दुनिया भर के लोग इस्लामिक कट्टरवाद की जमीनी हकीकत को समझें। चुप बैठना कोई विकल्प नहीं है और डर को पाला बदलने के लिए जरूरी है कि न केवल कट्टरपंथियों से सख्ती से निपटा जाए बल्कि उनके समर्थन को सीमित किया जाए।
पेरिस में मोहम्मद साहब का कार्टून दिखाने वाले शिक्षक का सिर कलम। यह किसी सभ्य समाज में तो नहीं ही होना चाहिए, लेकिन हुआ। फ्रांस में जो कुछ हुआ, उससे दुनिया को चिंतित होने की जरूरत है और उसके बाद जो हो रहा है, उससे डरने की, क्योंकि सिरफिरे धर्मांध अपराधी किसी समाज में हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों का बचाव और महिमामंडन सभ्य समाज को डराने वाला है। यह किस तरह का मुस्लिम समाज बन गया है? ऐसे जघन्य अपराध की निंदा की बजाय इस्लामोफोबिया का हौवा खड़ा किया जा रहा है। एक बेकसूर शिक्षक को मौत के घाट उतार दिया गया और जबानों पर ताले लग गए या समर्थन में आवाज उठने लगी।
कमाल है कि दिन-रात सेक्युलरिज्म की दुहाई देने और सेक्युलरिज्म को खतरे में बताने की डुगडुगी पीटने वाले तमाम भारतीय मुस्लिम और मुस्लिम समाज के खैरख्वाह अचानक गूंगे से हो गए। जिन आमिर खान की पत्नी को भारत में डर लगता है, उन्हेंं ऐसे अतिवादियों से डर क्यों नहीं लगता? फ्रांस की घटना और उसके बाद तुर्की, पाकिस्तानी और दूसरे कई देशों का फ्रांस के उत्पादों के बायकॉट की अपील बड़े संकट की आहट नहीं, मुनादी है। आम लोगों की चुप्पी, वह समर्थन में हो या भय से, ऐसे तत्वों का हौसला बढ़ाती है।
फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो ने शिक्षक की हत्या के बाद कहा- इस्लाम संकट से दो-चार है
फ्रांस जहां आजादी, समानता और भाईचारा की ही तरह धर्मनिरपेक्षता भी देश की संस्कृति का नीति वाक्य है, उसके राष्ट्रपति को कहना पड़ रहा है कि ‘अब डर उन्हेंं (कट्टरपंथियों को) लगेगा।’ शिक्षक की बर्बर हत्या के बाद से फ्रांस में कट्टरपंथियों के खिलाफ बहुत तेज अभियान तेज चल रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो ने शिक्षक सैम्युएल पैटी की हत्या के बाद कहा कि इस्लाम संकट से दो-चार है। इससे कई इस्लामी देश बिफर गए।
पाकिस्तान, ईरान और तुर्की ने बड़ी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। धर्मांध हत्यारे के खिलाफ नहीं, फ्रांस के राष्ट्रपति के विरुद्ध। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने तो यहां तक कह दिया कि राष्ट्रपति मैक्रो को मनोचिकित्सक की जरूरत है। कई इस्लामी देशों ने फ्रांस में बने सामान का बहिष्कार करने का एलान किया है। फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार की मांग करने वालों में भारतीय मुस्लिम भी थे।
धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी साथ-साथ नहीं चल सकते
यह सब हो रहा है मनसा, वाचा, कर्मणा सेक्युलर फ्रांस के साथ। इसने फिर यह सवाल उठा दिया है कि धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी साथ-साथ नहीं चल सकते। धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अभिव्यक्ति की आजादी की हत्या की जा सकती है। सैम्युल पैटी की हत्या के और क्या मायने निकाले जाएं। सेक्युलर फ्रांस ही नहीं, सेक्युलरिज्म में विश्वास रखने वाले सभी लोगों के लिए शार्ली आब्दो कांड आने वाले संकट की चेतावनी थी। पैटी हत्याकांड उसके आने की घोषणा है।
इस्लाम का भाईचारा मानव का सार्वभौम भाईचारा नहीं है
दुनिया को आज जिस समस्या का सामना करना पड़ रहा है, उसके बारे में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कई दशक पहले ही सावधान कर दिया था, लेकिन सेक्युलरिज्म की मरीचिका के पीछे भागने वाले और सेक्युलरिज्म के नाम पर अपने दूसरे एजेंडे चलाने वालों ने कभी सच्चाई का सामना नहीं किया। डॉ. आंबेडकर के मुताबिक ‘इस्लाम का भाईचारा मानव का सार्वभौम भाईचारा नहीं है। यह भाईचारा सिर्फ मुसलमानों का मुसलमानों के लिए है। मुस्लिम समाज से बाहर वालों के लिए सिर्फ अपमान और अदावत है।’ उन्होंने इस्लाम की दूसरी खामी बताई कि ‘यह सामाजिक स्वराज की व्यवस्था है, क्योंकि उसकी निष्ठा उस देश के प्रति नहीं होती जहां वह रहा है। उसकी निष्ठा उसके धर्म के साथ होती है।’ फ्रांस में यही तो हुआ। सोचिए शिक्षक पैटी की हत्या करने वाला युवक सिर्फ 18 साल का था। उसके मन में असहिष्णुता का यह जहर कहां से आया?
अल्ला का इस्लाम मुल्ला का इस्लाम बन गया
इस्लाम, अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ शांति में प्रवेश करना होता है। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं- ‘जिस इस्लाम का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद ने किया था और जिसका रूप अबू बकर, उमर, उस्मान और अली जैसे खलीफाओं ने संवारा, वह धर्म सचमुच स्वच्छ धर्म था और उसके अनुयायी सच्चरित्र, दयालु, उदार और ईमानदार थे।’ वह लिखते हैं कि ‘बाद के अनुयायी बर्बर हो गए। यूरोप और एशिया में लूट-खसोट, मारकाट, खूंरेजी और पाशविक अत्याचार मुसलमानों के खास लक्षण माने जाने लगे।’ वह अपनी बात के समर्थन में समाजशास्त्री एमएन राय को उद्धृत करते हैं-‘दरबार की विलासिता के कारण अरब की विद्या और संस्कृति की साधना दूषित हो गई और इस्लाम की गौरवपूर्ण पताका अपनी आरंभिक क्रांतिकारी चमक खोकर तुर्कों और तातारों के व्यभिचारी हाथों में पड़कर अपना सतीत्व खो बैठी।’ दिनकर की इस पुस्तक का पहला संस्करण 1956 में आया था और नेहरू ने उसकी प्रस्तावना लिखी थी। इन छह दशकों में अल्ला का इस्लाम मुल्ला का इस्लाम बन गया है। जिन्हेंं इस्लाम से प्रेम है उन्हेंं सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ?
जो ज्यादा हिंसक है वही असली इस्लाम को मानने वाला है
शुरुआत जिस इस्लाम से हुई थी, उसमें उसके मानने वाले सब एक थे। आज इसके फिरकों की गिनती बढ़ती जा रही है। परिभाषा यह बनती जा रही है कि जो ज्यादा हिंसक है वही असली इस्लाम को मानने वाला है। बात इतनी ही नहीं है कि ऐसे तत्व दूसरे मतावलंबियों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। आपस में उनकी मारकाट और भी हिंसक है। कहीं तो कुछ गड़बड़ है। सबसे अच्छा बदलाव वही होता है जो अंदर से हो। किसी मजहब या समाज में सुधार तभी संभव है जब उसके अंदर से यह मांग उठे, क्योंकि बाहर वालों की हर ऐसी मांग को संदेह की नजर से देखा जाएगा।
फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो का अहम बयान- ‘अब डर पाला बदलेगा’
समय आ गया है कि दुनिया भर के लोग इस्लामिक कट्टरवाद की जमीनी हकीकत को समझें। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो का अहम बयान है कि ‘अब डर पाला बदलेगा।’ क्या दुनिया के दूसरे देश उनकी इस नीति से सहमत हैं? यदि सहमत नहीं हैं तो उनके पास दूसरा क्या रास्ता है, क्योंकि चुप बैठना कोई विकल्प नहीं है और डर को पाला बदलने के लिए जरूरी है कि न केवल कट्टरपंथियों से सख्ती से निपटा जाए, बल्कि उनके समर्थन को सीमित किया जाए। इससे पहले कि गैर मुस्लिम बिरादरी इन कट्टरपंथियों का विरोध करते-करते पूरे समुदाय के ही खिलाफ हो जाए, मुस्लिम समुदाय इन तत्वों के खिलाफ खड़ा हो। दुनिया में शांति और भाईचारे के लिए यही एक रास्ता है।साभार-दैनिक जगरण
हमारा न्यूज़ चैनल सबस्क्राइब करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
Follow us on Facebook http://facebook.com/HamaraGhaziabad
Follow us on Twitter http://twitter.com/HamaraGhaziabad