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दवाई की MRP का खेल; 50 पैसे में बनने वाली दवा 10 रुपये में बिकती है, 195 की दवा एक महीने में 350 की हो जाती है

by हमारा गाज़ियाबाद ब्यूरो
January 8, 2021
in राष्ट्रीय, व्यापार
दवाई की MRP का खेल; 50 पैसे में बनने वाली दवा 10 रुपये में बिकती है, 195 की दवा एक महीने में 350 की हो जाती है
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सोशल मीडिया पर कोरोना के दौरान दी जाने वाली एक दवा की फोटो वायरल हुई। फोटो में आइवरमेक्टिन टैबलेट (Ivermectin Tablets USP Dinzo-12) के दो पत्ते रखे हुए हैं। एक की मैन्यूफैक्चरिंग डेट सितंबर 2020 है और दूसरे की अक्टूबर 2020। पहले की MRP 195 रुपये है और दूसरे की 350 रुपये। सोशल मीडिया यूजर्स इस तस्वीर को शेयर करते हुए दवाई बनाने वाली फार्मास्युटिकल कंपनी और सरकार पर सवाल खड़े कर रहे हैं।

एक यूजर अनिरुद्ध मालपानी लिखते हैं, ‘फार्मा कंपनी लालची है। कोरोनाकाल में दवाई का दाम बढ़ा दिया, क्योंकि ये दवा कोरोना पीड़ित मरीजों को दी जा रही है। इसलिए एक महीने में करीब 100% रेट बढ़ गया! सरकार क्यों सोई हुई है?’ दिल्ली के डॉक्टर सैय्यद फैजान अहमद लिखते हैं, ‘ये लूट है।’

Pharma company greed. Jacked up the MRP during this COVID-19 pandemic because this medicine is used to treat patients with #COVID-19. Why are the regulators sleeping? Nearly 100% price hike in one month! pic.twitter.com/RJrTfnaq2N

— Dr Aniruddha Malpani, MD (@malpani) November 30, 2020

LOOT!
Pre #COVID price Rs 195/-#COVID time – Rs 350/-
Tab IVERMECTIN pic.twitter.com/BKY5a9rc10

— Dr Syed Faizan Ahmad (@drsfaizanahmad) November 30, 2020

खुद को एंटरप्रन्योर बताने वाले यूजर अभिषेक इसका जवाब देते हैं। कहते हैं, ‘सन फार्मा ने जो टैबलेट बनाए हैं, उसका दाम कम है, लेकिन ब्लू बेल फार्मा ने भी वही टैबलेट बनाई है, उसकी कीमत ज्यादा है।’

इस मामले को देखकर दो सवाल दिमाग में आते हैं…

1. दवाई के दामों में इतना ज्यादा फर्क क्यों है?

2. दवाई का दाम कैसे तय होता है?

जब हमने पड़ताल की तो इन सवालों के चौंकाने वाले जवाब सामने आए। देश में करीब 3000 फार्मास्यूटिकल कंपनियां दवाई बनाती हैं। इनमें 90% से ज्यादा प्राइवेट कंपनियां हैं। प्राइवेट कंपनियों के दांव-पेंच इतने शक्तिशाली और सरकार के कानून इतने कमजोर हैं कि दवाई अपने असली दाम से 2000% ज्यादा तक बिक रही हैं। इसके बारे में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को लेटर भी लिखे जा चुके हैं। आइए भारत के दवाई मार्केट के पन्नों को सिलसिलेवार तरीके से खोलते हैं…

पहले ये तीन बयान पढ़िए
हम DPCO की MRP के हिसाब से ही चलते हैं। हालांकि, विटामिन सी, जिंक, टॉनिक का दाम हम अपने हिसाब से तय करते हैं। हर महीने GST जमा करते हैं। डिस्ट्रीब्यूटर को देना हमारी मजबूरी होती है, क्योंकि रिटेलर पांच डिब्बे मांगते हैं। हम पांच डिब्बा तो नहीं बचेंगे। डिस्ट्रीब्यूटर 500 डिब्बे की मांग करते हैं। – नोएडा की फार्मास्युटिकल कंपनी जीएस इंडस्ट्रीज चेयरमैन सुशील अग्रवाल

कंपनी हमें पुराने रिश्तों और मार्केट के आधार पर दवाई बेचती है। अब वो हमें 2 रुपये में दे रही है या 500 में, कोई MRP से ज्यादा तो बेच नहीं सकता। सरकार को GST देते हैं। सरकार को सब पता है।- नोएडा के डिस्ट्रीब्यूटर अनूप खन्ना

हमें मल्टी विटामिन की गोलियां 70 रुपये तक में मिलती हैं, इन पर MRP 400 रुपये तक होती है, लेकिन लोगों को भी पता है। वे भी ज्यादा पैसा नहीं देते। – वाराणसी के रिटेलर सतीश राय

इन बयानों में 2 बातें बार-बार आ रही हैं, कुछ ऐसी दवाइयां जिनकी MRP सरकार तय करती है और कुछ ऐसी, जिनकी कीमत सीधे फार्मा कंपनियां करती हैं। क्या मामला है ये, जानिए…

सरकार ने दवाइयों को दो कैटेगरी में बांटा है, एक के दाम पर नजर रखती है, दूसरी पर नहीं

सीनियर साइंटिस्ट और ‘डिसेंटिंग डायग्नोसिस’ के लेखक डॉ. अरुण गद्रे कहते हैं, ‘सरकारी संस्‍था तमिलनाडु कार्पोरेशन, फार्मा कंपनियों से एंटी हाइपरटेंशन की दवा 50 पैसे में खरीदती है। यही दवा आम लोगों को 10 रुपये में बेची जाती है।’

वे दावा करते हैं, ‘मेरे पास कैंसर की एक दवाई की पर्ची रखी हुई है। ये रिटेलर को 100 रुपये में मिली थी। इसमें दवाई बनाने वाली फार्मास्युटिकल कंपनी का प्रॉफिट दिया जा चुका है। होलसेलर्स या डिस्ट्रीब्यूटर्स का मार्जिन दिया जा चुका है। 100 रु. की गोली की MRP 900 रु. लिखी है। रिटेलर इसे 200 से लेकर 900 रुपये तक बेच रहे हैं।’ वे इस जबर्दस्त मुनाफाखोर सिस्टम के लिए कमजोर सरकारी नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं।

दवाई के दाम ज्यादा हैं। लोगों से मनमाना पैसा वसूला जा रहा है। सरकार को इसका एहसास 1996 में हुआ। एक एसेंशियल मेडिसिन की लिस्ट बनाई गई। इसमें 289 सबसे ज्यादा जरूरी दवाइयों के दाम सुधारने की बात कही गई। सरकार ने 1997 में नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी यानी NPPA बनाकर कहा कि दवाई के दाम सुधारिए।

NPPA ने साल 2005 से ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर यानी DPCO के तहत दवाइयों की MRP तय करना शुरू किया। एसेंशियल दवाइयों की लिस्ट लंबी की। दरअसल, सरकार दवाई को दो कैटेगरी में देखती है।

1. एसेंशियल ड्रग

2. नॉन एसेंशियल ड्रग

सरकार ने कहा कि मल्टीविटामिन, कफ सिरप, टॉनिक इन सब नॉन एसेंशियल मेडिसिन के दाम पर सरकार अभी काम नहीं कर सकती। अभी उसका पूरा फोकस एसेंशियल ड्रग पर है।

2018 तक सरकार ने 874 एसेंशियल ड्रग चुन लिए और इसकी MRP तय करने लगी। ये बात जुदा है कि भारत में 10,000 से ज्यादा दवाइयां बनाई और बेची जाती हैं। 874 को छोड़कर बाकी को फार्मास्युटिकल कंपनियां मनमाफिक दामों पर बेच रही हैं।

दवाई के दाम तय करने का सरकारी सिस्टम
सरकार ने एरिया के हिसाब से अपने ड्रग इंस्पेक्टर नियुक्त किए हुए हैं। वे फार्मास्युटिकल कंपनियों के पास जाते हैं, किसी दवा में लगने वाले कच्चे माल का मुआयना करते हैं। इसके बाद बाजार भाव के हिसाब से कंपनी का मुनाफा, सरकारी नियम के अनुसार 16% डिस्ट्रीब्यूटर मार्जिन, 8% रिटेलर मार्जिन जोड़ते हैं और MRP तय कर देते हैं। अब उस MRP से ज्यादा कोई कैमिस्ट ग्राहक से पैसा नहीं ले सकता।

इस सिस्टम के लगाने के बाद NPPA ने मार्च 2017 में एक ट्वीट किया। इसमें बताया कि अथॉरिटी की कोशिशों से कैंसर की दवाओं की कीमत 10% से 86% तक कम हो गई हैं। डायबिटीज की दवाएं भी 10% से 42% तक सस्ती हो गईं।

यानी 2017 तक कैंसर और डायबिटीज की दवाएं अपनी असली कीमत से 86% ज्यादा दाम पर बेची जाती रहीं।

केमिकल एंड फर्टिलाइजर मंत्री मनसुख एल मांडविया ने दिसंबर 2017 में राज्यसभा में कहा कि NPPA के लगातार दवाइयों की कीमत पर लगाम लगाने से एक साल में मरीजों को 11,365 करोड़ रुपये की बचत हुई।

यानी केवल 500 जरूरी दवाइयों पर फार्मास्युटिकल कंपनियां, डिस्ट्रीब्यूटर, रिटेलर, एमआर, डॉक्टर कमीशन मिलाकर जनता से 11,365 करोड़ रुपये ले रहे थे, जिसके न लेने से भी उनका बिजनेस चल रहा है।

सरकारी सिस्टम में हैं खामियां, 8 गुना तक कम हो सकता है दवाई का दाम
सरकारी सिस्टम NPPA पहले से काम कर रहा था, लेकिन योजना आयोग (अब नीति आयोग) ने 2008 में प्रधानमंत्री कार्यालय को चिट्ठी लिखकर दवाई के दामों पर लगाम लगाने को कहा। क्या दिक्कत थी? हमने देखा कि कोरोनाकाल में आइवरमेक्टिन टैबलेट (Ivermectin Tablets USP Dinzo-12) जैसी दवाइयां 195 के बजाय 350 में बेची गईं। असल में सरकार ने जो 875 दवाइयों की लिस्ट बनाई है, उनकी कीमत अब भी ठीक नहीं है।

पिछले साल निजामाबाद चैंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष पीआर सोमानी ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को लेटर लिखा। कहा कि एसेंशियल दवाओं को अब भी अपने असली दाम से 500% से 2000% ज्यादा कीमतों पर बेचा जा रहा है। अगर सरकार काम करे तो दवाई के दाम 8 गुना तक कम कर सकती है।

‘जो दवाई पास करते हैं, उन्हें दवा के कॉम्बिनेशन का पता नहीं’
दिल्ली मेडिकल काउंसिल यानी DMC के एग्जिक्यूटिव मेंबर डॉ. अजय गंभीर एक टीवी कार्यक्रम में कहते हैं, ‘किसी भी दवाई को बनाकर मार्केट में लाने के लिए फार्मास्युटिकल कंपनियों को कई स्टेप से गुजरना होता है। अगर इन स्टेप पर ध्यान दिया जाए तो शायद कुछ फर्क पड़ेगा, नहीं तो दवाइयों के दाम कम नहीं होंगे।’

वे कहते हैं, ‘अभी ड्रग कंट्रोलर के ऑफिस में जो लोग दवाइयों को पास करते हैं, उनमें कुछ डॉक्टर होते हैं, कुछ फार्माकोलॉजी वाले होते हैं और कुछ फॉर्मासिस्ट लॉबी काम करती है। सरकार की कमेटी में लोगों को मार्केट का अंदाजा नहीं, घर में बैठ कर काम करते हैं।’

आगे कहते हैं, ‘इसी तरह केमिकल एंड फर्टिलाइजर मिनिस्ट्री में कुछ सरकारी डॉक्टर हैं, उन्हें जमीनी हकीकत का अंदाजा नहीं होता। कुछ तो मेरे मित्र हैं, नाम नहीं लूंगा। पर ये सच है। फिर हेल्थ मिनिस्ट्री कहती है कि दवाई में सबसे नई चीजें क्यों नहीं डाली गईं। हमारी दवाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए।’

उनके मुताबिक, ‘जब दवाई उपलब्ध नहीं है। सॉल्ट का कॉम्बिनेशन उपलब्ध नहीं है। फार्मास्युटिकल कंपनी कैसे वो बना देंगी। इन सब पेंचों के बाद कंपनियां जो दवाइयां बना रही हैं, उनके बारे में सही कहें तो 90% डॉक्टरों को पता तक नहीं होता कि मरीज के लिए सबसे सही दवा क्या होगी।’

‘कचरा हैं हजारों दवाइयां, डॉक्टर कमीशन के लिए लिखते हैं’
उत्तर प्रदेश के एक सरकारी डॉक्टर कहते हैं कि अब बहुत से डॉक्‍टर किसी खास कंपनी की ही दवाई लिखने के लिए 40% तक कमीशन लेते हैं। डॉक्टर अपनी पढ़ाई और मरीज का रोग देखकर नहीं, कौन सी कंपनी ज्यादा कमीशन देगी, ये देखकर दवाई लिख देते हैं। आजकल तो फार्मा कंपनियां डॉक्टरों को विदेशी ट्रिप करा रही हैं, आखिर क्यों?

वह सवाल खड़ा करते हैं कि आखिर सरकार खुद क्यों नहीं दवाइयां बनाती हैं। आज 90% से ज्यादा दवाई प्राइवेट कंपनियां बनाती हैं। अगर सरकार मेडिकल के क्षेत्र में खुद को आगे बढ़ाए तो अभी मरीज जितना खर्च करते हैं उसके 10% में ही सबका इलाज हो जाएगा।

सीनियर साइंटिस्ट अरुण गद्रे कहते हैं, ‘लगातार ऐसी दवाइयां बन रही हैं, जिनमें सॉल्ट कॉम्बिनेशन ठीक नहीं है। उनके खाने से कोई फायदा नहीं होता। कंपनियां चीन से पाउडर मंगाकर गोली बना रही हैं। ये कचरा हैं, इन्हें बाहर कर देना चाहिए।’

चार महीने में पतंजलि ने बेचे 250 करोड़ के किट, आयुष मंत्रालय ने कहा- हमें इस दवाई के बारे में पता नहीं
जून 2020 में बाबा रामदेव की पतंजलि ने कोरोनिल टैबलेट और श्वासारि वटी नाम की दो दवाइयां लॉन्च की। दावा किया कि इसका क्लिनिकल ट्रायल हुआ है। ट्रायल में शामिल सभी 218 कोरोना मरीज ठीक हो गए हैं। दवा लॉन्चिंग के बाद आयुष मंत्रालय ने कहा, ‘ऐसी किसी दवा के बारे में नहीं पता। इसकी बिक्री न की जाए।’ इसके बाद पतंजलि के चेयरमैन बाल कृष्‍ण ने मंत्रालय को कागज भेजे। उन्होंने कहा कि कुछ कम्यूनिकेशन गैप हुआ। ये दवाई इलाज नहीं रोकथाम के लिए है और नाम बदलकर दिव्य श्वासारि कोरोनिल किट रख दिया। चार महीने में ही पतंजलि की 25 लाख किट बिक गईं। इससे कंपनी को 250 करोड़ रुपये मिले।

सरकार के दाम रखने से पहले कंपनी ने बेच दी दवाएं, कमा लिए 35.8 करोड़
दवाई की कीमतों पर नजर रखने वाली नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी यानी NPPA ने 2018 में 5 ड्रग कंपनियों को नोटिस देकर कहा कि लीवर की गंभीर बीमारी हेपेटाइटिस सी की दवा प्राइस अप्रूवल से पहले ही बेचनी कैसे शुरू कर दी?

सोफास बबल 400mg, वेलपटास्‍विर 100 mg, के कॉम्बिनेशन वाली दवा की प्राइसिंग को नवंबर 2017 में मंजूरी मिली थी। लेकिन पांच कंपनियों ने इन्हें मई 2017 में ही बेचना शुरू कर दिया। रिपोर्ट्स के मुताबिक, हेपेटाइटिस सी की इस दवाई से कंपनियों ने मई-नवंबर 2017 के बीच 35.8 करोड़ रुपये कमाए। नवंबर 2017 में NPPA ने इस दवा की एक टेबलेट की कीमत 615 रुपये तय की, लेकिन दवा कंपनियों ने एक टेबलेट को 630 से 660 रुपये में बेचा। तब भारत में हेपेटाइटिस सी के 60 लाख मरीज थे।

नॉन एसेंशियल चीजों पर भी लगाम की जरूरत, वसूला जा रहा है 800% ज्यादा पैसा
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी IMA के पूर्व अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल कहते हैं कि एसेंशियल चीजों को लेकर सरकार ने कदम उठाए हैं, लेकिन नॉन एसेंशियल जैसे सीरिंज पर मार्जिन 700% से 800% बढ़े हुए होते हैं। सीरिंज पर कंपनियां अपने मन माफिक दाम प्रिंट करती हैं।

अरुण गद्रे बताते हैं, ‘नसों में डाली जाने वाली छोटी ट्यूब स्टेंट की पूरी यूनिट पहले 14,000 रुपये में भारत आ जाती थी। लेकिन आम लोगों को ये 1.05 लाख तक में बेचा जाता था। अब इस पर थोड़ी लगाम लगी है। ऐसे ही दूसरी नॉन एसेंशियल चीजों पर ध्यान देना होगा। दरअसल ये मल्टी-बिलियन डॉलर्स का खेल है इसलिए सरकार भी चुप रहती है।’

आज की रिपोर्ट में इतना ही। आगे हम आपको जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयों के खेल के बारे में बताना चाहते हैं। जैसे- पैरासिटामॉल की एक गोली 10 पैसे की होती है, लेकिन ठीक वही काम करने वाली कैलपोल, डोलो, क्रोसिन की गोलियां 1 से लेकर 3 रुपये तक बिकती हैं। ये 10 पैसे से 3 रुपये में कैसे पहुंचती हैं? ये जानना चाहते हैं तो हमें सुझाव वाले कॉलम में लिख भेजिए।साभार-दैनिक भास्कर

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