फेसबुक, गूगल, ट्विटर, अमेजन समेत सभी टेक कंपनियों का अंतिम लक्ष्य ऐसा डिजिटल मॉडल गढ़ना है, जो उनके पास रहेगा। यह मॉडल हमारी रुचियों के मुताबिक होगा, ताकि हमें ज्यादा समय तक मोबाइल स्क्रीन से चिपकाए रखा जा सके। हमारी पसंद-नापसंद तय करने के इरादे से कंटेंट परोसकर और हमारी छोटी से छोटी जानकारियों का रिकॉर्ड दर्ज करके हमें ही बदला जा रहा है। इसका असर हमारे व्यवहार और मानसिक स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था तक होता दिख रहा है।
जनमत: हमारी सोच में हेराफेरी की कोशिश
1- इन कंपनियों का लक्ष्य केवल हमें विज्ञापन देना नहीं है, बल्कि हमारी सोच और पसंद को प्रभावित करना भी है। वे हमारे व्यवहार और धारणा को धीरे-धीरे और थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बदलने की कोशिश कर रही है।
- सोशल मीडिया कंपनियों के प्लेटफॉर्म उपयोग करने के लिए हम पैसा नहीं चुकाते। इन कंपनियों के विज्ञापनदाता उनके वास्तविक उपभोक्ता हैं, हम इन कंपनियों के लिए उत्पाद हैं।
- कंपनियां हमारे विशाल डाटा का उपयोग कर पूर्वानुमान लगाना चाहती हैं कि हम चाहते हैं?
- आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस व मशीन लर्निंग की वजह से यह आसान होता जा रहा है।
- हम किस तस्वीर को कितने सेंकेंड देखते हैं, इसका भी डाटा है। यूजर को लगता है कि गूगल जानकारियों पाने का माध्यम है और फेसबुक संपर्क का।
- हकीकत है कि कंपनियां हमें ज्यादा से ज्यादा समय स्क्रीन चिपकाए रखकर यही डाटा जमा करती हैं।
नागरिक हित: सुरक्षा और सरकार का रुख
2- इंटरनेट फॉर डेमोक्रेसी के लिए काम कर रहीं अध्ययनकर्ता तृप्ति जैन कहती हैं कि सरकार और टेक कंपनियों को निजी डाटा की परिभाषा तय करनी होगी। अभी यह आर्थिक लाभ कमाने का संसाधन बना हुआ है। उन्हें समझना होगा कि यह डाटा जीते जागते लोगों और उनके जीवन से जुड़ा है। तब शायद वे अपनी गतिविधियों और व्यवस्था से हो रहा नुकसान देख पाएं। टेक कंपनियों से नागरिकों और लोकतंत्र को को हो रहा नुकसान रोकने का उचित कानूनी या नियामक फ्रेमवर्क फिलहाल नहीं है।
लोकतंत्र गढ़ रहे अपना नैरेटिव
3- तृप्ति जैन के मुताबिक बीते दशक में हमने फेसबुक और बाकी सोशल मीडिया को राजनीतिक नैरेटिव गढ़ते देखा है। ओबामा, ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत में इनकी भूमिका स्वीकारी गई। पीएम मोदी खुद इसकी शक्ति और क्षमता को स्वीकारते हैं। इसके जरिए भ्रामक बातें फैलाई जा सकती हैं। भारत में इसकी वजह से भीड़ हत्याएं, दंगे तक हुए।
युवा मन: देश में 42 फीसदी बढ़े खुदकुशी के मामले
4- सोशल मीडिया पर हजारों लाखों जाने-अनजाने लोग हमारी सोच, शक्ल, सामजिक पृष्ठभूमि, शिक्षा-आर्थिक स्थिति के अनुसार हमें जज कर रहे हैं। इसका मनोवैज्ञानिक असर भी हो रहा है। किशोरों में आत्महत्या और खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। अमेरिका में खुद को नुकसान पहुंचाने वाली किशोर उम्र लड़कियों की संख्या 2010 के मुकाबले तीन गुना हो चुकी है तो आत्महत्याएं 70 प्रतिशत बढ़ीं।
भारत में वर्ष 2000 से 2019 तक किशोरों व युवाओं की आत्महत्याएं 41.50 प्रतिशत बढ़ चुकी है। 2000 में देश में हुई कुल आत्महत्याओं में इस आयुवर्ग की आत्महत्याएं 38 प्रतिशत थीं। 2019 में यह 42 प्रतिशत हो चुकी हैं जो संख्या में करीब 17 हजार है।
सुधार की गुंजाइश
- कंपनियों को अपने नियम तय करने से रोकना होगा। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियम बनाने होंगे।
- कंपनियां कभी कमाई कम नहीं करना चाहेंगी, लिहाजा अंकुश के लिए कायदे कानून बनें व लागूं हों।
- देश और नागरिकों के हित कंपनियों के फायदे से ऊपर हैं, यह सभी को मानना होगा।
- गुलामी से मादक पदार्थों तक के खत्म हुए हैं। साभार-अमर उजाला
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