरकारी कंपनियों का प्राइवेटाइजेशन आरक्षण खत्म करने के लिए ही किया जा रहा है। अब रिवर्स आरक्षण का दौर चल रहा है। सरकार ने पहली बार आर्थिक तौर पर कमजोर सवर्ण के नाम पर कथित जातीय आरक्षण लागू किया है। आने वाले दिनों में एक बार फिर से समाज में एक बड़ी खाई देखने को मिलेगी।’
वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल सरकार पर सीधा आरोप लगाते हैं। कहते हैं, “आरक्षण पर BJP सरकार ने 5 बड़े हमले किए हैं। हाल ही में लैटरल एंट्री वाली नौकरियां निकली थीं। इनमें आरक्षण लागू नहीं था। ओपन सीटों में 10% सवर्ण EWS आरक्षण दे रहे हैं, जबकि निजीकरण के जरिए पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग (PSU) में आरक्षण खत्म करने की तैयारी में हैं। आरक्षण से बचने के लिए ही सरकार इन दिनों भर्तियां निकालने के बजाय कॉन्ट्रैक्ट कर्मियों से काम करा रही हैं, क्योंकि इसमें आरक्षण नहीं देना पड़ता।”
जैसे-जैसे बढ़ा प्राइवेटाइजेशन, वैसे-वैसे कम हुईं आरक्षण से मिलने वाली नौकरियां
BSE-PSU के मुताबिक साल 2001-04 के बीच अब तक का सबसे बड़ा प्राइवेटाइजेशन हुआ। तब 14 बड़ी सरकारी कंपनियों को पूरी तरह प्राइवेटाइज करने की कोशिश की गई। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित क्रिस्टोफर जैफरलॉट के लेख के अनुसार, 2003 में केंद्र सरकार के SC कर्मचारी 5.40 लाख थे जो 2012 तक 16% घटकर 4.55 लाख हो गए।
जबकि साल 1992 में OBC आरक्षण की शुरुआत हुई। तब 2004 तक केंद्र की सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी 16.6% थी, 2014 आते-आते 28.5% हो गई। देश में OBC जनसंख्या करीब 41% है। आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में वे बराबरी की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन प्राइवेटाइजेशन के बाद इसकी भी गारंटी नहीं रह जाएगी। नीचे उन कंपनियों की सूची है, जिनको पूरी तरह से बेच दिया गया।
BSE-PSU के मुताबिक इन कंपनियों के अलावा भारत सरकार होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, HTL लिमिटेड, आईबीपी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड को भी प्राइवेट कर चुकी है। इसका सबसे बड़ा असर नौकरियों में पड़ा। केंद्र सरकार की नौकरियों में साल 2003 में 32.69 लाख लोग थे। प्राइवेटाइजेशन के चलते 2019 आते-आते 50% से ज्यादा घटकर सिर्फ 15.14 लाख कर्मचारी ही बचे। यानी 16 सालों में केंद्र सरकार की नौकरियों में 17.55 लाख की कमी आई।
प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण देने की मांग
मई 2014 से अब तक मोदी सरकार में 121 कंपनियों की हिस्सेदारी बेच दी गई है और 2014 के बाद से आई भर्तियाेें का आंकड़ा जारी नहीं किया गया है। प्राइवेटाइजेशन से आरक्षण को सबसे बड़ा झटका लगेगा। इस पर राज्य सभा में कार्यरत कृष्ण मेनन चिंता जताते हैं। वे कहते हैं कि आरक्षण के चलते उन्होंने बिहार से दिल्ली तक सफर तय किया।
दैनिक भास्कर से बातचीत में उन्होंने ऑर्गनाइज्ड प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की मांग की। कहा कि आरक्षण न सही तो कंपनियों के सिलेक्शन बोर्ड में दलित, आदिवासी, ओबीसी, महिला और अल्पसंख्यकों की बराबरी की भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए।
कृष्ण अपनी सरकारी नौकरी का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘मेरी कुछ लाचारियां हैं, नहीं तो मैंने अपनी आंखों के सामने सिलेक्शन बोर्ड में लोगों को अपनी जाति का पक्ष लेते देखा है। 100 में 99 बार लोग अपनी जाति को ही मौका देते हैं। इसलिए नौकरियों में आरक्षण का होना बेहद जरूरी है।’
रमेश भंगी कहते हैं कि 1986-87 में उन्होंने सरकार की ओर से चलाई गई कंप्यूटर ट्रेनिंग ली थी। तब आरक्षित वर्ग के लिए ये निशुल्क थी। जबकि गैर-आरक्षित वर्ग के लिए इसकी फीस 1500 रुपए थी। अगर आरक्षण न होता तो वे कंप्यूटर शिक्षा से वंचित रह गए होते। उसी कंप्यूटर शिक्षा के चलते उन्हें बाद में नौकरी मिली।साभार-दैनिक भास्कर
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