यह संकट दूसरी बार सार्वजनिक हो गया है, क्योंकि पार्टी के कोषाध्यक्ष तथा मुख्य संकटमोचक अहमद पटेल अनुपलब्ध हैं, और COVID-19 से जुड़ी दिक्कतों के चलते अस्पताल में हैं.
कांग्रेस के असंतुष्टों ने गांधी परिवार के सदस्यों से सांगठनिक / पार्टी भूमिकाओं को त्याग देने के लिए नहीं कहा है – अब तक. लेकिन दो आम चुनावों तथा राज्य चुनावों में मिली शृंखलाबद्ध पराजयों (हाल ही में, बिहार में हुआ बुरा हाल) से स्थिति कुछ ऐसी हो गई है – अगर अब नहीं, तो कब…?
दशकों तक गांधी परिवार की एकछत्र भूमिका के चलते कांग्रेस को राजनैतिक दल के स्थान पर पारिवारिक संगठन की तरह चलाए जाने का आरोप लगाने का अवसर आलोचकों को मिलता रहा. यह आप्रासंगिक-सा हो गया कि कांग्रेस चुनाव कब जीतेगी. अब, पार्टी मशीनरी का अभाव तथा मतदाताओं व पार्टी के ही एक हिस्से द्वारा गांधी परिवार के नेतृत्व को खारिज कर दिया जाना उजागर हो चुका है.
मैंने अपने संपादक से इस कॉलम पर बेहद विस्तार से रिपोर्ट करने के लिए समय मांगा. कई असंतुष्टों से बात की, जिनमें से कुछ वे थे, जो कभी गांधी परिवार के वफादार रहे हैं, और अब तेज़ी से कम हो रहे हैं. पार्टी के ऐसे नेताओं से भी बात हुई, जो कहते हैं कि वे निराशा से पार्टी में हो रहे अंतःस्फोट को देख रहे हैं, जिसके साथ ही उनके करियर की संभावनाएं भी खत्म हो रही हैं.
UPA सरकार में मंत्री रहे एक असंतुष्ट ने मुझसे कहा कि इस बार सब खत्म हो जाएगा, “क्योंकि ‘TPT’ नीति का अंत हो गया है…” जब मैंने पूछा, उन्होंने समझाया – असंतुष्टों की भाषा में TPT का अर्थ है, टांग पर टांग रखकर बैठे हैं (यानी कोई कार्रवाई नहीं करना). इसके अलावा गंभीर होकर उन्होंने कहा, “राहुल गांधी बिहार चुनाव की ज़िम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते… उन्होंने ही फैसले किए… उन्होंने अपनी टीम भेजी थी, जिसने निराशाजनक प्रदर्शन किया… अब वह गोवा में हैं… हम जानते हैं कि श्रीमती गांधी (सोनिया गांधी) की तबीयत नासाज़ है, और उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए जाना पड़ा है, लेकिन उन्हें (राहुल गांधी को) अब उन्हें (सोनिया गांधी) ढाल की तरह इस्तेमाल करना रोक देना चाहिए…”
सो, अब असंतुष्ट – मुख्यतः कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आज़ाद और शशि थरूर जैसे वरिष्ठ नेता – चाहते क्या हैं…? वे संगठन में नीचे से शीर्ष तक चुनाव की मांग कर रहे हैं, ताकि पार्टी में हर स्तर पर चुने हुए नेता हों, मनोनीत नेता नहीं. क्या इसे गांधी परिवार पर सीधे हमले के अलावा किसी अन्य रूप में देखा जा सकता है…? सोनिया अंतरिम पार्टी अध्यक्ष हैं (प्रत्यक्षतः संगठन के आग्रह की वजह से), और उनके बच्चे राहुल तथा प्रियंका गांधी वाड्रा पार्टी के महासचिव. असंतुष्ट भले ही मुंह से न कहें, लेकिन वे पार्टी में हर पद पर चुनाव चाहते हैं, उन पर भी, जिन पर गांधी परिवार बैठा है.
उधर, टीम राहुल को सोनिया गांधी को रबर स्टाम्प की तरह इस्तेमाल करने से सुविधा हो गई है, जबकि सभी निर्णय राहुल ही लेते हैं. ये लोग चाहते हैं कि राहुल चुनाव के बिना ही दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनें. सूत्रों के मुताबिक, चुनाव होंगे, लेकिन यदि कोई अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरता है, तो राहुल चुनाव नहीं लड़ेंगे, क्योंकि वह एकमत से चुने जाना चाहते हैं. इसी वजह से वह उन नेताओं के प्रति हमलावर होते रहते हैं, जिन्हें वह पसंद नहीं करते.
एक युवा राज्य नेता का कहना था, “यह सेनापति अपनी ही फौज से जंग में जुटा हुआ है…”
यह संकट दूसरी बार सार्वजनिक हो गया है, क्योंकि पार्टी के कोषाध्यक्ष तथा मुख्य संकटमोचक अहमद पटेल अनुपलब्ध हैं, और COVID-19 से जुड़ी दिक्कतों के चलते अस्पताल में हैं. अहमद पटेल के सक्रिय नहीं रहने से अधिकतर नेताओं के लिए सोनिया गांधी तक पहुंच बनाने का एकमात्र रास्ता बंद हो गया है. परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस में मौजूद संकट अब पूरे जलवे के साथ सार्वजनिक है.
पार्टी नेता हतोत्साहित होकर देख रहे हैं और टीम राहुल पश्चिम बंगाल में वामदलों से गठजोड़ कर रही है, जहां कुछ ही महीनों में चुनाव होने वाले हैं. उनका कहना है कि ममता बनर्जी की पार्टी गठबंधन का तो कोई फायदा भी होता, लेकिन वामदल तो पश्चिम बंगाल में खत्म हो चुके हैं, हालांकि वे यह स्वीकारते हैं कि हाल ही में बिहार में उन्होंने ठीकठाक प्रदर्शन किया. एक कांग्रेसी ने ‘तृणमूल कांग्रेस (TMC) के 20 सांसदों’ का ज़िक्र करते हुए कहा कि अगर दोनों पार्टियां मिलकर काम करतीं, तो उन्हें हराना मुश्किल होता. गठबंधन की गैरमौजूदगी में दोनों ही पार्टियां बंगाल में और केंद्र में एक दूसरे पर हमला ही करती रह जाएंगी.
कश्मीर में भी नए-नए बने गुपकर गठबंधन को लेकर पार्टी द्वारा खुलकर कुछ भी नहीं कहे जाने से भी पार्टी का एक धड़ा परेशान है. ये धड़ा पूछता है, क्या हम फारुक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के साथ काम कर रहे हैं या उनके खिलाफ…? यह कोई घुमा-फिराकर पूछा गया सवाल नहीं है. लेकिन सच यही है कि इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलने से भी पार्टी नेतृत्व में व्याप्त असमंजस साफ दिखाई देता है.
गांधी परिवार के दृष्टिकोण तथा काम करने के तरीके को चुनौती देने वाले नए खत की ख़बरें सही नहीं हैं. असंतुष्ट अब अपनी समस्याओं के साथ सार्वजनिक हो रहे हैं. एक वरिष्ठ नेता ने मुझसे कहा, “राहुल गांधी हमें पार्टी से बाहर कर देना चाहते हैं, हम समझते हैं कि वह पार्टी को नष्ट कर रहे हैं…” चुनावों में एक के बाद एक मिल रही हार ने गुलाम नबी आज़ाद और कपिल सिब्बल जैसे नेताओं को मामले को दोबारा उठाने का मौका दिया, जिसे उन्होंने कुछ ही महीने पहले उठाया था, जब 23 पार्टी नेताओं ने सोनिया गांधी को खत लिखकर संगठन चुनाव करवाने का आग्रह किया था.
साफ है कि सोनिया गांधी द्वारा समझौते की कोशिश के रूप में नई समितियों के गठन और उनमें कुछ असंतुष्टों को स्थान दिए जाने के बावजूद बैठक के आसार कम हो गए हैं. अब यह उनका तरीका हो गया है, जब भी कुछ अटके, समिति के पास भेज दिया जाए. राहुल के लौटकर (अध्यक्ष पद पर) आने तक पद को संभाले रखने का काम उनके लिए मुश्किल हो गया है. असंतुष्ट अब माफ करने या राहुल गांधी का अध्यक्ष पद पर दूसरा कार्यकाल थोपे जाने को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं. उनका कहना है कि वे बराबर के साझीदार हैं, और अब जवाबदेही होनी ही चाहिए.
जब टीम राहुल उन्हें ट्विटर पर खारिज करती है (जो गोवा के अलावा उनका दूसरा सबसे पसंदीदा स्थान बना हुआ है), तो कई असंतुष्ट, जो वरिष्ठ अधिवक्ता रहे हैं, अब कांग्रेस में चुनाव करवाने के लिए अदालती दखल की बात करने लगे हैं.
इस बार राहुल यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस टूट रही है, क्योंकि जंग पार्टी के भीतर रहकर ही सामने से लड़ी जा रही है.साभार-एनडीटीवी इण्डिया
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